उत्तराखंड में भू-कानून पर लड़ाई तेज हो गई है। कोई धड़ल्ले से बिक रही पहाड़ की जमीन बचाने की लड़ाई लड़ रहा है तो कोई अपनी सियासी जमीन बचाने के लिए। बात अब इतनी आगे बढ़ चुकी है कि धामी सरकार को इसे संभालना भारी पड़ रहा है। 29 सितंबर को ऋषिकेश में हुई रैली में जिस कदर भीड़ उमड़ी, वह सरकार के माथे में चिंता की लकीरें खींच दी हैं। 27 सितंबर को दोपहर देहरादून में सचिवालय के मीडिया हॉल में सीएम धामी एक प्रेस कॉन्फ्रेंस करते हैं। वह घोषणा करते हैं, हम एक सख्त भू-कानून ला रहे हैं।
इसके लिए गठित समिति से विस्तृत अध्ययन के लिए कहा गया है। यह कानून अगामी बजट सत्र में पेश किया जाएगा। सीएम धामी के एलान के बाद माना जा रहा था कि आंदोलनकारी के रुख में नरमी आएगी। मगर, दो दिन बाद ही ऋषिकेश में आयोजित रैली में जिस तरह लोग शामिल हुए उससे यही लग रहा है कि धामी सरकार को यह मुद्दा काफी परेशान करने वाला है। एक सवाल मन में आ रहा होगा। अगर धामी सरकार कह रही है कि वह सख्त कानून ला रही है तो फिर क्यों प्रदर्शन हो रहे हैं। क्या आंदोलनकारी धामी सरकार की बात पर भरोसा नहीं कर रहे है? क्या उनकी मांग और धामी सरकार के आश्वासन में फर्क है? आइए, विस्तार से समझते हैं…
मूल निवास, भू-कानून समन्वय संघर्ष समिति, जो इस आंदोलन का नेतृत्व कर रही है, उसकी मांग है कि बाहरी लोगों को राज्य में जमीन खरीदने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। सरकारी सेवाओं में बाहरी लोगों की नियुक्तियां नहीं होनी चाहिए। उत्तराखंड में मूल निवास नियमावली लागू हो। भू-माफियाओं के हाथ में जमीन नहीं जानी चाहिए। जबकि, धामी सरकार जिस कानून की बात कर रही है उसमें राज्य के बाहरी लोगों को 250 वर्ग मीटर जमीन खरीदने की अनुमति होगी। जिसे वह सख्त कदम बता रही है वह है, वर्तमान में लागू भू-कानून के तहत एक व्यक्ति को 250 वर्गमीटर जमीन ही खरीद सकता है। लेकिन व्यक्ति के अपने नाम से 250 वर्गमीटर जमीन खरीदने के बाद पत्नी के नाम से भी जमीन खरीदी है तो ऐसे लोगों को मुश्किल आ सकती है। तय सीमा से ज्यादा खरीदी गई जमीन को सरकार में निहित करने की कार्रवाई करेगी।
मूल निवास, भू-कानून समन्वय संघर्ष समिति हर मंच से कह रही है कि उत्तराखंड में ज्यादातर होटल, रिजॉर्ट, रेस्टोरेंट, और दूसरे उद्योग दूसरे राज्यों के लोग चला रहे हैं। स्थानीय लोग अपनी जमीन बेचकर उन्हीं होटलों में नौकरी करते हैं। अगर उत्तराखंड में सख्त भू-कानून लागू नहीं हुआ तो राज्य का सारा उद्योग क्षेत्र दूसरे राज्य के लोगों के हाथ में आ जाएगा। समिति संयोजक मोहित डिमरी कहते हैं कि समिति लंबे समय से प्रदेश में सशक्त भू-कानून और मूल निवास की मांग कर रही है। सशक्त भू-कानून नहीं होने से उत्तराखंड की शांत वादियां अपराध का अड्डा बन गईं हैं। वह भू-कानून से अपराध को जोड़ते हुए कहते हैं कि अधिकतर अपराध के मामलों में बाहरी लोगों के नाम सामने आते हैं।
भू-कानून समन्वय संघर्ष समिति के लंबे आंदोलन का असर भी दिखने लगा है। पहाड़वासियों को लगने लगा है कि राज्य में देश के पहले भूमि सुधार कानून, उत्तर प्रदेश (उत्तराखंड) जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम में कई छेदकर मूल निवासियों की जमीनों पर नई तरह की जमीदारी विकसित हो रही है। प्रदेश की ग्रीष्मकालीन राजधानी गैरसैण में स्थानीय लोगों की जमीनों पर नेताओं और धन्नासेठों द्वारा की जा रही खरीद-फरोख्त से पहाड़वासियों की आशंका को बल मिल रहा है। बतादें कि उत्तराखंड राज्य गठन के साथ धारा 371 की मांग भी की गई थी। नब्बे के दशक में चले ऐहिासिक आंदोलन में जहां पृथक राज्य की मांग की जा रही थी, वहीं पहाड़वासियों की जमीनें एवं उनकी सांस्कृतिक पहचान बचाए रखने के लिए उत्तर पूर्व के राज्यों की तरह संविधान के अनुच्छेद 371 के विभिन्न प्रावधानों की व्यवस्था की मांग की जा रही थी। अलग राज्य तो मिल गया मगर, अनुच्छेद 371 नहीं मिला। हालांकि, यह कभी मुद्दा नहीं बना।
भू-कानून पर अब तक क्या-क्या हुआ?
