उत्तराखंड में चंपावत जिले से लगा है तराई का खटीमा और यहां के खूबसूरत बाहरी इलाके में है छिनकी फार्म। यहां पर ज्यादातर थारू जनजाति के लोग रहते हैं। इस इलाके में teerandaj.com की टीम को एक खूबसूरत इमारत दिखी। देखते ही इसके बारे में जानने की इच्छा हुआ। रास्ते में मिले लोगों से जब इस इमारत के बारे में पूछा तो सबने यही कहा कि यह बहुत अच्छा स्कूल है। इस इलाके में एक ऐसे स्कूल की परिकल्पना करना कमर्शियली भी बहुत बड़ी बात है। आखिरकार हम आ पहुंचे डायनेस्टी मॉडर्न गुरुकुल में। यहां हमारी मुलाकात हुई इस स्कूल की नींव रखने वाले धीरेंद्र चंद्र भट्ट से। पहुंचते ही हमारी टीम ने पूछ लिया- इस इलाके में इस तरह का स्कूल यह सोच कैसे डेवलप हुई? कब लगा कि मुझे इन लोगों के बीच एक अच्छा गुरुकुल खोलना चाहिए। एक जबरदस्त स्टोरी टेलर की तरह धीरेंद्र चंद्र भट्ट ने कहा, मैं शुरू से बताता हूं। हमें उनका ये अंदाज दिलचस्प लगा और फिर शुरू हुआ बातचीत का एक लंबा सिलसिला।
धीरेंद्र चंद्र भट्ट बड़े दिलचस्प अंदाज में कहानी सुनाने लगे, बोले, मैं इसी गांव का रहने वाला हूं। साल 2002 में मैंने डीएसबी कैंपस नैनीताल से मैथमेटिक्स में पोस्ट ग्रेजुएशन किया था। मेरी प्रारंभिक शिक्षा इसी जगह पर हुई। मैं यहीं पर पला-बड़ा। मैंने यहां की स्थिति को देखा है और परिस्थिति को समझा है। कॉलेज के दिनों में जब मैं घर आया करता था, इस क्षेत्र के बच्चों को मैं ट्यूशन पढ़ाया करता था। बच्चों को इकट्ठा कर घर की छत पर या आंगन में पढ़ाया करता था। मैंने देखा कि मेरे स्कूल के दौर से आज भी इस स्थान पर शिक्षा की स्थिति बहुत ज्यादा दयनीय है। यह सब देखकर मेरा मन बहुत ज्यादा द्रवित होता था। मैं हमेशा सोचता था कि अपने इस क्षेत्र और गांव के लिए क्या कर सकता हूं। इस गांव का नाम छिनकी फार्म है। आपको यह नाम सुनने में थोड़ा अटपटा लग रहा होगा। जब मैं कॉलेज जाया करता था और लोग मुझसे पूछते थे कि आप कहां के रहने वाले हो? जब मैं बताता था कि मैं छिनकी गांव का रहने वाला हूं तो दोस्तों के बीच में भी मजाक का विषय बनता था। तब मेरे मन में ऐसे भाव पैदा होते थे कि मैं अपने गांव की पहचान राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर बनाऊं। साल 2002 में जब मैंने पोस्ट ग्रेजुएशन पूरा कर लिया, परिवार का प्रेशर था कि कोई गवर्नमेंट एग्जाम निकालना है या कंपटीशन की तैयारी करनी है। मैं भी दिल्ली चला गया लेकिन आर्थिक रूप से मेरी पारिवारिक स्थिति कमजोर थी। माता-पिता वृद्ध थे और घर पर कोई नहीं था। वे अक्सर बीमार रहते थे। जब मैं तैयारी करने के लिए दिल्ली गया तो उस 5-7 महीने के बीच में मुझे हर महीने 2 – 3 बार माता-पिता के अस्वस्थ होने के चलते वापस आना पड़ता था। मैंने देखा कि कॉम्पिटेटिव एग्जाम के लिए जो चीज होनी चाहिए वह मैं नहीं कर पा रहा हूं। उस बीच मैंने आर्मी में असिस्टेंट कमांडेंट के लिए एग्जाम दिया और उसमें क्वालीफाई भी हुआ लेकिन अंतिम दौर में सिलेक्शन नहीं हो पाया। बैंक पीओ के एग्जाम की तैयारी की, उसे भी मैं सफलता तक नहीं पहुंचा पाया।
उस दौरान जब मैं घर आया तो मैंने देखा कि मां-पिताजी दोनों बीमार अवस्था में हैं। मेरे मन में एक भाव पैदा हुआ कि अगर मैं आज अपने फ्यूचर को बनाने के लिए दूर देश की राजधानी जाता हूं और तैयारी करता हूं तो मेरे माता-पिता के प्रति जिम्मेदारी मैं निभा पाऊंगा। यही सब सोचकर मैं गांव लौट आया। मेरे पिताजी आर्मी से एक सिपाही के रूप में रिटायर्ड थे। उनकी पेंशन से हम अपनी दैनिक जरूरत को पूरा कर पाते थे। वापस आने के बाद एक महीने तक मेरे मन में अजीब से भाव आए कि मैं वापस छिनकी आ गया हूं, वही घर के काम, वही गाय-भैंस के काम। मैं गौशाला और