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    Home»बातों-बातों में»पंकज जीना…पहाड़ की वो आवाज जिसकी दुनिया है दीवानी
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    पंकज जीना…पहाड़ की वो आवाज जिसकी दुनिया है दीवानी

    teerandajBy teerandajNovember 11, 2023Updated:November 11, 2023No Comments
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    अक्सर हम उन लोगों से बातचीत करते हैं जो अपने जीवन में कुछ ऐसा कर रहे हैं जो बहुत खास है जिसका एक अपना एहसास है। आज एक ऐसे ही शख्सियत से हम बातचीत करेंगे। इनके बारे में मैं बस यही कहूंगा कि उनकी सोच में पहाड़ सी ऊंचाई है, नदी सी गहराई है और पानी सा ठहराव है। यह शख्सियत आज हमारे बीच में है पंकज जीना। आप इंस्टाग्राम पर इनके थॉट्स को रील पर सुनते हैं। आज आपको पंकज जीना की जिंदगी के कुछ किस्सों से रुबरू करवाते हैं।

    पंकज जीना साथ में हो और बारिश की बात न हो यह हो ही नहीं सकता है। बाढ़, बारिश, नदियां, झरने इन पर आपने जो कहा है वो क्या खूब कहा है। पहले तो इस मौसम पर ही कुछ हो जाए।

    बारिशें जब भी आती है मैं सोचता हूं उन चेहरों के बारे में जो देखते हैं बारिशों को बाल्टियों और मगों में इकट्ठा करते हुए…. जिनके लिए बारीशें सिर्फ प्यार नहीं है बल्कि मुसीबत है। मैं अक्सर सोचता हूं उन चेहरों के बारे में जिनके घर बारिशों में डूब जाते हैं जिनकी दुकान बारिशों में डूब जाती हैं,  जो बारिशों में अपना रोजगार बंद कर देते हैं। उन्हें बारिश अच्छी नहीं लगती है। बारिशें सिर्फ पसंद है उन्हें जो शहर की खिड़कियों से चाय कॉफी पीते हुए पकौड़ियों का स्वाद लेते हुए कहते हैं वह बारिश बहुत अच्छी है। बाकी औरों के लिए मुसीबत लेकर आती है बारिश।

    पहले तो आप मुझे यह बताइए कि इतनी गहराई कहां से आई और गहराई के साथ-साथ यह ठहराव कहां से आया?

    पहले तो आपका बहुत शुक्रिया कि आपने मुझे यहां पर बुलाया। मुझे लगता है कि हम वह आखरी पंक्तियों में से निकले हुए लड़के हैं, जो बैक बेंचर भी रहे हैं और जिन्होंने उन हालातों को देखा है। जब आपने उन हालातों को महसूस किया होता है तो आपको मालूम होता है कि उन हालातों की असल सच्चाई क्या है। इसलिए शायद आप वह कह पाते हैं। यह कोई गहराई नहीं है, यह यथार्थ है। आप वही सच कह रहे हैं और लोगों को यह इसलिए भी पसंद आ रहा है क्योंकि कहीं ना कहीं कभी ना कभी कोई इन हालातों से जरूर गुजरा है। हम वही लिखते हैं और वह दुनिया तक पहुंच जाता है। गोलज्यू देवता की कृपा है और उनका आशीर्वाद बना हुआ है।

    आप पर गोलज्यू का आशीर्वाद बना रहे। जब भी मैं आपको सुनता हूं, मैं अक्सर सोचता हूं तो मुझे यह लगता है कि एक पंकज जीना जिन्हें हम सुनते हैं, वह पंकज जीना कौन है जिन्हें हम जानना चाहते हैं?

