है नमन उनको कि जो देह को अमरत्व देकर
इस जगत में शौर्य की जीवित कहानी हो गये हैं
है नमन उनको कि जिनके सामने बौना हिमालय
जो धरा पर गिर पड़े पर आसमानी हो गये हैं
यह तो सारा देश मानता है कि उत्तराखंड की माटी में कुछ तो बात है, तभी इसने एक से बढ़कर एक बहादुर जवान दिए। जिन्होंने अपनी बहादुरी से ऐसी मिसाल कायम की जिसकी गाथा सदियों तक कही व सुनी जाएगी। इस लेख में बात हो रही बद्रीविशाल के लाल राइफलमैन जसवंत सिंह रावत की। जिन्होंने अकेले ही 1962 के युद्ध में हजारों चीनी सैनिकों के दांत खट्टे कर दिए। आज उनकी जयंती है।
युद्ध के दौरान गढ़वाल राइफल्स के जवान जसवंत सिंह रावत अरुणाचल प्रदेश में नूरानांग की एक पोस्ट पर तैनात थे। पोस्ट के सभी सैनिक शहीद हो चुके थे। वह अकेले थे। सामने हजारों चीनी सैनिकों की फौज थी। ऐसे विषम हालात में भी जसवंत सिंह रावत ने हौसला नहीं खोया। गोलियों की तड़तड़ाहट के बीच उन्होंने ऐसा किया जिससे चीनी सेना गच्चा खा गई। वह पोस्ट पर जगह-जगह राइफल रख दिए और बारी-बारी से हर एक राइफल से गोलियां चलाते रहे। इससे चीनी जवानों को लगा कि पोस्ट पर बड़ी संख्या में भारतीय सैनिक तैनात हैं। इस कारण वह आगे नहीं बढ़े। जहां थे वही से गोलीबारी करते रहे। ऐसा काफी समय तक हुआ।
जसवंत सिंह रावत के चक्रव्यूह को वह नहीं समझ पाए। उन्होंने अकेले लगभग 300 चीनी सैनिकों को मार गिराया। इस बीच उस चौकी पर राशन पहुंचाने वाले एक शख्स चीनी सैनिकों के हाथ लग गया। उसने जब उन्हें बताया कि उस चौकी पर एक जवान ही है तब चीनी कमांडर के पैरों तले जमीन ही खिसक गई। एक अकेला जवान उनके 300 सैनिकों को मार गिराया। यह उनको अपमानजनक लगा। इसके बाद चीनी कमांडर ने कई सैनिकों को भेजा। लेकिन, तब तक वीर जसवंत सिंह रावत की गोलियां खत्म हो चुकी थीं। बताया जाता है कि वह किसी भी हालत में बंदी नहीं बनना चाहते थे। चीनी सैनिक उनके पास पहुंचते उन्होंने आखिरी गोली खुद पर चलाई। वह वीरगति को प्राप्त हुए। वह तारीख थी 17 नवंबर 1962।
चीन के साथ युद्ध में भारत का पलड़ा कमजोर था। चीनी सैनिकों की संख्या हमसे कहीं ज्यादा थी। भारत के पास चीन के मुकाबले संसाधन भी कम थे। सैन्य गलियारों में यह बात अक्सर कही जाती है कि वह युद्ध सिर्फ जवानों की बहादुरी उनके हौसले के दम पर लड़ा गया था। सैनिकों के पास जूते तक नहीं थे। बंदूक भी सैनिकों के अनुपात में बेहद कम थे।
जिस चौकी पर लड़े उसका नाम जसवंतगढ़
मरणोपरान्त प्रतिष्ठित महावीर चक्र से नवाजे गए जसवंत सिंह रावत का जन्म 19 अगस्त 1941 में पौड़ी गढ़वाल में हुआ था। जिस चौकी पर उन्होंने लड़ाई लड़ी थी उनके सम्मान में इस चौकी का नाम अब जसवंतगढ़ रख दिया गया है। इस चौकी पर एक मंदिर भी बनाया गया है। यहां पर उनसे जुड़ीं चीजों को सुरक्षित रखा गया है। अब भी पांच सैनिकों को उनके कमरे की देखरेख के लिए तैनात किया गया है। आज भी रात में सैनिक उनका बिस्तर लगाते हैं। वर्दी प्रेस करते हैं, जूते पॉलिश करते हैं। यहां तक सुबह की चाय-नाश्ता और खाना भी कमरे में रखा जाता है।
साढ़े तीन सौ से ज्यादा जवान दे चुके हैं बलिदान
1999 कारगिल युद्ध में देश के शहीद 525 सैन्य अफसरों एवं सैनिकों में 75 उत्तराखंड से थे। सैन्य कल्याण विभाग के आंकड़ों के मुताबिक, राज्य बनने के बाद से अब तक 350 से ज्यादा जवान अपने खून से मां भारती को सींच चुके हैं। अगर राज्य बनने के पहले के आंकड़ों पर गौर करें तो यह संख्या 1700 से अधिक है।कठुआ हमला ऐसा है जहां एक ही दिन पांच सैनिक बलिदान हुए। इससे पहले पुलवामा हमले में भी उत्तराखंड के चार सैनिक अलग-अलग दिनों में शहीद हुए थे।