खेत के काम भी करने लगा। उस बीच 2002 में मैंने ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया। कुछ समय ट्यूशन पढ़ाया। उससे मेरी पहचान बनी। गांव के लोगों ने कहा कि सर आप गांव छोड़कर मत जाइए। आप गांव में ही रहकर हमारे बच्चों को पढ़ाइए। वो दौर ऐसा था कि जब 10वीं और 12वीं में बहुत ज्यादा बच्चे फेल हुआ करते थे। पूरे गांव में अगर 20 बच्चों ने एग्जाम दिया है तो उसमें से सिर्फ तीन-चार बच्चे पास होते थे बाकी सब फेल हो जाया करते थे। तब मन में भाव आया कि मैं क्यों ना इन्हीं बच्चों पर काम करूं।
सरकारी स्कूल से 2 साल के फेल बच्चों को बाहर कर दिया जाता था। उसके बाद वे बच्चे प्राइवेट फॉर्म भरा करते थे। मैंने एक घोषणा की कि ऐसे बच्चे जो कम से कम 2 साल के फेल हों, हमने एडमिशन ओपन किया। अधिकतम कितने भी हों, कई बच्चे तो हाई स्कूल पास करने का सपना भी छोड़ चुके होते थे। उस साल हमारे पास 39 बच्चे आए। उन बच्चों से स्कूल शुरू किया। अब बात आई कि स्कूल का कुछ नाम होना चाहिए, यह भी एक सोचने का विषय था। मन में एक भाव था कि जैसे अमूमन शहरों में बड़े स्कूल होते हैं, मेरा स्कूल उस टाइप का नहीं होना चाहिए। उसकी सोच अलग होनी चाहिए और मैं कहीं ना कहीं गुरुकुल से बहुत ज्यादा प्रेरित था। आप चाहे श्री कृष्ण जी, राम, पांडवों को ले लीजिए सभी गुरुकुल में जाकर शिक्षित होते थे।
गुरुकुल एक ऐसा संस्थान होता था जहां पर राजा और रंक के बच्चों को एक समान, एक तरीके से, एक व्यवहार से शिक्षा दी जाती थी। मैंने सोचा कि मेरे स्कूल का नाम गुरुकुल होना चाहिए। मैंने सोचा कि मेरे स्कूल का नाम गुरुकुल एकेडमी हो। बड़े लंबे समय तक हमने नाम सोचा। पुराने गुरुकुल में बच्चे धोती और कुर्ता पहनकर स्कूल जाया करते थे। मैंने सोचा कि उस तरीके से तो नहीं लेकिन इस गुरुकुल में लोग पैंट शर्ट पहनकर स्कूल जाएंगे। हमने सोचा हमारा गुरुकुल मॉडर्न होना चाहिए। हमने अपने स्कूल का नाम मॉडर्न गुरुकुल एकेडमी रखा। सोचने का दौर जारी रहा कि स्कूल का और कुछ नाम सोचना पड़ेगा क्योंकि मैंने सुना था कि नाम जितना बड़ा होता है उसका वजन उतना अधिक होता है। स्कूल के नाम में मैंने एक और शब्द ऐड किया डायनेस्टी। जैसे बहुत सारी डायनेस्टी चलती है, वैसे गुरुकुल भी एक डायनेस्टी है। इसके बाद पूरा नाम सार्थक हुआ डायनेस्टी मॉडर्न गुरुकुल एकेडमी।
उस दौर की मैं एक बड़ी रोचक बात आपको बताना चाहूंगा। जब स्कूल खोलने के बारे में सोचा तो एक गरीब, लोअर मिडल क्लास का लड़का स्कूल खोलने की सोच रहा था। उस समय पिताजी की एक साइकिल हुआ करती थी। उस पर सवार होकर मैं अगल-बगल के गांव में स्कूल का प्रचार करने के लिए जाता था। उन बातों को सोचकर मन बड़ा द्रवित होता है। साइकिल के करियर में पीछे डायरी दबी होती थी। हर 100 – 200 मीटर में साइकिल की चेन उतरती थी और कभी डायरी गिर जाती थी तो साइकिल के चैन लगाओ, डायरी को रखो और गांव में घूमो। लोगों के पास जाता था और उन्हें बताता था कि मैं एक स्कूल खोलना चाह रहा हूं। लोग कहते थे कि अच्छी बात है आप स्कूल खोलने जा रहे हैं, आपकी शिक्षा अच्छी है, लेकिन यह बताइए कि आपकी बिल्डिंग कहां है? मां सरस्वती की कृपा रही और मैं बड़े कॉन्फिडेंट के साथ यह बात बोलता था कि आप बच्चों के एडमिशन के लिए हां तो बोलिए हम बिल्डिंग भी डिसाइड कर लेंगे। साथ में एक प्रश्न और उनकी तरफ से होता था कि शिक्षक कौन हैं, कौन से टीचर होंगे, आप अकेले तो स्कूल नहीं चला सकते हैं, स्कूल तो एक बड़ी संस्था है। मेरा वही जवाब होता था कि आप बच्चों का एडमिशन तो कराइए, हम शिक्षक भी अप्वॉइंट कर लेंगे।