    मुझे ऐसा लगता है कि जो भी मैं कह रहा हूं और लिख रहा हूं उसमें और मेरी असल जिंदगी में कुछ ज्यादा फर्क नहीं है। मैंने जो देखा है मैंने उसे ही उतारा है। कागजों में अक्सर में कागज़ी बातें नहीं लिखता हूं, असल बातें लिख देता हूं। इसीलिए शायद वह बात आप तक पहुंची होगी। जब कभी कोई उदास लड़का जिसका कई प्रयासों के बाद भी एग्जाम क्लियर नहीं हो पाया, या नौकरी में हताश कोई लड़का या किसी का दिल टूट गया या कोई आर्थिक हालातों से गुजर रहा है कि यार पिताजी के पास थोड़े पैसे और होते तो मैं इस कोर्स में एडमिशन ले लेता या शायद इस बार थोड़े एफर्ट्स और कर लेता तो मैं इस एग्जाम में निकल जाता। मैं उन सब लोगों की कहानी कहता हूं। मुझे लगता है कि असल में मैं वह नहीं हूं, मैं उन कहानियों का प्रतिनिधि हूं। मैं वह चेहरा हूं, मैं वह आवाज हूं। लोग मुझे मेरी आवाज से पहचानते हैं भले ही चेहरा ना पहचाने।

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    अब तो आपके चेहरे को भी लोग बखूबी पहचानते हैं। लेखक से आवाज का जादूगर बनने का सफर कैसे शुरू हुआ। कब टर्न अराउंड हुआ या शुरू से ऐसा लगता था आवाज पर काम करना है ?

    दाज्यू यह हुआ ऐसा की एक तो हम पहाड़ी हैं। जब आप गाय भैंसों  को चराने जाते हैं। गायों को चराते वक्त मैं कंधे पर रेडियो ले जाता था। एक हाथ में उपला लिए अपने दो बैल और एक गाय को लेकर चराने के लिए लेकर जाता था। उस वक्त मैं रेडियो सुनता था। जैसा रेडियो में बोला जाता था, मैं भी वैसे ही बोलने लग जाता था। पहाड़ियों के साथ दिक्कत है की उन्हें बोलने में परेशानी होती है। जैसे हमारे स और श क्लियर नहीं होते हैं। और एक टोन रहती है। उसके लिए आपको काम करना पड़ता है। थोड़ा थिएटर में सिखा, थोड़ा रेडियो ने सिखाया और थोड़ा संघर्षों ने सिखाया और बस जिंदगी अच्छी हो गई। सब कुछ सही चल रहा है। बाकी धीरे-धीरे और भी चीजें आगे सीखेंगे।

    आपकी थिएटर की जर्नी कैसे शुरू हुई? उसके बाद इस तरफ आप कैसे घूम गए?

    पढ़ाई में मन नहीं लग रहा था। हमारा नैनीताल पॉलिटेक्निक ऐसे ही हुआ। हमेशा मौके ढूंढते रहते थे कि इससे कैसे भागें। एक दिन मैंने देखा कि नैनीताल में मंच नाम से एक ग्रुप है, जिन्होंने एक जगह पर अपना ऐड लगाया हुआ था। वहां पर लोग इकट्ठा हुए थे। उस समय हमने सोचा की पढ़ाई से बचने का यह सबसे अच्छा मौका है। चुपचाप यहां पर भाग जाते हैं। वहां पर हमारे एक दाज्यू थे भग्गू दा तो मैंने उन्हें कहा कि मुझे भी अंदर ले लो। उन्होंने मुझे कहा कि तू बोल लेगा। मैंने कहा हां मैं बोलूंगा। उसके बाद हेमले एक प्ले था जिसमें मुझे छोटे-मोटे कैरेक्टर करने को कहते थे। एक बार हमारे डायरेक्टर ध्रीस मालिक ने मुझे कहा जीना तुम अपनी वॉइस पर कम करो। मैंने उनसे पूछा कि यह कैसे होगा, उन्होंने मुझे कहा कैशे नहीं कैसे होगा। उन्होंने मुझे थोड़ा बहुत सिखाया। सिखाते –  सिखाते एक रोज उन्होंने मुझे कहा कि तुम रेडियो में कुछ करो क्योंकि एक्टिंग तुम्हारे बस के नहीं है। उसके बाद मैं दिल्ली एक रेडियो स्टेशन पर गया। वहां गार्ड ने मुझे भागा दिया। मैं वहां ऐसे ही चला गया था। गार्ड ने मुझसे पूछा कहां जा रहे हो। मैंने एक बड़े आर जे का नाम लेकर कहा कि मुझे उनसे मिलना है। गार्ड ने मुझे कहा कि तुम ऐसे नहीं जा सकते हो और मुझे वहां से भगा दिया। इत्तेफाकन जब मैं गांव चला आया तब मुझे एक लड़के ने कहा कि तुम मुक्तेश्वर कुमाऊँ वाणी रेडियो स्टेशन में जाओ। भवाली में जहां मेरे पापा की दुकान थी, मेरे गांव से थोड़ा दूरी पर है।

