हिमालय के इस हिस्से की चाय के किस्से अपने स्वाद की तरह ही रोमांचक हैं। कभी इन पहाड़ों के चाय बागानों की पत्तियों के जायके की सात समंदर पार तक धमक थी। आज वही पहाड़ चाय उत्पादन की होड़ में नजर नहीं आता। उत्तराखंड चाय विकास बोर्ड उसी स्वर्णिम दौर को वापस लाने की कोशिश में लगा हुआ है। कोशिश हो रही है कि चाय की कड़क चुस्की में रोजगार की मिठास घुल जाए। शायद तभी, उत्तराखंड में चाय का स्वर्णिम दौर लौट पाएगा। धरातल पर योजनाओं को उतारने की मशक्कत हो रही है। हालांकि, चुनौतियां पहाड़ सी हैं। 2004 में उत्तराखंड चाय विकास बोर्ड की स्थापना की गई थी। आज 21 साल बीत चुके हैं, लेकिन आज भी बोर्ड उत्तराखंड सरकार से हर साल मिलने वाले 25 करोड़ रुपये तक की सहायता राशि पर निर्भर है। यानी, चाय विकास बोर्ड उतनी कमाई नहीं कर पा रहा है जिससे वह काश्तकारों-श्रमिकों को पैसे अदा कर पाए। अपना खर्च उठा पाए।
साल में एक लाख किलोग्राम चाय बेचकर वह तीन करोड़ रुपये ही कमा रहा है। चाय विकास बोर्ड के अधिकारियों का कहना है कि अभी उनका उद्देश्य कमाई नहीं है। कोशिश यह हो रही है कि खेती से मुंह मोड़ चुके पहाड़ों में चाय के बागानों का विकास हो, यहां ज्यादा से ज्यादा चाय बागान तैयार हों। एक बार यह लक्ष्य हासिल हो गया तो कमाई भी शुरू हो जाएगी। उत्तराखंड की जलवायु चाय उत्पादन के लिए बेहद अनुकूल है। इसी के मद्देनजर चाय विकास बोर्ड अपनी क्षमताओं का विस्तार कर लोगों को इससे जोड़ने की कोशिश में लगा है। बोर्ड ने नई चाय नीति का विस्तृत मसौदा तैयार कर उसे मंजूरी के लिए शासन को भेजा है लेकिन अभी तक इसे मंजूरी नहीं मिल पाई है। बोर्ड के अधिकारियों का कहना है कि राज्य में नई चाय नीति लागू होने पर पुराने बागानों को संचालन के लिए संबंधित इच्छुक कास्तकारों को देने, चाय फैक्ट्रियों को पीपीपी मोड पर देने, चाय बागानों के क्षेत्रफल में बढ़ोतरी के लिए कदम उठाने जैसे बिंदुओं पर जोर दिया जा सकेगा। इसके अलावा चाय बागान पर्यटन पर भी ध्यान केंद्रित किया जाएगा।
चाय विकास बोर्ड का मानना है कि इससे बड़े पैमान पर रोजगार सृजित होंगे। साथ ही उत्पादन पर भी सकारात्मक असर होगा। दरअसल, किसी सेक्टर का तेजी से विकास तभी संभव होता है जब आम लोगों की सहभागिता होती है। इसलिए कोशिश हो रही है कि जहां पर चाय बनाने की फैक्ट्री है वहां पर अधिक से अधिक काश्तकार चाय की बागबानी करें। इसके लिए सब्सिडी भी दी जा रही है। इसके अलावा प्रोत्साहन की अनेक योजनाएं हैं। हालांकि, कुछ चुनौतियां भी हैं। जैसे, जलवायु परिवर्तन के कारण यहां गर्मियों के दिन बढ़ गए हैं। इससे मौसम अत्यंत शुष्क (ड्राई) हो जाता है। इस कारण उत्पादन पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। इसके लिए चाय विकास बोर्ड एक विशेषज्ञ कमेटी के गठन पर विचार कर रहा है। नई प्रजाति के पौधों पर रिसर्च की योजना बनाई जा रही है, जो यहां के मौसम के अनुकूल हो। समग्रता में देखा जाए तो राज्य बनने के बाद से दो दशक में चाय के रकबे को बढ़ाकर दोगुना कर दिया गया है। इस वक्त सिलिंगटाक, छीड़ापानी, मंच, दुबड़ जैनल, नरसिंहडांडा, चौकी, सिमल्टा,फुलारागांव, लमाई आदि स्थानों पर 247.50 हेक्टेयर में चाय के बागान है। इसमें इस साल 51 हजार किलो चाय का उत्पादन हुआ।