उस दौरान जब मैं साइकिल से घूमा करता था, तब कुछ लोग ऐसा भी बोला करते थे कि यह पंडित भट्ट जी का जो बेटा है, वह ज्यादा पढ़कर पागल हो चुका है। यह मानसिक रूप से ठीक नहीं है। ऐसी पंक्तियां भी पीछे से सुनने को मिलती थीं। लेकिन ऐसा नहीं था। मन में इच्छा शक्ति थी और माता-पिता का आशीर्वाद था तो मैं लगा रहा। साल 2004 एक जुलाई को बिना मान्यता के प्राइवेट स्टूडेंट्स को लेकर विद्यालय की नींव रखी। एक जुलाई को जब वे सारे बच्चे पहली बार स्कूल आए, उनका स्तर ऐसा था कि कई बच्चे हाई स्कूल में दो बार फेल होकर खेतों में काम करने लगे थे, कई बच्चे जंगल से लकड़ी लाने या दूसरे काम करने लगे थे। जो बच्चे पढ़ाई से दूर हो चुके थे, उनको पढ़ाकर उन्हें हाई स्कूल पास कराना वास्तव में एक बड़ा चुनौतीपूर्ण कार्य था। उन बच्चों के साथ ग्राउंड लेवल से शुरुआत करनी पड़ी। उन्हें हिंदी, इंग्लिश लिखाना- सिखाना पड़ा। उन्हें मैथ्स के जोड़ – घटाना सिखाने से शुरू करना पड़ा। वह साल वास्तव में चुनौतीपूर्ण था। उस समय सूर्योदय कब होता था और सूर्यास्त कब होता था हमें नहीं पता चला।
मैं आपको बताता हूं कि बिल्डिंग भी हमें कैसे मिली। उस समय हमारे मामा जी ने छिनकी में ही एक घर लिया था। मामा जी पिथौरागढ़ में रहते थे तो उन्हें यहां शिफ्ट होने में 1 साल का समय था। मेरे मामा ने मुझे कहा कि यह दो कमरे हैं तुम इन्हें एक साल के लिए यूज कर लो। मामा जी की उस बिल्डिंग के दो कमरों में हमने स्कूल स्टार्ट किया। वहां पढ़ाई का सिलसिला प्रारंभ हुआ। हम दिन रात उसमें काम करते रहे। उस साल पहली बार इस एरिया को हमने नाइट क्लास जैसे वर्ड से इंट्रोड्यूस किया। जब मैंने देखा कि अक्टूबर का महीना आ गया है और अभी भी मेरे बच्चे हाई स्कूल की परीक्षा देने के लायक नहीं हुए हैं, तब हमने अक्टूबर के महीने से उन बच्चों को रात को भी स्कूल में रखना शुरू किया। उस साल मेहनत के 24 घंटे का दौर चला। बच्चों ने एग्जाम दिया। बहुत सारे सामाजिक विरोधों का भी हमने सामना किया क्योंकि नाइट क्लास में हमारे साथ गर्ल्स भी हुआ करती थीं। मेरी उम्र उस समय 24 साल थी तो 24 साल का एक लड़का एक स्कूल में लड़कों को भी रखता है और लड़कियों को भी रखता है। इस वजह से बहुत सारी बातें होती थीं। इस तरीके से वह एक चुनौतीपूर्ण वर्ष रहा। लेकिन जब रिजल्ट आया तो बहुत सुखद था। 39 बच्चे पास हुए, जिसमें से 17 बच्चों ने प्रथम श्रेणी प्राप्त की थी। सबसे ज्यादा 75% था। इस एरिया के सभी सरकारी स्कूल और रेगुलर स्कूलों में जो बच्चे पढ़ रहे थे उनमें से यह बच्चे टॉपर थे। वहां से इस स्कूल का टर्निंग पॉइंट शुरू हुआ और एक अच्छा मैसेज पूरे क्षेत्र में गया। उस साल अप्रैल के महीने में बिल्डिंग के बाहर इतनी ज्यादा भीड़ थी कि वहां खड़े होने के लिए भी जगह नहीं थी। लोग स्कूल में एडमिशन लेना चाह रहे थे। लेकिन हमारे पास बच्चों को बैठाने की जगह नहीं थी और मामा जी ने भी कह दिया था कि मैं अपने परिवार को लेकर घर पर आ रहा हूं।
कहानी दिलचस्प होती जा रही थी, हमने पूछ लिया दो दशक का प्रतिफल यह है कि आज इस स्कूल को क्षेत्र में टैलेंट की खान कहा जाता है। इससे पता चलता है कि आपकी मेहनत, स्ट्रगल और अटैचमेंट आपको कहां से कहां ले आया। जब हमारी आपके स्कूल को लेकर लोगों से बातचीत हुई तो उन्होंने यही कहा कि यहां पर एकेडमिक के अलावा बहुत सारी चीजों पर भी ध्यान दिया जाता है। बच्चों के ओवरऑल डेवलपमेंट पर ध्यान दिया जाता है। थोड़ा इसके बारे में बताइए। आपका स्कूल और चीजों के साथ ही एकेडमिक्स में भी बहुत अच्छा प्रदर्शन करता है। हम जानना चाहते हैं कि ये तालमेल कैसे बनता है। आपके स्कूल में जीरो आवर का कांसेप्ट है। आपको यह आइडिया कैसे आया? बच्चों की एनर्जी का बेस्ट टाइम उनके पोटेंशियल को बाहर निकलने में लगाना चाहिए। यह कैसे पॉसिबल हुआ?
