पिरूल ( pirul) यानी चीड़ की पत्तियां इन दिनों देश में खूब चर्चा का विषय है। उत्तराखंड के जंगलों में लगी आग का बड़ा कारण इन्हें माना जा रहा है। जंगल में पेड़ हैं तो पत्तियां होंगी ही। सवाल यह है कि अगर इसका सही इस्तेमाल कर लिया जाए तो यह विनाश का कारण नहीं बल्कि रोजगार देने वाली हो जाएंगी। पुष्कर धामी सरकार ने अब जंगलों को आग से बचाने के लिए ‘पिरूल लाओ-पैसे पाओ’ योजना चला रही है। पिरूल कलेक्शन सेंटर पर 50 रुपये प्रति किलो की दर से पिरूल खरीदे जा रहे हैं। इसके लिए सरकार ने 50 करोड़ रुपये का कापर्स फंड बनाया है। राज्य में पहले से ही ऐसे कई स्वयंसेवी संस्थाएं हैं जो पिरूल का व्यावसायिक उपयोग कर रही हैं। इससे कई लोगों को रोजगार भी मिला हुआ है। अब सवाल यह है कि सरकार ने इस ओर पहले ध्यान क्यों नहीं दिया। अगर दिया होता है पिरूल जंगलों में आग का कारण नहीं बल्कि समृद्धि का कारण बन सकता था।

देवभूमि में पाई जाने वाली हर वस्तु उपयोगी है बशर्ते उसका इस्तेमाल सही ढंग से किया जाए। चमोली के पीपलकोटी गांव में रहने वाले जेपी मैठाणी ने यह कर दिखाया है। उन्होंने पिरूल से सैकड़ों महिलाओं को रोजगार भी दिया है। पिरूल से बने प्रोडक्ट जैसे टी कोस्टर, मैट, हैंडीक्राफ्ट आदि से बढ़िया कमाई हो रही है। वह इनको स्थानीय बाजारों के अलावा दिल्ली में भी बेचते हैं। वह यह काम 1997 से कर रहे हैं। अगर उत्तराखंड सरकार ने इन जैसों को बढ़ावा दिया होता तो आज पिरूल आग का कारण नहीं बल्कि समृद्धि का कारण बन रहा होता।

हालांकि, पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने ग्रोथ सेंटर बनाकर इस काम में लगीं महिलाओं और स्थानीय लोगों को प्रोत्साहित किया था। लेकिन, इसे आगे नहीं बढ़ाया गया। जेपी मैठाणी के आगाज फेडरेशन में करीब 150 से ज्यादा महिलाएं काम कर रहीं हैं। इस समय यह लोग चारधाम यात्रा मार्ग पर इन वस्तुओं की बिक्री कर रही हैं।

इसके अलावा भी पिरूल की पत्तियों का उपयोग हैं। जैसे- पारंपरिक रूप से घरेलू पशुओं के लिए बिस्तर बनाने, गाय के गोबर में मिलाकर उर्वरक के रूप में और फलों की पैकेजिंग के लिए किया जाता । पिरूल की ज्वलन क्षमता के कारण, उत्तराखंड सरकार ने उत्तरकाशी जिले के डुंडा ब्लॉक के चकोरी धनारी गांव में 25 किलोवाट का बिजली सयंत्र स्थापित किया है। यह सयंत्र बिजली उत्पादन के लिए कच्चे माल के रूप में पिरूल का उपयोग करता है। वन विभाग के मुताबिक, राज्य में सालाना अनुमानित 23 लाख मीट्रिक टन पिरूल का उत्पादन होता है, जिससे लगभग 200 मेगावाट बिजली पैदा की जा सकती है।

अल्मोडा के कोसी के पास लगाई गई है पाइन प्रोसेसिंग यूनिट
गोविंद बल्लभ पंत राष्ट्रीय हिमालय पर्यावरण संस्थान में पिरूल से उत्पाद बनाए जा रहे हैं। अल्मोड़ा के कोसी के पास 2016 में पाइन प्रोसेसिंग यूनिट लगाई गई है। यहां पर फाइल, फोल्डर, कार्ड, बैग और राखी यहां बनाए जा रहे हैं। यहां पर पिरूल की खरीदारी की जाती है। संस्थान का दावा है कि यहां पर करीब 5000 से ज्यादा महिलाओं को ट्रेनिंग दी जा चुकी है। इस पत्ती का इतना उपयोग होने के बाद भी जंगलों में आग लग रही है तो इसका कारण पिरूल नहीं बल्कि सरकार का कुप्रबंधन है। अगर इस पर गंभीरता से कार्य किया गया होता तो जंगलों की तस्वीर अलग होती।
उत्तराखंड में वन एवं पिरूल क्षेत्र
भारतीय वन स्थिति रिपोर्ट 2021 के मुताबिक, उत्तराखंड में कुल वन क्षेत्र 24,305 वर्ग किलोमीटर है, जो राज्य के भौगोलिक क्षेत्र का 45.44% भाग है।
उत्तराखंड … वन क्षेत्र
अत्यंत घने जंगल 5,055 वर्ग किलोमीटर ,
मध्यम सघन वन -12,768 वर्ग कि.मी. और
खुला जंगल – 6,482 वर्ग किलोमीटर में फैले हुए हैं।
अंग्रेजों ने लगाए थे चीड़ के पेड़
राज्य में चीड़ के पेड़ अंग्रेजों ने लगाए थे। दरअसल, पेड़ की लकड़ियों का उपयोग रेलवे पटरियों के लिए स्लीपर बनाने के लिए किया जाता था। अब अल्मोड़ा, बागेश्वर, चमोली, चंपावत, देहरादून, गढ़वाल, नैनीताल, पिथौरगढ़, रुद्रप्रयाग, टिहरी और उत्तरकाशी जिलों में चीड़ के पेड़ बड़ी संख्या में हैं।