    इसके बाद गांव से मैं भवाली शिफ्ट हुआ जहां पर हम किराए पर रह रहे थे। जब मैं मुक्तेश्वर गया तो वहां सुबह के लिए कोई गाड़ियां नहीं चलती थी। पहली बस वहां 9:00 बजे जाती थी और मुझे रेडियो स्टेशन सुबह 7:00 बजे पहुंचना था। मेरे पास एक साइकिल थी जो आज भी मेरे घर पर रखी हुई है। मैं रोज सुबह 3:30 बजे उठता था। मेरी मम्मी मेरे लिए सुबह खाना बना देती थीं और साइकिल लेकर मैं 40 -45 किलोमीटर पैदल जाता था, क्योंकि चढ़ाई में साइकिल चलती नहीं है। मैं साइकिल को भी धक्का मरता था और खुद भी पैदल चलता था। मैंने वहां डेढ़ साल काम किया।

    फिर दिल्ली के एक एफएम रेडियो ने मुझे बुलाया। साजन सर को मेरी आवाज अच्छी लगी। फिर दिल्ली के रेडियो स्टेशन में काम किया। उसके बाद देहरादून आए। देहरादून में एक डेढ़ साल अच्छा बीता। फिर मुझे बनारस जाने की अपॉर्चुनिटी मिली। बनारस में जाने के बाद मैं पहली बार आरजे बनकर रेडियो पर आया। उसके बाद जब मैं लखनऊ आया तो मैं पूरे उत्तर प्रदेश का शो करने लगा। मैं फिर बनारस गया। बनारस एक ऐसा शहर है जो आपको बांध लेता है। दुनिया कई शहरों के बारे में कहती है और लिखती है, लेकिन बनारस एक ऐसा शहर है जो आपको सिखाता है की जिंदगी में खुश कैसे रहना है, पर जब आपकी जिंदगी बीत जाए तो उसके बाद भी खुश कैसे रहना है। बाकी के शहरों को मौत पर दुख होता है लेकिन बनारस मणिकर्णिका घाट पर मौत को सेलिब्रेट करता है। बनारस में ही मुझे नेशनल शो मिला। रेडियो के जरिए पूरे हिंदुस्तान भर में मेरी आवाज गई। वह दौर 2021 का था जब कोविड का दौर चल रहा था। आसपास बहुत सारे लोग मर रहे थे। उस समय आपको पता चला कि आप जिंदगी में जो स्टेटस लेकर चल रहे हैं वह कुछ भी नहीं है।

    एक बीमारी आएगी और आपको खत्म कर देगी। उस दौरान बहुत लोगों ने अपनों को खाया।  हमने भी अपने बहुत खास लोगों को खोया है। तब मैं बनारस के एक कमरे में बैठकर सोच रहा था कि अगर मुझे यहां कुछ हो गया तो मेरी ईजा लोगों को क्या बताएगी कि मेरा लड़का क्या करता है। मैं उन दिनों बीमार भी था शायद मुझे कोविड हो गया था। उस समय मैंने अपने दाज्यू से बात की और कहा कि कुछ ऐसा शुरू करते हैं। शुरुआत में हमने दिन की चार-पांच ऑडियो डालना शुरू किया। दो-तीन महीने तक कोई रिस्पांस नहीं आया। फिर एक दिन देखा की सारी की सारी ऑडियो एक के बाद एक वायरल होने लगी। उस समय हम सिर्फ ऑडियोज डालते थे, चेहरा नहीं डालते थे। फिर किसी ने कहा कि ऑडियो के साथ चेहरा भी डालो। जिसके बाद चेहरा भी डालना शुरू किया। इसके बाद हिंदुस्तान से लेकर पाकिस्तान, बांग्लादेश, ऑस्ट्रेलिया पता नहीं कहां-कहां हमारी ऑडियोज दुनिया तक पहुंचती चली गई। पाकिस्तान में लोगों ने मेरा नाम बदलकर अपने नाम से वीडियो डाली हुई है और रोटियां पका रहे हैं। ऐसे सिलसिला चलता चला गया और हम पहुंचते चले गए।