मुस्कुराते हुए धीरेंद्र भट्ट बोले, उस दौर में जब बच्चे पास आउट हुए तो उनके पेरेंट्स टीसी निकालने के लिए सरकारी स्कूल या आसपास के स्कूल में चले गए ताकि बच्चों का एडमिशन मेरे स्कूल में हो सके। एक चैलेंज यह था कि वहां से शिकायतों का दौर शुरू हुआ। मुझे दोहरा दबाव झेलना पड़ रहा था। मैं विरोध पर ही पॉजिटिव एस्पेक्ट रखता जा रहा हूं। विरोध के नाम पर जब आप अपने कदम पीछे करते हैं, उस वक्त हमें अपने कदम आगे क्यों बढ़ाने चाहिए मैं उस विषय को यहां पर रखने जा रहा हूं। सारे स्कूलों से बच्चे निकल कर मेरे स्कूल में आना चाहते थे तो दूसरे स्कूलों का शिकायत करना तो बनता ही था। उन्होंने विभिन्न माध्यमों से शिकायत करना शुरू किया कि छिनकी फार्म में एक अवैध स्कूल चल रहा है। उस समय हमारे स्कूल को ‘अवैध’ कहते थे। एक ऐसा स्कूल जिसकी मानता नहीं है। और वहां क्षेत्र के बच्चों के अभिभावकों को बरगलाकर और भ्रमित कर बच्चों को एडमिशन दिया जा रहा है। ऐसी शिकायतों का दौर चला। 24 साल की अवस्था में जो मानसिक दबाव मैं झेल रहा था, मैं उसके बारे में बताना चाहूंगा।
एक तरफ मुझे शिकायतों और विरोध का सामना करना पड़ रहा था। दूसरा, मेरे सामने चुनौती थी कि जो विद्यालय 1 साल से एक भवन में चल रहा था अब उसको कहां पर ले जाया जाए। मेरे पास धन नहीं था क्योंकि उस समय फीस 150 रुपये हुआ करती थी। 150 रुपये में हम 24 घंटे बच्चों को पढ़ाते थे। मैंने जो दो टीचर रखे हुए थे उनकी सैलरी भी निकालना बहुत मुश्किल होता था। हमारे सामने चुनौती थी कि अब इस विद्यालय को कहां पर शिफ्ट किया जाए। इतना पैसा नहीं था कि हम कहीं बड़े से भूभाग को खरीद कर वहां पर बिल्डिंग बना लें। कुछ दिलचस्प हुआ। एक दिन मैं गुजर रहा था इस चिंता में कि अब क्या करना चाहिए तो गांव की एक महिला शांति मेहरा ने मुझे बुलाया। उन्होंने मुझसे कहा कि मैंने सुना है कि तुम्हें स्कूल के लिए जमीन की जरूरत है। उन्होंने कहा कि मेरा वहां पर एक खेत है आप उसमें से तीन बीघा जमीन ले लो। मेरे सभी कुल देवता, देवी-देवताओं का आशीर्वाद था कि मुझे मुंह मांगा वरदान मिल गया। मैंने उनसे कहा कि चाची मेरे पास इतना पैसा तो नहीं है। मैं आपको एक साथ इतना पैसा कहां से दूंगा। उन्होंने मुझसे कहा कि कोई बात नहीं, तुम छोटी-छोटी किस्तों में यह पैसे अदा कर देना, वह जमीन ले लो।
यह वही जमीन है जहां आप अभी विद्यालय देख रहे हैं। यहां पर बिल्डिंग बनाने का काम शुरू करने का प्लान बना। यहां पर ईंटों का ढेर लगा हुआ था और उसके बगल में एक पगडंडी पर मैं बैठा हुआ था। वहां से कुछ लोग गुजर रहे थे और आपस में बात कर रहे थे। उन्होंने मुझे नहीं देखा और कहने लगे कि यहां पर क्या हो रहा है। उनमें से किसी ने बोला कि वो जो भट्ट जी का बेटा है वो यहां स्कूल खोल रहा है। बाकी सारे लोग बड़ी जोर-जोर से हंसे। उन्होंने कहा कि यहां पर स्कूल, बंजारी और छिनकी, जो शराबी और लड़ाकुओं के गांव के नाम से जाना जाता है, इस जगह पर स्कूल और ऐसे जंगल और झाड़ियां के पीछे स्कूल… उन्होंने बोला कि ऐसा कुछ नहीं होने वाला है। भट्ट जी के जो बेटे हैं वह यहां पर स्कूल के नाम पर बिल्डिंग बनाएंगे और बाद में पोल्ट्री फार्म यानी मुर्गी पालन करेंगे। उनकी वह बात मेरे दिल पर लगी। लेकिन मैंने उस बात को कभी भी नेगेटिव नहीं लिया। उस बात पर मैंने यह सोचा कि यह मेरे लिए एक चुनौती है। उस चुनौती को मैंने बड़े सकारात्मक रूप से लिया। मैंने सोचा कि चाहे कुछ हो जाए, धरती इधर से उधर हो जाए, लेकिन मैं इन लोगों की बातों को झूठा साबित करुंगा।
आपके अंदर कितना नॉलेज है यह मायने नहीं रखता है, आप उस नॉलेज को कितनी फीलिंग के साथ दूसरे को ट्रांसफर कर रहे हैं, यह मायने रखता है। आप बहुत ज्ञानी हैं, लेकिन आप सामने वाले को वो ज्ञान नहीं दे पा रहे हैं, तो मेरे लिए उस ज्ञान का कोई मूल्य नहीं है। यह ईंट-पत्थर की दीवारें नहीं हैं, यह मेरे इमोशंस हैं, मेरी आत्मा से जुड़े हुए विषय हैं। हर कॉर्नर, हर ईंट की एक अलग कहानी है। – धीरेंद्र चंद्र भट्ट, संस्थापक डायनेस्टी मॉर्डन गुरुकुल