इसके अलावा चंपावत, घोड़ाखाल, गैरसैंण और कौसानी में स्थित चाय बागानों में करीब 80 हजार किलो प्रति वर्ष चाय का उत्पादन हो रहा है। उत्पादित चाय का अधिकांश हिस्सा कोलकाता बिक्री के लिए भेज दिया जाता है, जबकि बचा हुआ कुछ प्रतिशत उत्तराखंड में ही रिटेल में बेचा जाता है। अब उत्तराखंड टी बोर्ड ने चाय बागानों में पैदा होने वाली चाय का स्वाद आम लोगों को चखाने के लिए यहां के सभी बाजारों में चाय की बिक्री करने का फैसला किया है। वर्तमान परिदृश्य की बात करें तो 2024-25 में कुल 1398.77 हेक्टेयर में चाय की बागबानी की गई थी। इससे पांच लाख पांच हजार नौ सौ पांच किलोग्राम हरी पत्ती का उत्पादन हुआ था। प्रोसेसिंग के बाद 1,09,294 किलो ग्राम चाय पत्ती बनाई गई। अगर अपने पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश से तुलना करें तो हम बहुत पीछे हैं। हिमाचल में 2310.714 हेक्टेयर में चाय की खेती की जा रही है। 12 लाख किलोग्राम से अधिक का उत्पादन होता है। यानी वह हमसे डेढ़ गुना से कुछ ज्यादा क्षेत्रफल में बागबानी करते हैं जबकि उत्पादन हमसे 12 गुना ज्यादा होता है। हालांकि, पिछले पांच वर्षों का आकलन करें तो पता चलता है कि उत्पादन में लगातार वृद्धि हो रही है। 2020-21 में जहां 1406 हेक्टेयर में बागबानी कर 3,85,79.00 किलोग्राम हरी पत्तियों का उत्पादन किया गया था वहीं, इस बार 1398 हेक्टेयर में पांच लाख से अधिक किलोग्राम पत्तियों का उत्पादन किया गया। थोड़ा ही सही लेकिन, 2020 से 2025 के बीच हर साल उत्पादन में बढ़ोतरी हुई है। हम उत्तराखंडी कई चीजों में अपनी तुलना पड़ोसी राज्य हिमाचल से करते हैं। यहां पर जब हम तुलना करते हैं तब दिक्कत शुरू
होती है। मौसम, जमीन समेत तमाम कारक लगभग यहां से मिलते-जुलते हैं। मगर, वह हमसे उत्पादन में बहुत आगे हैं।
छह फैक्ट्री हैं, एक पर चल रहा काम…
उत्तराखंड में कुल पांच फैक्ट्रियां चाय विकास बोर्ड की हैं। एक पर काम चल रहा है। एक प्राइवेट फैक्ट्री है। यानी कुछ दिनों में सात फैक्ट्री हो जाएंगी। इससे उत्पादन में वृद्धि होने की संभावना है। चाय विकास बोर्ड किसानों को सब्सिडी देने का प्रस्ताव तैयार कर रहा है। इसपर जल्द ही निर्णय हो जाएगा। इसके अलावा ऑन रोड ट्रांसपोर्टेशन की व्यवस्था भी है। यानी, काश्तकारों से खेत से ही हम पत्तियां उठा लेते हैं। इसमें उन्हें रियायत दी जा रही है। चाय विकास बोर्ड के वित्त अधिकारी अनिल कुमार खोलिया बताते हैं कि जिन काश्तकारों की लीज पूरी हो चुकी है, वह अपना काम कर सकते हैं। इसके अलावा अन्य काश्तकार भी हमसे जुड़ सकते हैं। बस इतना ध्यान रखना होता है कि आसपास चाय की फैक्ट्री हो, क्योंकि पत्ती तोड़ने के चार घंटे के अंदर फैक्ट्री में पहुंचाना होता है, नहीं तो वह खराब हो जाती है। चंपावत में एक प्राइवेट फैक्ट्री है। बहुत से लोग अपनी पत्तियां वहां बेचते हैं। कंपनी 40 रुपये प्रति किलोग्राम की दर से पत्तियां खरीद रही है। चंपावत, नैनीताल और चमोली में तैयार हो रही ग्रीन टी चंपावत, नैनीताल और चमोली में ग्रीन टी तैयार की जाती है। हालांकि, पारंपरिक चाय के मुकाबले अभी इसकी मांग उतनी नहीं है। इसलिए कम उत्पादन किया जा रहा है। मांग बढ़ने की दशा में इसका उत्पादन बढ़ाया जा सकता है।