    आपने बनारस की बात की। कहते हैं कि जिंदगी में एक बार बनारस जरूर जाना चाहिए और मणिकर्णिका घाट पर कुछ समय बिताना चाहिए। आप वहां बैठकर सारे फलसफे और दुनियादारी समझ जाएंगे कि आखिर मैं आपके साथ कुछ नहीं जाना है। और कौन-कौन से शहर है जो आपको लगता है कि जिंदगी के बारे में कुछ सिखाते हैं।

    देहरादून…..राजपुर रोड से लेकर कोलागढ़ तक का आपका सफर संघर्षों का सफर है। पहली बार आपको पता चलता है कि जो आप ख्वाबों की जिंदगी जी रहे हैं, जो आपको लग रहा है कि बाहर से देखने में सब बहुत अच्छा है। अचानक आपका सामना खतरनाक चीजों से होता है। पहली बार आप ऑफिस कल्चर से मिलते हैं। मैं यह अपनी जिंदगी का बता रहा हूं। फिर जो वह देहरादून शहर जो ख्वाबों में बहुत अच्छा लगता था, अचानक से ऐसा लगने लगता है कि यह तो बहुत ही ज्यादा मुश्किल है। यहां कैसे हो पाएगा। लेकिन मेरा यहीं पहली बार मेहनत करने का दिल किया। मैंने यहीं अपने ऊपर बहुत ज्यादा काम किया। यहां कई सारी किताबें पढ़ी। जीवन में प्रेम भी यहीं पर हुआ। यहीं पर मुझे अपने काम से प्यार हुआ। मैं सुबह 9:00 बजे ऑफिस जाता था और रात को दो ढाई बजे घर वापस आता था।

    फिर अगली सुबह 9:00 बजे ऑफिस पहुंच जाता था। किस तरह का पागलपन था आप समझ सकते हैं। मेरे पास तीन-चार शूज होते थे और मैं उनमें बहुत ज्यादा मेहनत करता था। उस समय ने मुझे बहुत ज्यादा मांझा है। लोग डांटते हैं तो आपको बुरा लगता है लेकिन उनके डांट से जिंदगी में इतना ज्यादा असर पड़ा है कि आज जो भी अच्छा कर रहे हैं उन लोगों की वजह से कर पा रहे हैं। कई ऐसे लोग हैं जिनका डायरेक्टली इनडायरेक्टली जिंदगी पर असर पड़ा है। वो देहरादून में सीखा है। यहां का हर हिस्सा, जब चिल करना हो तो गुच्चू पानी चले जाओ, यहां का गांधी पार्क… जब डिजिटल इतना नहीं था तब हम गांधी पार्क में वीडियो बनाया करते थे। गांधी पार्क में ही मैंने पहली बार कैमरा चलाया तो यह सब कुछ इस शहर ने मुझे सिखाया है।

    जब मैं आपसे यहां बात कर रहा हूं तो मेरे दिमाग में आपकी कई सारी रील्स चल रही हैं।

    मुझे अपनी रिल्स याद नहीं रहती हैं। मैं बस लिख देता हूं। वह कहते हैं ना जैसे इंसान पर किसी अवतार का आना। हमारे यहां देव का आना कहते हैं। वैसे ही रैंडम लिखा और जाकर बोल दिया।

    दिल्ली में मेरे एक दोस्त हैं उनको मैंने पहाड़ी के कुछ शब्द सिखाए थे। उसमें से एक शब्द उन्होंने सीखा नौणी। मक्खन को नौणी कहते हैं। मैंने उन्हें बताया कि मैं पंकज जीना का इंटरव्यू करने वाला हूं तो उन्होंने मुझे कहा की उनसे पूछना की वह नौणी बहुत खाता है क्या। उनकी आवाज बड़ी मखमली सी है। आप क्या खाते हैं जरा यह बता दीजिए?