इसके साथ ही जो दूसरा चैलेंज था, आसपास के स्कूलों ने एक कमेटी बनाई और उन्होंने ब्लॉक से लेकर डिस्ट्रिक्ट फिर स्टेट लेवल तक शिकायत की। मैं आपको एक बात बता दूं कि विरोधी ही आपको आगे बढ़ाते हैं। मैंने उससे पहले खंड शिक्षा अधिकारी के कार्यालय को कभी नहीं देखा था। 2005 में खटीमा में खंड शिक्षा अधिकारी प्यारे लाल वर्मा जी थे। अक्टूबर का महीना था, उनका मुझे कॉल आया कि बहुत जरूरी काम है आप जल्दी से मुझे आकर ऑफिस में मिलिए। मैं पहली बार खंड शिक्षा अधिकारी के कार्यालय में पहुंचा। जैसे ही उनके ऑफिस के कर्टन को हटाकर अंदर आने के लिए उनसे पूछा कि सर मैं अंदर आ सकता हूं। उन्होंने पूछा कि आप कौन, तो मैंने बताया कि सर मैं धीरेंद्र चंद्र भट्ट हूं। उन्होंने मुझे वहीं से डांटना शुरू कर दिया। उन्होंने मुझसे कहा कि तुमने अवैध स्कूल खोला हुआ है। तुमने क्या माहौल बनाया हुआ है, दुकान खोली हुई है। स्कूलों ने जो उनसे शिकायत की थी उन्होंने वही मुझे बोला। उन्होंने जमकर डांट लगाई। मैं अंदर गया, उन्हें प्रणाम किया। मैं पहले से ही बड़े सहज व्यवहार का रहा हूं। मैं उनकी सारी बातें सुनता रहा। फिर मैंने उनसे कहा कि सर मैं कुछ बोलना चाहता हूं। मैंने उनसे कहा कि आपने मेरे बारे में जो भी विचार बनाए हैं, वह आपने रख दिए। लेकिन मैं आपको आश्वस्त करना चाहता हूं कि मैं कोई गलत काम नहीं कर रहा बल्कि एक बहुत बड़े सपने और मिशन को लेकर आगे बढ़ रहा हूं। मैं कोई अवैध काम नहीं कर रहा हूं। लेकिन उन्होंने मेरी एक नहीं सुनी। मैं बड़े आत्मविश्वास के साथ उनको एक बात बोलकर आया कि सर आज आप मेरी बात सुनने को तैयार नहीं हैं, अगर मेरे काम में सच्चाई है तो आप इस बात को याद रखिएगा कि आप मुझे बुलाएंगे मैं तभी आऊंगा अन्यथा मैं यहां नहीं आऊंगा। इस पर उन्होंने मुझे डांटा भी कि तुम्हें बुलाने की क्या जरूरत पड़ गई। मैं बिल्कुल नहीं बुलाने वाला, जाइए आप यहां से… बंद कीजिए जो आपने अवैध दुकान खोली हुई है। मैं चुपचाप वहां से वापस आ गया।
उसके एक महीने बाद भगवान की कृपा हुई और मेरी बात सच हुई। मुझे प्यारेलाल वर्मा जी का कॉल आया। उन्होंने कहा कि मैंने आपको डांटा तो आपने बड़े आत्मविश्वास के साथ मुझे कहा कि आप मुझे बुलाएंगे तो मैं दिन रात उस विषय को सोचता रहा। आपके बारे में जब मैंने अलग-अलग माध्यम से सूचनाएं जुटाईं, तो लगा कि आपके बारे में मेरे मन में गलत धारणाएं बनी हुई थीं। आप मेरे पास आइए। मैं उनके पास गया। प्यारेलाल वर्मा जी ने मुझे आश्वस्त किया कि आपके स्कूल के लिए 5वीं कक्षा तक की मान्यता मैं लाकर दूंगा। वहां से सिलसिला शुरू हुआ। पांचवीं क्लास तक की मान्यता प्यारेलाल वर्मा जी ने दिलाई। यह सब उन विरोधियों की कृपा से हुआ। उन विरोधियों का स्तर आगे बढ़ा। उन्होंने जिला शिक्षा अधिकारी से मेरी शिकायत की। इसके बाद तीन जिला शिक्षा अधिकारी की टीम हमारे स्कूल में जांच के लिए आई। मैंने अपने विषय को उनके सामने रखा उन्होंने मुझे समझा और कहा कि आप डिस्ट्रिक्ट में आइए, आपका सपोर्ट हम करेंगे। विरोधी उस पर भी नहीं माने और शिकायत का दौर शिक्षा सचिव के पास पहुंचा। उस वक्त रामनगर बोर्ड में शिक्षा सचिव मिस्टर दामोदर पंत जी होते थे। विरोधियों की कृपा बदस्तूर जारी रही। उन्होंने शिकायत कर खंड शिक्षा अधिकारी से मेरी मुलाकात कराई। खंड शिक्षा अधिकारी से मिला और आगे का रास्ता दिखा।
जब से हमारे स्कूल को 10वीं और 12वीं की मान्यता मिली है, लगातार 12 वर्षों से हमें प्रदेश का शैक्षिक उत्कृष्टता पुरस्कार ‘पंडित दीन दयाल उपाध्याय राज्य शैक्षिक उत्कृष्टता पुरस्कार’ मिल रहा है। वर्ष 2019 में तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत जी ने हमें सम्मानित किया और 5 लाख रुपए का चेक भी दिया। इस तरह से हम 2019 में राज्य का नंबर वन स्कूल बने। यह सफर यहां तक का था।
एजुकेशन के तीन पार्ट्स होते हैं। एक एकेडमिक, दूसरा कम्युनिकेशन स्किल और तीसरा एक्स्ट्रा-करिकुलम एक्टिविटीज। हम इन तीनों में बैलेंस बनाते हैं। इसमें हम अभिभावकों के पॉकेट का ध्यान भी रखते हैं। मेरी हमेशा कोशिश रही है कि हमारा स्कूल कभी भी व्यावसायिक ना कहलाया जाए। कई बार ऐसा होता है कि जब हम एक्स्ट्रा करिकुलम एक्टिविटीज की तरफ जाते हैं तो बच्चों की एकेडमिक खराब हो जाती है। हमें कुछ ऐसा सोचना था कि जिससे यह तीनों चीजें बैलेंस हो जाएं। आपने जीरो पीरियड के कॉन्सेप्ट के बारे में पूछा था, तो मैं आपको बता दूं कि तीनों चीजों को बैलेंस करने के लिए हमने जीरो पीरियड का कॉन्सेप्ट रखा। एक घंटे का जीरो पीरियड होता है। उस जीरो पीरियड में हम बच्चों को वह कराते हैं जो बच्चा करना चाहता है, जो बच्चे के अंदर टैलेंट है।
