भू-कानून, मूल निवास : भू-कानून समन्वय समिति की ओर से गैरसैंण के रामलीला मैदान पर आयोजित महारैली हजारों की संख्या में लोग जमा हुए। लोग जमकर नारेबाजी कर रहे हैं। बतादें कि उत्तराखंड में मूल निवास और भू-कानून व गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाने की मांग को लेकर आज भू-कानून समन्वय समिति ने महारैली का आयोजन किया। समिति के कार्यकर्ताओं का कहना है कि नौकरी, रोजगार, जल, जंगल, जमीन पर बाहरी लोगों का कब्जा हो गया हैं। प्रदेश में बाहरी लोगों की संख्या 40 लाख से अधिक हो चुकी है।
समिति के संयोजक मोहित डिमरी ने कहा कि प्रदेश में नौकरी, रोजगार, जल, जंगल, जमीन पर बाहरी लोगों का कब्जा हो गया हैं। प्रदेश में बाहरी लोगों की संख्या 40 लाख से अधिक हो चुकी है। ऐसे में स्थानीय लोगों का हक मारा जा रहा है। इन सबके बीच पूर्व सीएम निशंक पोखरियाल ने भी सशक्त भू-कानून की वकालत की है। उनका कहना है कि बाकी राज्यों से हमारा राज्य अलग है। इसलिए यहां पर मजबूत लैंड-लॉ की जरूरत है। यहां के लोगों की चिंताएं अलग हैं। सरकार को इस दिशा में ठोस कदम उठाने चाहिए।
उत्तराखंड एकमात्र हिमालयी राज्य है, जहां राज्य के बाहर के लोग पर्वतीय क्षेत्रों की कृषि भूमि, गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए खरीद सकते हैं। वर्ष 2000 में राज्य बनने के बाद से अब तक भूमि से जुड़े कानून में कई बदलाव किए गए हैं और उद्योगों का हवाला देकर भू खरीद प्रक्रिया को आसान बनाया गया है। लोगों में गुस्सा इस बात पर है कि सशक्त भू कानून नहीं होने की वजह से राज्य की जमीन को राज्य से बाहर के लोग बड़े पैमाने पर खरीद रहे हैं और राज्य के संसाधन पर बाहरी लोग हावी हो रहे हैं, जबकि यहां के मूल निवासी और भूमिधर अब भूमिहीन हो रहे हैं। इसका असर पर्वतीय राज्य की संस्कृति, परंपरा, अस्मिता और पहचान पर पड़ रहा है। देश के कई राज्यों में कृषि भूमि की खरीद से जुड़े सख्त नियम हैं। पडोसी राज्य हिमाचल प्रदेश में भी कृषि भूमि के गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए खरीद बिक्री पर रोक है।
राज्य के कुल क्षेत्रफल (56.72 लाख हेक्टेअर) का अधिकांश क्षेत्र वन (कुल भौगोलिक क्षेत्र का 63.41%) और बंजर भूमि के तहत आता है। जबकि कृषि योग्य भूमि बेहद सीमित, 7.41 लाख हेक्टेयर (लगभग 14%) है। इतिहासकार और उत्तराखंड के मामलों के जानकार शेखर पाठक के मुताबिक,आजादी के बाद से अब तक राज्य में एकमात्र भूमि बंदोबस्त 1960 से 1964 के बीच हुआ है। इन 50-60 सालों में कितनी कृषि योग्य भूमि का इस्तेमाल गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए किया गया है, इसके आंकड़े न तो सरकार के पास हैं और न ही हमारे पास। राज्य में विकास से जुड़े कार्यों, सड़क, रेल, हैलीपैड समेत बुनियादी ढांचे का विस्तार, पर्यटन का विस्तार, उद्योग का विस्तार, भूस्खलन जैसी आपदाओं में जमीन का नुकसान, इस सब में कितनी कृषि योग्य भूमि चली गई, इसका ब्यौरा कहां है? जो जमीन दस्तावेजों में दर्ज है, वो है भी, या नहीं, इसकी जानकारी भी नहीं।
आवाज दो हम एक हैं। जब आंदोलन की अगुवाई महिलाएं करने लगें तो समझ लीजिए मंजिल अब दूर नहीं। #भू_कानून #मूलनिवास_1950 #गैरसैंण_महारैली @ukmoolniwas #Uttarakhand @BhupendraMaa pic.twitter.com/lxr6MlorJY
— Arjun Rawat (@teerandajarjun) September 1, 2024
भू कानूनों में बदलाव
