उत्तराखंड में Lok Sabha Election 2024 में कम मतदान से तमाम सियासी पंडित भी हैरान हैं। देवभूमि में 55.89 फीसदी वोटिंग हुई है। चुनाव आयोग की कोशिश थी कि इस बार मतदान प्रतिशत 75 के करीब पहुंचाया जाए। इसके लिए हर तरह से कोशिशें हुईं लेकिन रिकॉर्ड बनाना तो दूर इस दफा 2019 के लोकसभा चुनावों से करीब पांच प्रतिशत से कम मतदान हुआ। Low Voter Turnout की एक बड़ी वजह चुनाव की नीरसता भी है। कम मतदान का एक कारण यह भी माना जा सकता है कि कई इलाकों में तो नेताजी प्रचार करने तक नहीं पहुंचे। जो चुनावी सरगर्मी और माहौल सोशल मीडिया पर दिखा, जमीन पर वो गहमागहमी नहीं दिखी। कुछ चुनावी सभाओं की औपचारिकता को छोड़ ऐसा कुछ नहीं हुआ जिसका उल्लेख किया जाए। कुछ सीटों पर विपक्षी उम्मीदवार तो मुखर दिखे लेकिन उनकी पार्टियों की धड़ेबाजी साफ नजर आई।
तीरंदाज.कॉम ने कुछ दिनों पहले प्रदेश के जाने माने तीन वरिष्ठ पत्रकार पवन लालचंद, गजेंद्र सिंह रावत और गुणानंद जखमोला से बातचीत की थी। तब तीनों पत्रकारों ने एक सुर में कहा था कि Lok Sabha Election 2024 नीरस लग रहा है। जनप्रतिनिधियों के प्रति नाराजगी है लेकिन विपक्ष उसे कैश नहीं करा पा रहा है। आखिरकार… परिणाम कम मतदान के रूप में सबके सामने आ ही गया।
उत्तराखंड के पांचों लोकसभा क्षेत्रों का दौरा करने के अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूं, इस चुनाव में पहाड़ के मुद्दे पूरी तरह गायब रहे। न गैरसैंण पर कहीं कुछ बोला गया, न रोजगार और अग्निवीर स्कीम पर ठोस चर्चा हुई। लोगों की समस्याओं पर किसी ने बात नहीं की। सिर्फ भावनात्मक मुद्दों को सुलगाने की कोशिश की गई। कुछेक जगह रस्मी तौर पर मुद्दे तो उठे लेकिन जितनी ताकत उन मुद्दों को उठाने में लगनी चाहिए थी, वह नहीं दिखी। सत्ता पक्ष अति आत्मविश्वास में नजर आया। प्रत्याशी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे के भरोसे बैठे रहे। जनप्रतिनिधियों का जनता के प्रति रवैया उदासीन रहा, इस कारण जनता भी नाराज दिखी। लोगों को लगने लगा है कि उनकी तो कहीं बात ही नहीं की जा रही। लगभग सभी सीटों पर कम मतदान इस बात की तस्दीक कर रहा है। पहले कार्यकर्ता प्रचार खत्म हो जाने के बाद घर-घर जाकर मतदान की अपील करते थे। इस बार ये प्रैक्टिस भी नहीं दिखी। पूरा फोकस पार्टी ज्वाइन कराने और सोशल मीडिया पर माहौल बनाने में रहा। विपक्षी दलों के बड़े नेताओं की चुनाव से दूरी और रस्म अदायगी कई गंभीर सवाल खड़े करती है। पौड़ी और टिहरी दो ऐसी लोकसभा सीटें हैं, जहां विपक्ष लड़ाई लड़ता दिखा लेकिन इसकी वजह पार्टी नहीं प्रत्याशी रहा। ऐसी कोशिशों पर कैडर और जनता दोनों की उदासीनता पानी फेर देती है।
#Election2024 | हमारी फसल को जानवरों से नुकसान हो रहा है। नेता हमारी सुनते नहीं हैं, हमें तारबाड़ नहीं देंगे तो हम वोट भी नहीं देंगे। अल्मोड़ा के चौखुटिया के खत्री गांव से @teerandajlive की ग्राउंड रिपोर्ट आज शाम यू-ट्यूब चैनल पर। pic.twitter.com/GFuTliC7K9
— Arjun Rawat (@teerandajarjun) April 6, 2024
#Fullvideo | हर ओर चुनाव का शोर लेकिन पहाड़ के असल मुद्दे गायब! अल्मोड़ा के चौखुटिया के चौकोड़ी गांव से @teerandajlive की #groundreport | #Elections2024 pic.twitter.com/D0cUeo0tqY