तीन जिलों में 120 हेक्टेयर में पौधरोपण चंपावत, पिथौरागढ़, चमोली और टिहरी के चयनित 120 हेक्टेयर क्षेत्र में आगामी जुलाई में चाय के पौधों का रोपण किया जाएगा। इसके बाद राज्य में चाय की खेती का दायरा बढ़कर 1491 हेक्टेयर पहुंच जाएगा। अभी तक आठ पर्वतीय जिलों के 29 विकासखंडों के 1371 हेक्टेयर क्षेत्र में चाय की खेती हो रही है। चाय विकास बोर्ड का प्लान है कि प्रत्येक हेक्टेयर में 15 हजार पौधे लगाए जाएंगे। अगर उत्पादन बढ़ता है तो आगे चलकर इसका क्षेत्रफल बढ़ाया जा सकता है। कृषि वैज्ञानिकों का भी मानना है कि प्रदेश में चाय उत्पादन की बड़ी संभावना है। यहां की स्थितियां बेहद अनुकूल है। इस बीच उत्तराखंड चाय विकास बोर्ड ने चंपावत में 100 हेक्टेयर क्षेत्र में फैले चाय बागानों को कुछ समय पहले किसानों को वापस कर दिया था। उत्तराखंड चाय विकास बोर्ड धरानौला, अल्मोड़ा के वित्त अधिकारी अनिल खोलिया ने बताया कि इस भूमि की लीज अवधि समाप्त हो गई थी। इसे देखते हुए चाय विकास बोर्ड ने चाय की खेती का दायरा बढ़ाने की दिशा में कदम उठाए, ताकि चाय उत्पादन पर कोई असर न पड़े। हालांकि, जिन काश्तकारों को बागान वापस किए गए हैं, वह भी चाय की खेती ही करेंगे। इससे उत्पादन बढ़ेगा।
बेरीनाग टी
कभी दुनिया थी मुरीद पिथौरागढ़ के बेरीनाग के चाय बागानों की कहानी का सफर करीब 200 साल का हो चुका है। बेरीनाग टी के इतिहास से लगभग हर उत्तराखंडी वाकिफ है। अंग्रेज तो इसके मुरीद थे ही, हाउस ऑफ लंदन में यहीं की चाय इस्तेमाल होती थी। बेरीनाग की पहचान चाय से ही थी। अंग्रेजी शासनकाल में चौकोड़ी चाय के बागानों से आच्छादित था। हजारों हेक्टेयर में फैले चाय बागान के चलते यहां पर चाय की फैक्ट्री थी। दुर्भाग्यवश आजादी के बाद देश की सरकारों ने इसे महत्व नहीं दिया। जहां पूर्व में चाय के बागान थे, वहां पर अब कंक्रीट के जंगल बन चुके हैं। बेरीनाग टी की पहचान को दोबारा शीर्ष पर ले जाने की कोशिश कर रहे हैं विनोद कार्की। उनकी मेहनत का परिणाम है कि बेरीनाग टी को जीआई टैग मिल चुका है। इसे विदेशों में एक्सपोर्ट करने का लाइसेंस भी मिल चुका है। हालांकि, अब तक कोई ऑर्डर नहीं मिला है। लेकिन, उम्मीद है कि जल्द ही यह चाय फिर विदेशियों को अपना मुरीद बना लेगी। इस इलाके में चाय विकास बोर्ड का भी बागान है। लेकिन, वह बेरीनाग नहीं बल्कि उत्तराखंड टी के नाम से इस चाय को विदेशों में बेचता है। चूंकि, यह चाय 1500 सौ रुपये से लेकर 3000 रुपये प्रति किलो की दर से बिकती है। इसलिए देश में इसकी ज्यादा डिमांड नहीं है। विनोद कार्की बताते हैं, उत्पादन तो ठीक हो रहा है। लेकिन, मार्केटिंग में हमें और काम करने की जरूरत है। वह बताते हैं, पिथौरागढ़ में हमने प्रदेश की पहली निजी चाय की फैक्ट्री लगाई। सुदूर इलाके में बड़ी मुश्किल से बड़ी-बड़ी मशीनों को लेकर आए। कार्की के प्रयास से इलाके में एक कॉपरेटिव सोसायटी की स्थापना हुई। इसमें 21 सदस्य है। वह इसके अध्यक्ष हैं। इसके तहत 8.72 हेक्टेयर में चाय बागान आते हैं। इसमें उनकी और परिवार की करीब 2.47 हेक्टेयर भूमि है। पिछले साल उन्होंने करीब आठ हजार किलोग्राम चाय का उत्पादन किया था। हालांकि, वह करीब पांच लाख रुपये की ही चाय बेच पाए थे। बाकी चाय स्टॉक में है। वह बताते हैं कि बाजार में अपने प्रोडक्ट की मार्केटिंग में दिक्कत आ रही है। बाकी उत्पादन ठीक हो रहा है। हमारा प्रयास जारी है।