हमें बच्चों को वह नहीं बनाना चाहिए जो हम चाहते हैं, हमें बच्चों को वह बनाना चाहिए जो बच्चे के अंदर बात है। हो सकता है कि मेरा बच्चा बहुत अच्छा मैथ्स, फिजिक्स नहीं जानता है, तो क्या बच्चा सक्सेसफुल नहीं बन सकता है। अक्सर उस बच्चों को हम स्लो लर्नर मान लेते हैं। मैं मानता हूं कि वह बच्चा अच्छा म्यूजिशियन हो सकता है, वह एक अच्छा आर्टिस्ट हो सकता है, वह अच्छा डांसर हो सकता है, अच्छी एक्टिंग कर सकता हो। इसलिए हम जीरो पीरियड में सारी एक्टिविटीज करवाते हैं। जो बच्चे स्टडीज में इंटरेस्टेड है वह स्टडीज के लिए जाते हैं, जिन्हें किसी कंपटीशन की तैयारी करनी होती है वह कंपटीशन की तैयारी करते हैं, जो साइंस में इंटरेस्टेड हैं वह लैब में जाएं, जो बच्चे पढ़ने के शौकीन होते हैं उन्हें लाइब्रेरी भेज देते हैं। ऐसे ही जो बच्चे म्यूजिक में इंटरेस्टेड है, उसमें भी तीन पार्ट हैं, जो बच्चा तबला में इंटरेस्टेड है हम तबला टीम में भेज देते हैं। हमारे पास म्यूजिक के तीन टीचर हैं। ऐसे ही स्पोर्ट्स में भी हम बच्चे को जो स्पोर्ट्स पसंद हैं, डिफरेंट कोचेस के माध्यम से हम उन्हें भी तैयारी करवाते हैं। जीरो पीरियड के पीछे हमारा मकसद यही है कि बच्चों के फ्रेश ब्रेन में जो हम देना चाहते हैं वो न दें, जो बच्चे के अंदर है उसे बाहर निकालें। स्कूल की शुरुआत ही उसी से होनी चाहिए। जीरो पीरियड के कॉन्सेप्ट की बदौलत हम पिछले 8 साल से कोविड से पहले हम पूरे स्टेट में उत्तराखंड संस्कृत एकेडमी के माध्यम से ड्रामा चैंपियन हैं, हम डांस में पूरे स्टेट में नंबर वन रहे हैं। भारत विकास परिषद में ग्रुप सॉन्ग कंपटीशन में पूरे देश में हम फर्स्ट पोजीशन लेकर आए। इसके अलावा हम स्पोर्ट्स के डिफरेंट फील्ड्स में भी बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। साइंस के फील्ड में भी बहुत अच्छा कर रहे हैं। यह एक बहुत वास्ट विजन है और मैं आज भी यही कहूंगा कि एजुकेशन का जो व्यापक मतलब है उसका हम सिर्फ 5% कर रहे हैं।
हमारा अगला सवाल था आपका स्कूल से इस तरह इमोशनली जुड़ना कितना इंपॉर्टेंट है ताकि आप ऐसे आइडियाज डेवलप कर सके? धीरेंद्र भट्टे बोले, आपने सही पॉइंट पर हिट किया है। आप कोई भी काम कर लीजिए अगर आप उससे भावनात्मक रूप से जुड़े नहीं हैं, वह काम सफल नहीं हो सकता है। हम कुमाऊंनी परिवार के लोग हैं। हम अपने आदर्शों, रीति-रिवाजों और संस्कृति से जुड़े हुए लोग हैं। बचपन में हम जब किसी चीज को लेकर ओवर एक्साइटेड हो जाया करते थे तो मां पहाड़ी में एक कहावत कहा करती थीं- “ए जा भींग में रो भींग में”। मां की वह बात दिल पर लग गई।
आपके अंदर कितना नॉलेज है यह मायने नहीं रखता है, आप उस नॉलेज को कितनी फीलिंग के साथ दूसरे को ट्रांसफर कर रहे हैं, यह मायने रखता है। आप बहुत ज्ञानी हैं, लेकिन आप सामने वाले को वो ज्ञान नहीं दे पा रहे हैं, तो मेरे लिए उस ज्ञान का कोई मूल्य नहीं है। यह ईंट-पत्थर की दीवारें नहीं हैं, यह मेरे इमोशंस हैं, मेरी आत्मा से जुड़े हुए विषय हैं। हर कॉर्नर, हर ईंट की एक अलग कहानी है।
मैं भावनाओं की बात कर रहा हूं कि क्यों हम भावनाओं से जुड़े हुए हैं। स्कूल पढ़ने के बाद जब बच्चे को हम शाम को घर भेज देते हैं, जब बच्चा स्कूल के गेट से बाहर हो जाता है। आम कहावत है कि जब तक बच्चा स्कूल की बाउंड्री के अंदर है तब तक हमारी जिम्मेदारी है, उसके बाद हमारी कोई भी जिम्मेदारी नहीं है। लेकिन हमने यह सोचा कि क्यों ना अभिभावक और टीचर के बीच की दीवार को गिराया जाए। हम ऐसा क्यों बोलें कि घर पर पेरेंट्स की जिम्मेदारी है और स्कूल में हमारी। मैंने यह कहा कि आपकी जिम्मेदारी स्कूल में भी है और मेरी जिम्मेदारी घर पर भी है। घर पर बच्चा क्या कर रहा है यह भी मेरी जिम्मेदारी है क्योंकि वह मेरा स्टूडेंट है। आप बच्चे के प्रथम माता-पिता हैं और मैं द्वितीय, इसलिए हमारी जिम्मेदारी बराबर है। आजकल हालत यह है कि स्कूल के गेट पर पेरेंट्स धरना प्रदर्शन कर रहे हैं, शिकायतों का दौर… यह सब तभी होता है जब पेरेंट्स और टीचर के बीच में एक दीवार बनी होती है।