राज्य में बाहरी लोगों द्वारा भूमि खरीद सीमित करने के लिए वर्ष 2003 में तत्कालीन एनडी तिवारी सरकार ने उत्तर प्रदेश के कानून में संशोधन किया और राज्य का अपना भूमि कानून अस्तित्व में आया। इस संशोधन में बाहरी लोगों को कृषि भूमि की खरीद 500 वर्ग मीटर तक सीमित की गई। वर्ष 2008 में तत्कालीन मुख्यमंत्री बीसी खंडूरी ने संशोधन कर भूमि खरीद की सीमा घटाकर 250 वर्ग मीटर की।बड़ा बदलाव 2018 में भाजपा सरकार के रहते हुए लिया गया। जब जेडएएलआर एक्ट में संशोधन कर, उद्योग स्थापित करने के उद्देश्य से पहाड़ में जमीन खरीदने की अधिकतम सीमा और किसान होने की बाध्यता खत्म की गई। साथ ही, कृषि भूमि का भू-उपयोग बदलना आसान कर दिया। पहले पर्वतीय फिर मैदानी क्षेत्र भी इसमें शामिल किए गए। उस समय सदन में एक मात्र विधायक मनोज रावत ने इसका विरोध किया था। मीडिया से बातचीत में पूर्व कांग्रेस विधायक मनोज रावत कहते हैं , सरकार उद्योगों के आने का हवाला दे रही थी। जबकि हर जिले में छोटे-छोटे औद्योगिक क्षेत्र बनाए गए हैं लेकिन आज तक इनमें उद्योग नहीं लगे।
हरिद्वार, उधमसिंह नगर और पौड़ी के यमकेश्वर के कुछ क्षेत्रों में जमीनों की खरीद कर लैंडबैंक बनाया गया है। गढ़वाल में श्रीनगर से आगे अलकनंदा और मंदाकिनी घाटी, बद्रीनाथ, केदारनाथ की ओर व्यावसायिक फायदे वाली सारी जमीन बिक चुकी हैं। ज्यादातर होटल और रिसॉर्ट के लिए है। 2018 के संशोधन में व्यवस्था की गई थी कि खरीदी गई भूमि का इस्तेमाल निर्धारित उद्देश्य के लिए नहीं किया जाता या किसी अन्य को बेचा जाता है तो वह राज्य सरकार में निहित हो जाएगी। लेकिन मौजूदा सरकार ने सिंगल विंडो एक्ट लागू किया। इसके तहत खरीदी गई कृषि भूमि को गैर कृषि घोषित करने के बाद वह राज्य सरकार में निहित नहीं की जा सकती।धामी सरकार ने भी एक तरफ कानून में ढील दी, वहीं भू-सुधार के लिए एक समिति भी गठित की। इस समिति ने वर्ष 2022 में अपनी रिपोर्ट सौंपी। जिसमें सख्त भू कानून लाने के लिए सुझाव दिए गए। लेकिन इस रिपोर्ट के बाद अब तक कुछ बदला नहीं है।
क्या है मूल निवास प्रमाण पत्र
उत्तराखंड में 1950 के मूल निवास की समय सीमा को लागू करने की मांग की जा रही है। देश में मूल निवास यानी अधिवास को लेकर साल 1950 में प्रेसीडेंशियल नोटिफिकेशन जारी हुआ था। इसके मुताबिक देश का संविधान लागू होने के साथ वर्ष 1950 में जो व्यक्ति जिस राज्य का निवासी था, वो उसी राज्य का मूल निवासी होगा। वर्ष 1961 में तत्कालीन राष्ट्रपति ने दोबारा नोटिफिकेशन के जरिये ये स्पष्ट किया था। इसी आधार पर उनके लिए आरक्षण और अन्य योजनाएं चलाई गई । पहाड़ के लोगों के हक और हितों की रक्षा के लिए ही अलग राज्य की मांग की गई थी। उत्तराखंड बनने के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी की अगुवाई में बनी भाजपा सरकार ने राज्य में मूल निवास और स्थायी निवास को एक मानते हुए इसकी कट ऑफ डेट वर्ष 1985 तय कर दी। जबकि पूरे देश में यह वर्ष 1950 है। इसके बाद से ही राज्य में स्थायी निवास की व्यवस्था कार्य करने लगी। लेकिन मूल निवास व्यवस्था लागू करने की मांग बनी रही। वर्ष 2010 में मूल निवास संबंधी मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट ने देश में एक ही अधिवास व्यवस्था कायम रखते हुए, उत्तराखंड में 1950 के प्रेसीडेंशियल नोटिफिकेशन को मान्य किया। लेकिन वर्ष 2012 में इस मामले से जुड़ी एक याचिका पर सुनवाई करते हुए उत्तराखंड हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया कि 9 नवंबर 2000 यानी राज्य गठन के दिन से जो भी व्यक्ति उत्तराखंड की सीमा में रह रहा है, उसे यहां का मूल निवासी माना जाएगा। तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने अदालत के इस आदेश को स्वीकार कर लिया और इस पर आगे कोई अपील नहीं की। झारखंड, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में भी मूल निवास का मुद्दा उठ चुका है। इन राज्यों में भी 1950 को मूल निवास का आधार वर्ष माना गया है और इसी आधार पर जाति प्रमाण पत्र जारी किए जाते हैं।