    पंकज – यह तो वही सवाल हो गया कि आम कैसे खाते हैं। हमारी ईजा प्यार से जो बनाती थी चाहे पिंडालू की सब्जी हो या आलू की सब्जी हो हम बड़े मजे से खा लेते थे। बाकी गोलज्यू की कृपा है। सर पर उनका बड़ा आशीर्वाद है। मुझे लगता है यह हम नहीं बल्कि गोलज्यू की कृपा बोल रही है।

    आपकी लाइफ में एक और शख्स पप्पू कार्की का बहुत बड़ा रोल रहा है। आप बताए की क्या रोल रहा है । आप उनके बारे अक्सर बताते भी रहते हैं और हम सुन भी चुके हैं। हमारे दर्शकों को भी थोड़ा बताइए।

    पंकज – जब मैं कुमाऊं वाणी में था, तब मैं पप्पू दा का इंटरव्यू करने गया था। पप्पू दा ने उसे इंटरव्यू की तरह लिया ही नहीं। उसने कहा कि तू मेरा भाई है। जिसके बाद पूरा-पूरा दिन उनके स्टूडियो में बीतने लगा। उसने मुझे डांटा है और कभी-कभी चटकाया भी है। उसने मुझे सिखाया है। वह मुझे शमी नारंग की आवाज सुनाया करता था। जैसे वह बोलते थे अगला स्टेशन आनंद विहार है…पप्पू दा मुझे बोलते थे कि ऐसे बोल। हमारा वोकल क्वालिटी इतना अच्छा नहीं था तो उनकी तरह नहीं बोल पाते थे। इसपर दा तो मुझे बोलते थे कि मारूंगा मैं तुझे। पप्पू दा मुझे मोमोज खिलाते थे। जब कभी मैं उन्हें कहता था कि कहीं मेरी आवाज न खराब हो जाए तो वह मुझे कहते थे ऐसा कुछ नहीं होता यार। मैं तो मोमो भी खाता हूं, कोल्ड ड्रिंक भी पीता हूं और चिल्ड पानी भी पीता हूं। मुझे तो कुछ नहीं होता मैं तो गाता भी हूं। और बोलते थे चल चल खा… तो वह मुझे मोमो खिलाया करते थे।

    जब भी मैं कोई कहानी बनाता था तो मैं पप्पू दा को भेजता था। बाकी किसी को अच्छी लगे ना लगे लेकिन वह अप्रिशिएट करते थे। वह कहते थे मेरे को अच्छी लगी यार लेकिन इसमें यह कमी है, इसको सुधार ले। मुझे ऐसा लगता है कि जब तक पप्पू दा रहा उसने मुझे जीवन में बहुत कुछ सिखाया है। उसके जाने के बाद भी वह मेरे साथ आज भी है। उनकी यादें हमेशा साथ रहेगी। वह कभी अलग नहीं हो सकती हैं। मैं आज जीवन में जो कर रहा हूं जैसा कर रहा हूं उसका रास्ता दिखाने वाला पप्पू दा ही था। वह आज नहीं है, ऐसा दुनिया मानती है लेकिन मुझे लगता है कि वह हमेशा है। कल के दिन मैं रहूं ना रहूं अगर मैंने अपने जीवन में कुछ कर लिया, क्योंकि अभी तो मैं सीख रहा हूं, तो पप्पू दा का जिक्र जरूर आएगा। उस इंसान ने मुझ पर हथौड़ियां मार कर मुझे आगे बढ़ाया है।

    यह तो थी पप्पू दा की कहानी लेकिन एक और बात जो मुझे लगती है कि अब ऐसा क्यों हो रहा है जो की पॉजिटिव है अच्छा है।  आपकी जनरेशन के लोग अब वापस पहाड़ में आकर ही कुछ करना चाहते हैं। अपने भी शायद कुछ ऐसा ही सोचा है।

    पंकज – मैं एक नेशनल रेडियो में था और अचानक एक दिन ख्याल आया कि यार अब चलो गांव चलते हैं। मैं सब छोड़-छाड़ कर गांव वापस आ गया। मैंने वहीं एक स्टूडियो बनाया है। जो अभी भी बन रहा है, कभी मिस्त्री नहीं मिलता तो कभी कारपेंटर, लेकिन धीरे-धीरे कम हो रहा है। मुझे लगता है कि लोग अपनी जड़ों की तरफ वापस लौट रहे हैं। वह एक बात है कि आप कितनी भी दूर चले जाएं, आपको सुकून घर आकर ही मिलता है। इसलिए अब न्यू जनरेशन पहाड़ों की तरफ वापस लौट रही है। इसके लिए ग्लोबलाइजेशन बहुत ज्यादा जरूरी है क्योंकि अब आप इंटरनेट के माध्यम से एक कमरे में रहकर पूरी दुनिया से जुड़ सकते हैं। जो मुझे लगता है एक अच्छा साइन है।

