One State One election : उत्तराखंड से अपेक्षा बड़ी है। इसकी वजह भी है। छोटे से उत्तराखंड राज्य ने कई बड़े कदम उठाकर देश के सामने नजीर पेश की है। समान नागरिक संहिता (यूसीसी) का उदाहरण सबसे बड़ा है। अपने वायु, जलस्रोतों से संबंधित जानकारी सूचकांक के जरिये बताने के लिए जीईपी इंडेक्स लांच करके उसने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा है। इस तरह का प्रयोग करने वाला वह पहला राज्य बना है। उपलब्धियां तमाम और भी हैं। मगर इन सबके बीच लोकल बॉडी के चुनाव की बिगड़ी कहानी भी है, जो पीएम मोदी की ‘वन नेशन-वन इलेक्शन’ की सोच पर आगे बढ़ने से पहले दस बार सोचने को मजबूर करती है। हाल ये है कि त्रिस्तरीय पंचायतों के चुनाव उत्तराखंड में दो-दो बार कराने पड़ रहे हैं। एक बार हरिद्वार जिले में तो, दूसरी बार शेष 12 जिलों में। मिलता-जुलता हाल नगर निकायों का भी है। राज्य बनने के बाद औसतन हर दूसरे वर्ष में लोकल बॉडी में चुनाव का बिगुल बज रहा है। आचार संहिता लग रही है और विकास कार्य प्रभावित हो रहे हैं। राज्य की माली हालत पर इससे तगड़ी चोट पड़ना तो अपनी जगह पर है ही। इन स्थितियों के बीच, अहम सवाल एक ही है। क्या इस अव्यवस्था को दूर कर उत्तराखंड ‘वन स्टेट, वन इलेक्शन’ की सोच पर मजबूती से कदम आगे बढ़ा सकता है।
उत्तराखंड को दो हिस्सों में बांटता त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव
यह अजीब स्थिति है कि त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव पूरे उत्तराखंड को दो हिस्सों में बांटता है। वो भी बहुत पहले उत्तर प्रदेश के जमाने से। धर्मनगरी हरिद्वार क्षेत्र भले ही उत्तराखंड का प्रमुख हिस्सा हो, लेकिन पंचायत चुनाव के नजरिये से वह पूरे प्रदेश से कटा नजर आता है। शेष 12 जिलों में जब गांवों में मिनी सरकार के गठन के लिए सियासी गतिविधियां चरम पर रहती हैं, तब हरिद्वार जिले की पंचायतों में खामोशी पसरी होती है। यही हाल तब 12 जिलों की पंचायतों में रहता है, जबकि हरिद्वार जिले में चुनाव हो रहे होते हैं। हरिद्वार जिले के पिछले चुनाव वर्ष 2023 में हुए थे। इस हिसाब से उसके अगले चुनाव वर्ष 2027 में होने है। इसलिए इस जिले में पंचायतों की सियासत फिलहाल शांत है, लेकिन शेष 12 जिलों की स्थिति ऐसी नहीं है।
इन जिलों में वर्ष 2019 में पिछला चुनाव कराया गया था और अब इस वर्ष के आखिरी में यहां चुनाव कराए जाने हैं। जाहिर तौर पर सियासी गतिविधियां यहां चरम पर दिख रही हैं। चुनाव को लेकर यह विसंगति उत्तराखंड राज्य निर्माण के काफी समय पहले से ही है। भारी भरकम उत्तर प्रदेश में उत्तराखंड के पर्वतीय जिलों की खास भौगोलिक स्थिति को देखते हुए तत्कालीन सरकारों ने हमेशा इसके चुनाव अलग से ही कराए। नब्बे के दशक में उत्तराखंड आंदोलन की पृष्ठभूमि में राज्य नहीं तो चुनाव नहीं के आह्वान ने भी पंचायत चुनाव के सिस्टम को गड़बड़ा दिया। मगर अपेक्षाकृत बहुत छोटे उत्तराखंड राज्य के निर्माण के बाद भी यह परिपाटी बदली नहीं है।