अलकनंदा और तुलसी का संगम
उत्तराखंड में तुलसी की चाय पर भी अच्छा काम हो रहा है। हिमालय एक्शन रिसर्च सेंटर यानी हार्क से जुड़ी अलकनंदा कृषि बहुउद्देशीय स्वायत्त सहकारिता की महिलाएं चमोली के कालेश्वर के आसपास तुलसी की चाय से 30 से 40 लाख रुपये का कारोबार कर रही हैं। इस समूह के साथ 400 से 600 महिलाएं जुड़ी हैं। यहां तुलसी की तीन वैराइटी की चाय बनाई जा रही है। प्योर तुलसी, तुलसी जिंजर और तुलसी मसाला। अलकनंदा घाटी में तुलसी उत्पादन तेजी से फैल रहा है। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि तुलसी को जानवर नुकसान नहीं पहुंचाते हैं। साथ ही तुलसी उत्पादन के लिए ज्यादा पानी की भी जरूरत नहीं होती है। सबसे अच्छी बात ये है एक बार लगाने पर तुलसी की साल में 2-3 बार फसल ली जा सकती है। इससे सोसाइटी से जुड़ी महिलाओं का काफी फायदा हुआ है। बड़ी संख्या में महिलाएं स्वरोजगार से जुड़ रही हैं। शैलेष पंवार बताते हैं कि तुलसी की खेती से ग्रामीणों को हर महीने 5-7 हजार रुपये की आमदनी हो जाती है। अलकनंदा सहकारिता समिति की तुलसी चाय की महक स्वीडन तक पहुंची है। फ्रांस से भी आर्डर आ चुका है। इसके अलावा दिल्ली, चंडीगढ़, मुंबई और देहरादून जैसे शहरों से लगातार डिमांड आती रहती है। समिति अब बदलते बाजार को देखते हुए तुलसी चाय की ऑनलाइन बिक्री की तैयारी कर रही है।
ग्रीन टी और ब्लैक टी का अंतर
ग्रीन टी और ब्लैक टी दोनों ही लोकप्रिय हैं। कैमेलिया साइनेंसिस नामक पौधे की पत्तियों से ही दोनों चाय बनाई जाती है। कुछ अंतर हैं। इसके प्रोसेसिंग में अंतर होता है। सीधे शब्दों में कहें तो काली चाय ऑक्सीकृत होती है और हरी चाय नहीं। ऐसा इसलिए है क्योंकि काली चाय की पत्तियों को समय की अवधि में कटाई के बाद ऑक्सीजन के संपर्क में रखा जाता है, जबकि हरी चाय की पत्तियों को ऑक्सीकरण प्रक्रिया को रोकने के लिए या तो भाप में पकाया जाता है या तल कर पकाया जाता है। स्वाद की बात करें तो इसे बनाने के तरीके पर निर्भर करता है। जापान में उगाई जाने वाली हरी चाय को भाप में पकाया जाता है, जबकि चीन में हरी चाय को तल कर बनाया जाता है। इसलिए दोनों जगहों की चाय में अंतर आता है। चीनी हरी चाय का स्वाद मीठा और हल्का होता है, जिसमें थोड़ा टोस्टेड फ्लेवर होता है।
असम में सबसे ज्यादा उत्पादन
भारत में सबसे ज्यादा यानी 52 प्रतिशत चायपत्ती का उत्पादन असम करता है। तकरीबन 650 से 700 मिलियन किलोग्राम प्रतिवर्ष। असम में 803 चाय बागान हैं। इसके अलावा एशिया का सबसे बड़ा चाय बागान 1367.38 हेक्टेयर भी असम के बिस्वनाथ जिले के बेहाली में है। यहां सालाना 1 करोड़ 17 लाख किलोग्राम कच्ची चाय का उत्पादन होता है, जिसे दुनिया भर में निर्यात किया जाता है। बागान में 3590 से अधिक कर्मचारी काम करते हैं। इन 3590 कर्मचारियों में से 2400 नियमित और 1000 अस्थायी मजदूर हैं। संचालन और प्रशासन की देखभाल करने वाले कर्मचारियों की संख्या लगभग 186 है। इसके अलावा पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल और हिमाचल प्रदेश में भी बड़े पैमाने पर उत्पादन हो रहा है।
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