    यह शायद इसलिए भी है क्योंकि जब कोविड आया तो उसने एक बात सिखाई कि हमने जिन शहरों को 24 – 25 साल दिए वह कोविड के समय हमें दो हफ्ते नहीं रख पाया। और जिन घरों को हम छोड़ कर चले गए थे उसने उस महामारी में भी हमें संभाल लिया।

    पंकज – दा मैं तो इस चीज को कभी भूल ही नहीं सकता हूं। मुझे लगता है कि मैंने असली जीवन कोविड के समय में सिखा है। वह अच्छा भी है और बहुत बुरा भी है। मैं थोड़ा सा बनारस के बारे में बात करता हूं। बनारस एक ऐसा शहर है जहां दशाश्वमेध घाट पर लोगों का मुंडन हो रहा है और एक नए जीवन की शुरुआत हो रही है। वहीं थोड़ी सी दूर आप चलते हैं तो मणिकर्णिका घाट पर जहां लोगों का जीवन समाप्त हो रहा है। उस दिन मणिकर्णिका  अपने रौद्र रूप में थी जैसे भगवान शिव तांडव कर रहे हो। और सब कुछ उनके इर्द-गिर्द चल रहा हो। सारी दुनिया उन्होंने बैलेंस कर दी है। जो जितना बड़ा आदमी था उसे भी उन्होंने वहां लाकर रख दिया और कोई छोटा आदमी था उसे भी उन्होंने वहीं लाकर रख दिया। वहां पर सब बराबर हो जाते हैं। वहां पर कोई स्टेटस सिंबल नहीं होता है। किसी के कितने फॉलोवर्स है, यह नहीं देखा जाता है। कोई कितना बड़ा आदमी बन गया है, कोई कितना बड़ा स्टार है, यह नहीं देखा जाता है। जब अग्नि लोगों को जलाती है तो राख ही बनती है। कभी ऐसा नहीं होता है कि कोई बड़ा आदमी जलने के बाद सोना बन जाए। जिंदगी में आप जितना भी कमा लो, कहां कोई सोना बन पता है, बनना आपने रख ही है। एक बार जीवन में आपको बनारस जाना चाहिए। आपके जीवन का सारा घमंड वहां खत्म हो जाएगा। आप कोई ब्रांड का नाम नहीं लेंगे। आप इतने आम हो जाएंगे कि आपके सामने बैठे इंसान को लगेगा कि यह तो हमारे ही जैसा है। मुझे लगता है बनारस का असर मेरी लेखनी में भी बहुत ज्यादा है। और आज भी मुझे लगता है कि मैं कहीं ना कहीं वही अस्सी घाट से घूमता हूं। वहां मैंने अपना पहाड़ ढूंढ लिया था, मेरे अपने हिस्से का पहाड़। लेकिन मुझे पहाड़ों से ज्यादा लगाव था तो मुझे वापस लौटना पड़ा।

    यह एक रियलिटी चेक भी है। कोविड ने यह सबको सिखा दिया कि चाहे आपके पास कितने भी पैसे क्यों ना,  एक बीमारी आई लेकिन आप उन पैसों से अपनों को भी नहीं बचा पाए। तो आपकी उस कमाई का कोई मतलब नहीं रह जाता है।