नगर निकाय चुनावों का ढर्रा बिगड़ा
वर्ष 2018 के बाद से तो यहां नगर निकायों के चुनाव का भी ढर्रा बिगड़ गया है। इससे पहले, सब कुछ ठीक चल रहा था। वर्ष 2018 में सिर्फ 84 नगर निकायों के चुनाव ही कराए जा सके, जबकि तीन नगर निकायों रूड़की, श्रीनगर और बाजपुर में क्षेत्रों का परिसीमन और सीटों के आरक्षण का मसला इस कदर उलझा कि इन तीनों निकायों के चुनाव 2019 में एक वर्ष बाद संभव हो पाए।
अब एक बार फिर पंचायतों और नगर निकायों में चुनाव की तैयारी हो रही है। इस वर्ष के आखिरी में चुनाव होने हैं। मगर ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ की दिन-ब-दिन तेज होती चर्चा के बीच इन चुनावों में एकरूपता लाने का सवाल भी मौजू है। बड़ी दिक्कत त्रिस्तरीय पंचायतों के चुनाव को लेकर है, जिसमें समाधान का रास्ता प्रशस्त करने के लिए भगीरथ प्रयास के बगैर काम नहीं चलने वाला।
दरअसल, हरिद्वार और शेष 12 जिलों के चुनाव के बीच करीब दो वर्ष का फासला है, जिसे पाटना कतई आसान नहीं है। हाल ही में चले त्रिस्तरीय पंचायत प्रतिनिधियों के आंदोलन की रोशनी में कुछ हलचल जरूर मची थी। पंचायत प्रतिनिधियों ने कोविड-19 की वजह से पंचायतों के कामकाज प्रभावित होने का हवाला देते हुए कार्यकाल दो वर्ष बढ़ाने की सरकार से मांग की थी। खूब आंदोलन भी हुआ था। उनका यह भी कहना था कि वर्ष 2027 में प्रस्तावित हरिद्वार जिले के साथ ही शेष 12 जिलों के चुनाव कराए जाने चाहिए। पंचायत राज मंत्री सतपाल महाराज का भी पंचायत प्रतिनिधियों को समर्थन मिला था, लेकिन तुरंत ही यह बात भी साफ हो गई थी कि पंचायत राज अधिनियम की मौजूदा व्यवस्था में यह संभव नहीं है। एक साथ चुनाव कराने के लिए यदि हरिद्वार जिले की पंचायतों के निर्वाचित बोर्ड को दो वर्ष पहले भंग किया जाता है, तो मामले का तगड़ी कानूनी लड़ाई में फंसना तय है। ऐसे में कुछ समय प्रशासकों की नियुक्ति करके धीरे-धीरे चुनावों के बीच के फासले को पाटने का विकल्प भी सामने है, लेकिन इससे पंचायतों में विकास की गति प्रभावित होने का खतरा भी महसूस किया जाता है।
प्रशासकों की ज्यादा समय तक नियुक्ति हर किसी को असहज कर जाती है। कामकाज तो प्रभावित होते ही है, उस विचार पर भी असर पड़ता है, जिसमें पंचायतों को छोटी सरकार मानते हुए उनकी मजबूती को जरूरी बताया गया है। वैसे, यह किसी विडंबना से कम नहीं है कि अपना अलग राज्य और एक्ट होने के बावजूद पंचायतों के चुनावी सिस्टम को सुधारने की राह नहीं निकाली जा सकी है। उत्तराखंड राज्य ने अपने निर्माण के दौरान उत्तर प्रदेश पंचायत राज एक्ट-1947 को स्वीकार किया और उसी हिसाब से पंचायतों की व्यवस्थाएं संचालित की। उत्तर प्रदेश के जमाने से चली आ रही चुनावी विसंगतियों के वहीं के एक्ट से सुधरने की उम्मीदें कम थीं। मगर 16 वर्ष की मशक्कत के बाद जब उत्तराखंड ने वर्ष 2016 में अपना एक्ट तैयार किया, तो उसमें भी इस चुनावी विसंगति से निजात पाने का कोई उपाय नहीं था। उत्तराखंड के पंचायत राज एक्ट में वर्ष 2019 में भी संशोधन हुआ है, लेकिन चुनावी विसंगति संबोधित हुए बगैर रह गईं।