— Arjun Rawat (@teerandajarjun) March 19, 2024
‘ये गांव तब तक है, जब तक हम जिंदा हैं…फिर कोई नहीं रहेगा’#uttarakhand | पौड़ी का वो गांव जहां रहती हैं सिर्फ दो बुजुर्ग महिलाएं | @teerandajlive की #groundreport@rajusajwan @anuragemrc @girish_joshig @richa04richa @AdvaitaKala @dreamer_Vikasj @imdineshkandpal @arunjuyal… pic.twitter.com/4jA27VWhG0
— Arjun Rawat (@teerandajarjun) February 20, 2024
@teerandajlive की #groundreport उस गांव से जिसके नाम पर पड़ा गैरसैंण l आखिर प्राथमिकता में क्यों नहीं है #गैरसैंण ? यूं ही तो ठंड नहीं लग रही माननीयों को। @anuragemrc @arunjuyal @KishorJoshi02 @dreamer_Vikasj @girish_joshig pic.twitter.com/EeL4TYStGr
— Arjun Rawat (@teerandajarjun) February 17, 2024
गर्मी, शादियों का सीजन, बहिष्कार भी बना वजह
यह बात सही है कि पिछले चुनाव के मुकाबले इस बार गर्मी ज्यादा थी। साथ ही शादियों का सीजन भी चल रहा है। लोग बाहर थे। कुछ जगहों पर मतदान बहिष्कार की खबरें भी आईं। खैर, कारण कुछ भी हो… देवभूमि लोकतंत्र के सबसे बड़े पर्व में पहले दर्जे से पास नहीं हो पाई। साल 2004 के आम चुनाव में उत्तराखंड में 48.07 प्रतिशत मतदान हुआ था। साल 2009 में यह आंकड़ा बढ़कर 53.43 प्रतिशत तक पहुंचा। 2014 में एक लंबी छलांग के साथ मतदान का प्रतिशत 61.67 प्रतिशत पहुंच गया। 2019 में भी वोटिंग 61.50 प्रतिशत के आंकड़े के पास रहा। लेकिन अब मतदान में आई गिरावट ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं।
अपने नेताओं से दूरी और मोदी-योगी से करीबी
यह कैसी विडंबना है कि जो पहाड़ गोविंद वल्लभ पंत, हेमवती नंदन बहुगुणा, एनडी तिवारी, योगी आदित्यनाथ जैसे कई कद्दावर राजनेताओं की उर्वरा भूमि रहा, वो आज ऐसे चेहरे का मोहताज नजर आ रहा है जिसकी सर्वव्यापी छवि हो। नेता दोनों प्रमुख दलों में कई हैं लेकिन राज्य का सर्वमान्य चेहरा कोई नजर नहीं आता। यह उस दौर में हो रहा है जब तमाम राज्यों में लोकल लीडरशिप नए उभार से गुजर रही है। राज्य में सत्ताधारी दल को पीएम नरेंद्र मोदी और यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का आसरा रहता है, कांग्रेस राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के भरोसे। कोई ऐसा स्थानीय नेता नहीं है जो अपने दम पर इस पूरे पहाड़ी सूबे का चुनाव सेटल करने का दम रखता हो।
55 प्रत्याशियों का भाग्य ईवीएम में कैद
उत्तराखंड की पांचों लोकसभा सीटों पर मतदान होने के साथ ही 55 प्रत्याशियों का भविष्य इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) में कैद हो गया है। अपनी-अपनी जीत की उम्मीद में सभी अब अगले 45 दिन तक परिणाम के इंतजार में करेंगे। अब चार जून को मतगणना होगी।
कम मतदान का किसको होगा फायदा
आमतौर पर यह धारणा रही है कि कम मतदान का फायदा अधिकतर सत्तारूढ़ दल को ही होता है, क्योंकि सत्ता विरोधी लहर तभी दिखती है जब वोटिंग में अप्रत्याशित उछाल दिखे। 2014 और 2019 के चुनावों में पूरे देश में मतदान प्रतिशत बढ़ा था। इस बार उत्तराखंड में कम मतदान प्रतिशत से किसे लाभ होगा, किसे नुकसान यह तो चार जून को ही पता चलेगा। लेकिन लोकतंत्र के इस पर्व में जनता की कम भागीदारी अच्छा संकेत नहीं है।