    पंकज – मुझे ऐसा नहीं लग रहा है कि मैं कोई इंटरव्यू दे रहा हूं मुझे ऐसा लग रहा है कि मैं अपने बड़े भाई से बात कर रहा हूं। कोविड ने काफी कुछ सिखा दिया है। लेकिन लोग भूल जाते हैं फिर से भागने लगते हैं। लेकिन कोविड ने हमें अपने गांव घर की तरफ वापस लौटाया। उसने बताया कि आपके गांव आज भी आपको वैसे ही गले लगाएंगे और वहां आपका काम चल जाएगा। गांव की खास बात यह भी है कि आप किसी के भी घर चले जाओ वह आपको प्यार से खाना खिलाएंगे। प्यार से आपको बैठकर चाय के लिए पूछेंगे तो हमारे गांव में ऐसा चलता है। लेकिन यह शहर में नहीं चलता हैं। लोग पड़ोसी को नहीं पहचानते हैं।  कोई बगल में रहता है, आपको उनका दरवाजा खटखटाते हुए डर लगेगा। लेकिन गांव में अगर आप बीमार पड़ जाए तो आपको कहते हैं कि यह खा ले यह पीले इससे सही हो जाएगा। इसलिए लोगों को गांव लौटना चाहिए। अब गांव लोगों से जुड़ रहे हैं और यह कहीं न कहीं अच्छा भी है।

    जो आपने अभी बात कही मैं उसमें एक चीज और जोड़ता हूं। मैं काशीपुर में रहता हूं और कई बार ऐसा होता है कि जब लोग बीमार होकर काशीपुर आते हैं, वह लोग जिस गांव के होते हैं, उस गांव के लोग तो इकट्ठा होते ही हैं। इसके अलावा ब्लॉक, पट्टी के लोग भी अस्पताल में लाइन लगाकर मिलने के लिए खड़े हो जाते हैं। यह अपनापन हमारे पहाड़ के लोगों में होता है। इसे देखकर डॉक्टर कहता है कि बस पहाड़ों से मरीज काम आएं।

    पंकज – यह कहीं ना कहीं एक ड्रॉबैक भी है क्योंकि हमारे पहाड़ों में अस्पताल है ही नहीं। अगर कभी कोई महिला पेड़ से गिर जाती है तो उसे लेकर आपको या तो फिर हल्द्वानी दौड़ना पड़ेगा या फिर दिल्ली। पहाड़ों में सुविधा ही नहीं है। मेरी जिंदगी का एक सपना है जैसे हम लौटे हैं वैसे ही और लोग भी वापस लौटें और इसके साथ ही डॉक्टर भी पहाड़ों पर लौटे। मेरे जीवन में सिर्फ एक ही दुख है पहाड़ों में मेडिकलbफैसेलिटीज नहीं है। पहाड़ों में होटल पहुंच गए, थोड़ी बहुत सड़के भी पहुंच गई। लेकिन अभी तक अस्पताल और स्कूल नहीं पहुंच पाए हैं। हमारे भी दज्यू वगैरा हैं। वह अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए कोई नैनीताल ले गया, हल्द्वानी ले गया लेकिन कोई गांव में नहीं रुका। क्योंकि गांव का सरकारी स्कूल जहां से हम भी पढ़ें हैं, उन्हें लगता है कि वहां क्या ही होगा। मैं चाहता हूं कि लोग अपने गांव वापस आए। गांव में नौकरी मिलना मुमकिन नहीं है लेकिन आप शहरों में नौकरी करें और 2 दिन की छुट्टी लेकर गांव जरूर आएं। एक नॉर्मल से कैंप लगाए। शायद उसे थोड़ा बहुत फर्क पड़ जाए।

    मैं अक्सर यह सोचता हूं कि अगर पहाड़ों पर सड़के इतनी ना बनती  या फिर कम बनती तो शायद पलायन काम होता। पहाड़ों से पलायन करने पर सड़कों ने भी बहुत बड़ा रोल निभाया है।

    पंकज – सड़क आई और ले गई। उमेश पुनेठा जी ने लिखा है कि ए सड़क तुम अब आई हो जब पूरा गांव शहर चला गया। मैंने अभी उनको पढ़ा। मुझे लगा कि किसी ने रियलिटी को लिखा है।

    उन्होंने पहाड़ के रियलिटी को दो लाइनों में इस तरीके से खोल कर रख दिया है जो कि सच भी है। जहां-जहां सड़के गई हमने यह नहीं सोचा कि हमें वापस लौट कर आना है बल्कि वह गांव और खाली होते चले गए।