पंचायतों से इतर, जहां तक नगर निकायों में एक साथ चुनाव कराने का सवाल है, वहां के सिस्टम को बिगड़े अभी कम वक्त ही हुआ है और वहां का मामला पंचायतों की तरह पेचीदा भी नहीं है। नगर निकाय चुनाव में एक वर्ष की देरी ने भी निकायों के चुनाव के बीच के फासले को लगभग मिटा दिया है। दरअसल, तीन निकाय रूड़की, श्रीनगर व बाजपुर को छोड़कर बाकी सभी नगर निकायों के चुनाव पिछले वर्ष 2023 के आखिरी में कराए जाने थे और इन तीनों निकायों के चुनाव इस वर्ष के आखिरी में होने थे। इन निकायों के चुनाव के बीच साल भर करीब का फासला था, लेकिन चुनाव में देरी के कारण यह फासला काफी हद तक मिट गया है।
अब इन निकायों के चुनाव एक साथ कराए जाने लायक स्थिति बन रही है। हालांकि पिछले दिनों जिस तरह से कई नए नगर निकायों की घोषणा हुई है और पुराने निकायों का दर्जा बढ़ा है, उसमें संबंधित जगहों पर चुनाव की क्या स्थिति बनती है, यह साफ होना बाकी है। खास तौर पर अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ को नगर पालिका परिषद से नगर निगम में अपग्रेड कर दिए जाने का निकाय चुनाव पर अब किस तरह से असर पड़ता है, यह देखना महत्वपूर्ण हो गया है।
अपने दूसरे कार्यकाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब मजबूती से वन नेशन, वन इलेक्शन की चर्चा शुरू की थी, तो पूरे देश में इसका स्वागत हुआ था। उत्तराखंड के सीएम पुष्कर सिंह धामी ने इसे देश हित में बताया था। मोदी सरकार पार्ट-3 में अब एक बार फिर से वन नेशन, वन इलेक्शन की गूंज उठने लगी है। ऐसे में उत्तराखंड के लिए सबसे बड़ी चुनौती लोकल बॉडी में चुनावी सिस्टम में एकरूपता लाने की है। पहले चरण में यह बेहद जरूरी है कि त्रिस्तरीय पंचायत और नगर निकाय के बिखरे-बिखरे चुनाव को समेटा जाए। वन नेशन, वन इलेक्शन का समर्थन करते हुए लोकल बॉडी के कई-कई चुनाव देखना किसी मजाक से कम नहीं होगा।
- चुनाव व्यवस्था में खोट, पड़ रही चोट
0 करीब 80 हजार करोड़ के कर्ज तले दबे उत्तराखंड में पंचायत और निकाय के अलग-अलग चुनाव से और दिक्कतें बढ़ रही है। एक बार के पंचायत या निकाय चुनाव कराने में 20 से 25 करोड़ रुपये का अनुमानित खर्चा आता है। - हांफती मशीनरी, कांपता विकास
-अलग-अलग चुनाव होने के कारण बार-बार आचार संहिता लागू होती है, जिससे विकास कार्यों पर ब्रेक लगता है। इसके अलावा, सरकारी मशीनरी पर काम का दबाव कई गुना बढ़ जाता है और अन्य जरूरी कार्य प्रभावित हो रहे हैं। - चुनाव का मेला, बड़ा झमेला