मैं बेंत का डंडा लेकर बाइक से बच्चों के घर पर जाता था। कई बार मेरे जाने तक बच्चे सो जाया करते थे। कई बार ऐसा होता था कि बच्चों ने मुझे देखा और फिर बुक उठाकर पढ़ने लगते थे। मैं उनसे कहता- पढ़ रहे हो ना सोए तो नहीं। इस दौरान मैंने देखा कि बच्ची ने बुक उल्टी पकड़ी हुई थी। कई बच्चे अपने घर में लालटेन और लाइट जलाकर सोया करते थे ताकि सर आएं तो हम पढ़ने लग जाएं। मैं 10:00 बजे तक डोर टू डोर सबके घर जाता था। मुझे सभी बच्चों के घर का पता था। मैं उनके माता-पिता को पहचानता था और उनके अम्मा-बाबूजी को भी जानता था। हम बच्चे को सिर्फ स्कूल में देख रहे हैं। व्यावसायिक रूप से आपने रिसेप्शन में उनके पेरेंट्स का हाई-फाई वेलकम किया और बच्चे को एयर कंडीशनर रूम में भेज दिया। आप बच्चे की रियल कंडीशन को नहीं समझ पाए। यही हमारे एजुकेशन सिस्टम की सबसे बड़ी कमी है। जब मैं बच्चों के घर जाता था तो मैं देखता था कि इस परिवार की क्या स्थिति है। एक बच्चे के घर में जाकर मैंने देखा कि उसके पापा बहुत ज्यादा ड्रिंक करते थे और बच्चा पढ़ने में बहुत ज्यादा डाउन हो रहा है। अगर बच्चा पढ़ने में कमजोर है तो इसके लिए क्या सिर्फ बच्चा जिम्मेदार है। इसमें तीन लोग जिम्मेदार हैं- एक खुद बच्चा, दूसरे उसके टीचर और तीसरे उसके माता-पिता और समाज का भी प्रभाव पड़ता है। अगर बच्चा सही से नहीं पढ़ पा रहा है, उसके लिए हम बच्चे पर ही दबाव देते हैं। जब मैं बच्चों के घर गया और देखा कि उसके पापा बहुत ज्यादा ड्रिंक करते हैं। यह देखकर मैं उनसे हाथापाई करने पर उतारू हो गया। इस बात के लिए मैं सॉरी कहना चाहूंगा। मैं 24 – 25 साल का एक नवयुवक था और उन्हें कहने लगा कि तुम बच्चे के साथ कैसा व्यवहार कर रहे हो। तुम ड्रिंक करोगे तो वह पढ़ाई कैसे करेगा। इसके बाद जब भी मैं उस बच्चे के घर पर राउंड पर गया तो उसके पापा कभी दिखते ही नहीं थे। जब वह बच्चा 10वीं पास हुआ, उस व्यक्ति ने भरे मंच से सबके सामने कहा कि उस वाक्य के बाद तो सर को देखकर मुझे भी डर लगता था। पीना तो मैंने छोड़ा नहीं, लेकिन जब सर घर आते थे तो मैं छत पर छिप जाता था। ऐसा इमोशन अटैचमेंट मेरा बच्चों के साथ रहा है।
हमारा अगला सवाल था कि आपके स्कूल में टीचर्स की बहुत ज्यादा स्ट्रैंथ है। एक स्कूल में 200 से ज्यादा टीचर्स होना यह बताता है कि कितने बड़े लेवल पर काम हो रहा है। और जिस जगह पर यह स्कूल है यहां पर ज्यादा फाइनेंस भी नहीं जुट पाता है। धीरेंद्र बड़े सधे अंदाज से बोले, जब आप बच्चे को मेंटल सपोर्ट देते हैं, एक तो आप बच्चे को पढ़ाते हैं, आपने बच्चों को किताबी ज्ञान दिया। उसके साथ-साथ बच्चों को मेंटली सपोर्ट करना भी बहुत ज्यादा जरूरी है क्योंकि उसको स्वावलंबी और मजबूत बनाना है। हमारे यहां हर साल वसंत पंचमी पर 10वीं और 12वीं के बच्चे मिलकर सामूहिक यज्ञ करते हैं। उस यज्ञ में भी बच्चे की हित की भावना होती है ताकि बच्चे का बोर्ड में अच्छा परफॉर्मेंस हो। लेकिन जो भी हवन सामग्री होती है वह विद्यालय प्रशासन नहीं देता है। हम बच्चों से कहते हैं कि हर बच्चे का अंशदान होगा। हवन सामग्री सभी बच्चों से हम थोड़ा-थोड़ा इकट्ठा करेंगे। यज्ञ सामग्री लानी है तो थोड़ा-थोड़ा बच्चे सभी अपने घरों से लेकर आएंगे। हम ऐसा कर सकते हैं कि विद्यालय की ओर से सभी सामग्री इकट्ठा कर बच्चों से यज्ञ करवा दें। लेकिन हम बच्चों को बोलते हैं। हर बच्चे के घर से चावल, दूध, जौ, तिल, घी आता है और हम सामूहिक यज्ञ करते हैं। शाम को भोजन होता है। उससे भी बच्चे अटैच होते हैं। बच्चे जब एग्जाम देने जाते हैं तब दही बताशा, टीका पूजा करके हम बच्चों को खुद एग्जाम सेंटर तक लेकर जाते हैं। यह इसलिए ताकि बच्चा परीक्षा कक्ष में जाए उससे पहले हम उसे मानसिक रूप से मजबूती दे सकें। यह कमी हमें खला करती थी। हम सरकारी स्कूल में पढ़ते थे तो खुद ही एग्जाम देने जाना होता था।