वर्ष 2002 में उत्तराखंड सरकार ने राज्य के भीतर अन्य राज्य के लोगों के लिए सिर्फ 500 वर्ग मीटर की जमीन खरीदने का प्रावधान किया था। इसके बाद 2007 में इसमें संशोधन किया गया। तब इसे 500 वर्ग मीटर से कम कर 250 वर्ग मीटर कर दिया गया। 6 अक्टूबर 2018 में भाजपा की तत्कालीन सरकार ने इसमें फिर से संशोधन किया। जिसके बाद अध्यादेश लाया गया। जिसमें उत्तर प्रदेश जमीदारी विनाश और भूमि सुधार अधिनियम 1950 में संशोधन कर दो और धाराएं जोड़ी गईं। इसमें धारा 143 और धारा 154 के तहत पहाड़ों में भूमि खरीद की अधिकतम सीमा को ही समाप्त किया गया। इसके बाद राज्य के बाहरी या भीतरी लोग कभी भी कितनी भी जमीन खरीद सकती है। इसे राज्य में निवेश को बढ़ाने के लिए लागू किया गया। अब सरकार के इस फैसले का ही विरोध होने लगा है। इसके साथ ही राज्य में मूल निवास 1950 लागू करने की मांग भी की जा रही है। बता दें कि मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने एलान किया है कि उनकी सरकार वृहद भू-कानून लाने जा रही है। अगले साल बजट सत्र में कानून का प्रस्ताव लाया जाएगा। लेकिन समिति जल्द से जल्द भू कानून को लागू करने की मांग कर रही है।
उद्योग के लिए बदला कानून
वर्ष 2018 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उपस्थिति में आयोजित निवेशक सम्मेलन में हुए 1.25 लाख करोड़ के पूंजी निवेश प्रस्तावों के एमओयू से तत्कालीन त्रिवेंद्र सिंह सरकार ने उद्योगों की मांग के आधार पर जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950 को थोड़ा और लचीला बना दिया। त्रिवेंद्र सरकार ने 2018 में उत्तराखंड (उत्तरप्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950)(अनुकूलन एवं उपांतरण आदेश, 2001) में संशोधन कर उक्त कानून में धारा 154 (2) जोड़ते हुए पहाड़ों में भूमि खरीद की अधिकतम सीमा खत्म कर दी। इस कारण उद्योग के नाम पर खरीद कर उसका भू-उपयोग परिवर्तन आसान हो गया। इसका दुरुपयोग भी किया गया।
राज्य में कृषि योग्य केवल 13 फीसदी जमीन
उत्तराखंड में कृषि के लिए केवल 13 प्रतिशत जमीन वर्गीकृत है जिसका एक बड़ा हिस्सा पलायन के कारण उपयोग से बाहर हो गया। राज्य गठन के बाद ही लगभग 1 लाख हेक्टेअर कृषि योग्य जमीन कृषि से बाहर हो गई और ऐसी जमीन में या तो इमारतें उग गईं या फिर जंगल-झाड़ियां दग गई हैं। अगर इतनी सीमित जमीन भी पहाड़ के लोगों से छीन ली गई तो उनकी पीढ़ियां ही भूमिहीन हो जाएंगी। उत्तराखंड में पहली निर्वाचित सरकार के मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने 2003 में नए भू-कानून की प्रस्तावना में कहा था कि उन्हें बड़े पैमाने पर कृषि भूमि की खरीद फरोख्त अकृषि कार्यों और मुनाफाखोरी के लिए किए जाने की शिकायतें मिल रहीं हैं। उनका कहना था कि प्रदेश की अंतरराष्ट्रीय सीमाओं को देखते हुए असामाजिक तत्वों द्वारा भी कृषि भूमि के उदार क्रय-विक्रय नीति का लाभ उठाया जा सकता है। इसलिए यह कानून आवश्यक हो गया है। लेकिन, बाद के संशोधनों से इस कानून का मूल मकसद ही खत्म कर दिया।
हिमाचल जैसे कानून की क्यों हो रही वकालत
पड़ोसी राज्य हिमाचल में जमीन खरीद का टेनेंसी एक्ट लागू है। इस एक्ट की धारा-118 के तहत कोई भी गैर हिमाचली व्यक्ति हिमाचल में जमीन नहीं खरीद सकता है। अगर आप गैर हिमाचली हैं तो जमीन खरीदने के लिए राज्य सरकार की इजाजत के बाद यहां गैर कृषि भूमि खरीद सकते हैं। इसके साथ ही राज्य सरकार को यह बताना होता है कि आप किस मकसद से जमीन खरीद रहे हैं। इसके बाद आपको 500 वर्ग मीटर तक की जमीन खरीदने की अनुमति मिल सकती है।
कृषि भूमि हिमाचल के गैर कृषक भी नहीं खरीद सकते
हिमाचल में कृषि भूमि खरीदने की अनुमति तब ही मिल सकती है जब खरीदार किसान ही हो और हिमाचल में लंबे अरसे से रह रहा हो। हिमाचल प्रदेश किराएदारी और भूमि सुधार अधिनियम, 1972 के 11वें अध्याय ‘कंट्रोल आन ट्रांसफर आफ लैंड’की धारा-118 के तहत गैर कृषकों को जमीन हस्तांतरित करने पर रोक है। यह धारा ऐसे किसी भी व्यक्ति को जमीन हस्तांतरण पर रोक लगाती है, जो हिमाचल प्रदेश में किसान नहीं है।