-उत्तराखंड राज्य बनने के बाद त्रिस्तरीय पंचायत और नगर निकाय के 13 बार चुनाव हुए हैं। औसतन हर दूसरे वर्ष त्रिस्तरीय पंचायत या फिर नगर निकाय के चुनाव हो रहे हैं, जो कि राज्य के विकास के लिहाज से सहीं नहीं है। - कब-कब हुए त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव
-उत्तराखंड राज्य बनने के बाद सबसे पहले वर्ष 2003 में 12 जिलों के त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव हुए। इसके बाद, वर्ष 2008, 2014 और 2019 में 12 जिलों के चुनाव कराए गए। हरिद्वार जिले के पंचायत चुनाव वर्ष 2005, 2011, 2015-16 और 2022 में कराए गए। - कब-कब हुए नगर निकाय के चुनाव
राज्य गठन के बाद सबसे पहले नगर निकाय चुनाव वर्ष 2003 में हुए। इसके बाद, वर्ष 2008 व 2013 चुनाव में एकरूपता रही। वर्ष 2018 में तीन निकायों को छोड़कर शेष 84 निकायों के चुनाव हुए। वर्ष 2019 में श्रीनगर, रूड़की व बाजपुर के चुनाव अलग से कराए गए। - राज्य निर्वाचन आयोग पर दारोमदार
त्रिस्तरीय पंचायत और नगर निकाय चुनाव कराने का दारोमदार राज्य निर्वाचन आयोग पर है। हालांकि अपने किसी भी चुनाव कार्यक्रम की स्वीकृति के लिए उसकी राज्य सरकार पर निर्भरता है। भले ही वह एक संवैधानिक संस्था है, लेकिन फिर भी चुनाव को लेकर बगैर राज्य सरकार की सहमति के वह एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाती है। चुनाव कार्यक्रम का प्रस्ताव राज्य निर्वाचन आयोग तैयार करके उसे स्वीकृति के लिए राज्य सरकार को भेजता है। यदि उस पर सरकार की स्वीकृति नहीं मिलती, तो यह व्यवस्था नहीं है कि आयोग अपने स्तर पर ही चुनाव कार्यक्रम की घोषणा कर दे। वो घोषणा तब ही करता है, जब राज्य सरकार से हरी झंडी मिल जाती है।
- त्रिस्तरीय पंचायतों में प्रतिनिधियों की संख्या
ग्राम पंचायत सदस्य 59,294
ग्राम प्रधान 7803
उपप्रधान 7803
क्षेत्र पंचायत सदस्य 3206
जिला पंचायत सदस्य 400
क्षेत्र पंचायत प्रमुख 95
ज्येष्ठ उप प्रमुख क्षेत्र पंचायत 95
कनिष्ठ उप प्रमुख क्षेत्र पंचायत 95
जिला पंचायत अध्यक्ष 13
जिला पंचायत उपाध्यक्ष 13 - स्थानीय निकायों में प्रतिनिधियों की संख्या
मेयर 09
नगर पालिका अध्यक्ष 45
नगर पंचायत अध्यक्ष 48
नगर निगम सदस्य 460
नगर पालिका सदस्य 471
नगर पंचायत सदस्य 302
प्रयोग छोटा, मौका बड़ा
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के लिए यह प्रयोग एक बड़े अवसर में तब्दील हो सकता है। अगर वह पीएम मोदी के वन नेशन, वन इलेक्शन के सपने को छोटे प्रयोग के तौर पर अमल में लाकर ‘वन स्टेट, वन इलेक्शन’ जैसी पहल करते हैं, तो यह उन्हें उत्तराखंड के लोकल बॉडी चुनावों की सबसे बड़ी विसंगति दूर करने वाले मजबूत सीएम के तौर पर राज्य के इतिहास में हमेशा के लिए जगह दिला देगा। साथ ही केंद्रीय नेतृत्व की नजर में वह एक ड्रीम टॉस्क अचीवर सीएम के तौर पर आ जाएंगे।