इस स्कूल में एक और चीज बड़ी दिलचस्प थी, यहां ट्यूशन की फैसिलिटी नहीं है, ऐसे में बच्चों को स्कूल के बाद अलग से पढ़ाया जाता है, इसका उत्तर जिस तरह से धीरेंद्र भट्ट ने दिया, उसकी हमने कल्पना नहीं की थी, उन्होंने कहा, आपने एक कुमाऊंनी गाना सुना होगा… फौजी कुमाऊं में…बौजी अमाऊ में….यह यहीं छिनकी फार्म में चरितार्थ हो रहा है। यहां से बहुत ज्यादा पलायन हो रहा था। 2004-5 के दौर में बंजारी छीनकी में सुनसान सा लगने लगा था। होता क्या था बेटे ने ट्राई किया वह फौज में भर्ती हो गया, घर की जो बहू है उसे अपने बच्चों को लेकर मार्केट में किराए के मकान पर रहना है। खटीमा का एक पार्ट है अमाऊं। वहां रहकर बच्चों को एजुकेशन दिलानी है और बूढ़े माता-पिता बड़ी लाचारी के साथ घर पर रहते थे। कहीं ना कहीं मुझे यह बात भी बहुत ज्यादा पिंच करती थी कि पलायन हो रहा है। मेरा स्कूल खोलने के पीछे एक कारण यह भी था। इसमें भी परिणाम यह है कि जब डायनेस्टी एस्टेब्लिश हुआ, अब कोई भी अमाऊं नहीं जा रहा है। सारे लोग कई घर की बहुएं वापस आईं। मुझे गांव की कई माताओं ने बहुत ज्यादा प्यार दिया कि ई जा तेर परसाद मेर बुआरी, मेर नात नतीना घर वापस आईज्ञा। आज लोग छिनकी में किराए पर कमरा ढूंढ रहे हैं। जब पहली बार देहरादून में हमारे स्कूल को डायनेस्टी मॉडर्न गुरुकुल एकेडमी छिनकी फार्म बोला गया, उस दिन मैं बहुत रोया क्योंकि छिनकी नाम का लोग मजाक उड़ाते थे, तब मैंने सोचा था कि इस नाम को मैं बड़े लेवल पर ले जाऊंगा।
आपके ट्यूशन वाले सवाल का मैं जवाब देना चाहूंगा। सर, हम खटीमा तहसील से 12-13 किलोमीटर अंदर हैं। अगर यहां का कोई बच्चा स्कूल के बाद ट्यूशन पढ़ना चाहे तो उसे रोज 12 से 13 किलोमीटर दूर खटीमा जाना पड़ेगा। अगर मैं स्कूल के बाद बच्चों को बाहर ट्यूशन पढ़ाने लगूं और उसके बदले बच्चों से पैसा लूं तो वह बात मुझे अच्छी नहीं लगेगी। इसलिए हमने यह कोशिश की कि हमारे बच्चों को भटकना न पड़े। स्कूल के बाद उन बच्चों को यहीं पर हम ट्यूशन देते हैं। उसे ट्यूशन नहीं कह सकते, हम उन्हें एक्स्ट्रा क्लासेस देते हैं, जिसका कोई भी एक्स्ट्रा पैसा उनसे नहीं लिया जाता है। उसका रिजल्ट यह रहा कि बच्चों को ट्यूशन की जरूरत नहीं पड़ती। बच्चे स्कूल में रहकर ही स्कूल के बाद पढ़ लेते हैं। फिजिक्स, केमिस्ट्री, मैथ्स, इंग्लिश सभी सब्जेक्ट बच्चों को हम यहां पढ़ाते हैं। उसका परिणाम यही है कि यहां तीन-चार ब्लॉक में से डायनेस्टी की स्ट्रेंथ हाई है और एग्जाम में भी हम अच्छा कर रहे हैं। अभी तो मैं यही कहूंगा कि हमने जो सपना देखा है और जो हमारा विजन है, वह अभी अधूरा है। अभी इस मिशन को और आगे लेकर जाना है। मैं फिर से एक बार आपके माध्यम से यह बात उन सभी के सामने रखना चाहूंगा जो शिक्षा को व्यवसाय बताते हैं। मैं यही चाहूंगा कि मैं शिक्षा का, कम से कम डायनेस्टी का व्यावसायीकरण कभी न होने दूं। वैसे धन आवश्यक है क्योंकि हमारे पास शिक्षक का इतना बड़ा स्टाफ है, इतनी बड़ी व्यवस्थाएं हैं, इसको चलाने के लिए धन की आवश्यकता होती है। फीस का जितना भी पैसा होता है उसका अधिकतम हम टीचरों की सैलरी पर लगाते हैं। बचे हुए पैसों से हमें बाकी चीजों को मैनेज करना होता है। इसलिए फीस लेना जरूरी होता है ताकि हम सिस्टम को चला पाएं। लेकिन इसके बाद भी मैं बोलता हूं कि कोई भी मेधावी बच्चा जो धन की कमी के कारण शिक्षा से वंचित रह रहा हो उसके लिए हमेशा डायनेस्टी खड़ा रहेगा। आपके माध्यम से मेरा यह संदेश है कि ऐसा कोई मेधावी बच्चा जो धन की कमी के कारण शिक्षा से वंचित है, उसके लिए डायनेस्टी के दरवाजे हमेशा खुले रहेंगे।
शिक्षा कोई पेशा नहीं है, शिक्षा एक जिम्मेदारी है। टीचर के हाथ में एक कच्ची मिट्टी होती है और वह उसको आकार देता है। एक टीचर सपनों को आकार देता है। यह कहानी इसलिए teerandaj.com आप सबके पास लाया क्योंकि आमतौर पर प्राइवेट स्कूल को लेकर हम सब की एक धारणा होती है। लेकिन जब हमने इस स्कूल और यहां के प्रयासों के बारे में जाना तब समझ में आया कि जब कोई काम नेक नीयत से और भावनात्मक रूप से किया जाता है, उसके नतीजे इस तरह से सबके सामने आते हैं कि सब हैरान रह जाते हैं। हमारा यह एक्सपीरियंस बहुत खास था। हम यहां आए और हमने बच्चों के प्रयास देखे। जहां हमने बच्चों में टैलेंट की वैरायटी देखी। शहर के एक छोटे से आउटर एरिया में इस तरह का टैलेंट मिलना बहुत बड़ी बात है।