    पंकज – गांव खाली होने का रीज़न है कि वहां पर हॉस्पिटल नहीं है, स्कूल नहीं है। वहां कुछ है ही नहीं तो इंसान वहां रहकर क्या करेगा। पहाड़ों में लोग खेतों में कुछ लगा रहे हैं तो सूअर उसे खा रहा है। लोग अक्सर यह कह तो देते हैं कि पहाड़ वापस आओ लेकिन कोई यह नहीं कहता है कि पहाड़ में आकर करेगा क्या। कुछ सालों से पहाड़ों में होमस्टे का चलन चला है, जिससे लोगों की इनकम हो रही है। इसके अलावा नई-नई चीज भी आ रही हैं जिससे मुझे लगता है कि आने वाले टाइम में और बेहतर हो जाएगा। लेकिन साथ में अस्पताल भी आ जाए तो और ज्यादा बेहतर होगा। अगर यह कोई डॉक्टर देख रहे हैं तो मेरी उनसे यह गुजारिश है कि कभी-कभी आप अपने गांव का एक चक्कर भी लगा लें तो उससे बहुत फर्क पड़ जाएगा।

    बिल्कुल फर्क पड़ेगा और आप जैसे लोग जिनकी बातें लोग सुनते हैं जब वह लोग इस तरह की अपील करते हैं तो उसका असर भी पड़ता है। ऐसा ही कुछ करते रहेंगे और आगे भी आपसे ऐसी मुलाकात होती रहेंगी। लास्ट में मैं चाहूंगा कि आप अपने अंदाज में कुछ सुना दीजिए।

    पंकज – यह हर किसी की आवाज है जो कहता है हमेशा कि मैं लौटूंगा एक रोज… मैं लौटूंगा अपने गांव में अपनी ईजा के पास बैठूंगा… खाऊंगा उसके हाथ से रोटियां और थोड़ी गाली भी
    मैं बैठूंगा अपनी बौज्यू के पास… बात करूंगा उनसे और पूछूंगा कि पार के खेत में क्या लगाया है तुमने… सूअर ने कितना नुकसान कर दिया इस बार…
    मैं लौटूंगा अपने गांव में और देखूंगा आंगन में बरसते हुए बादलों को… मैं देखूंगा की ताई कितनी बूढी हो गई है…. मैं देखूंगा की चाची के चेहरे पर कितनी झुरिया आ गई हैं…. मैं देखूंगा अपने भतीजे को खेलते हुए आंगन में…. मैं लौटूंगा एक रोज
    शहर की इमारतों ने कैद किया है मुझे… लेकिन जिस रोज मेरी जेब इजाजत देगी मैं लौटूंगा गांव एक दिन।

    इसी नोट पर आपका बहुत-बहुत शुक्रिया।आपसे बात करके बहुत अच्छा लगा। आप जैसे लोग आकर के पहाड़ को एक अलग दिशा देते हैं तो यह देखकर नए यूथ को ऐसा लगता है कि हमें भी ऐसा ही कुछ करना है। इस बातचीत के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया। यह थे पंकज जीना जिनके जीवन में आज हमने झांकने की थोड़ी कोशिश की।

    पंकज – पप्पू दा के साथ मैंने एक चीज़ लिखी थी कि देखो यार यह डेढ़ क्लब पार्टी का चक्कर मुझे समझ में नहीं आता…. तुम्हें कभी वक्त बिताना हो तो मेरे साथ पहाड़ों पर चलना…. आंगन में बैठेंगे…. अलाव जलाएंगे और पप्पू दा के गाने सुनेंगे

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    पहाड़ों से पहाड़ों की बात। मीडिया के परिवर्तनकारी दौर में जमीनी हकीकत को उसके वास्तविक स्वरूप में सामने रखना एक चुनौती है। लेकिन तीरंदाज.कॉम इस प्रयास के साथ सामने आया है कि हम जमीनी कहानियों को सामने लाएंगे। पहाड़ों पर रहकर पहाड़ों की बात करेंगे. पहाड़ों की चुनौतियों, समस्याओं को जनता के सामने रखने का प्रयास करेंगे। उत्तराखंड में सबकुछ गलत ही हो रहा है, हम ऐसा नहीं मानते, हम वो सब भी दिखाएंगे जो एकल, सामूहिक प्रयासों से बेहतर हो रहा है। यह प्रयास उत्तराखंड की सही तस्वीर सामने रखने का है।

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