ले मशालें चल पड़े हैं, लोग मेरे गांव के, अब अंधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गांव के
Khatima-Mussoorie गोलीकांड : इन पंक्तियों में ऐसी ताकत थी कि लाखों लोग सड़कों पर उतर आए थे। उस दौर में हर किसी की जुबान पर बस यही लाइन रहती थी। बच्चे, युवा, बुजुर्ग तक के होठों पर यही नारा रहता था। वह भी क्या समय था। लोग नए राज्य के लिए मतवाले हो उठे थे। आज के ठीक तीस साल पहले एक सितंबर 1994 में खटीमा में एक शांति रैली पर गोलियां चलाई गईं। यहां पर आठ आंदोलनकारी शहीद हुए। इसके ठीक एक दिन बाद दो सितंबर को खटीमा गोलीकांड के विरोध में मसूरी में एक रैली निकाली जा रही थी इसपर भी गोलियां चलाई गईं। यहां पर छह आंदोलनकारी शहीद हुए। इसके बाद तो पहाड़ियों ने मानो जिद पकड़ ली कि अब हम नया राज्य लेकर ही रहेंगे। उत्तराखंड में सांस ले रहे हर एक शख्स इन 14 बलिदानियों को कर्जदार है जिन्होंने नए राज्य के लिए हुए आंदोलन में अपने प्राणों की आहूति दी है।
आइए इस मौके पर इतिहास के पन्ने उलटते हैं…
एक सितंबर 1994 को खटीमा में रोज की तरह सब कुछ सामान्य था। बाजार में चहल पहल शुरू हो गई थी। दस बजते-बजते पूरा बाजार खुल चुका था। तहसील के बाहर वकील अपनी-अपनी टेबल लगाकर बैठ चुके थे। एक सितंबर को सरकार की गुंडागर्दी के विरोध में प्रदर्शन किया जाना था सो करीब आठ-साढ़े आठ बजे से ही रामलीला मैदान में लोगों ने जुटना शुरू किया था। साढ़े दस होते-होते दस हजार लोगों की भीड़ जमा हो चुकी थी। इसमें युवा, पुरुष, महिलायें और पूर्व सैनिक शामिल थे। महिलाओं ने अपनी कमर में परंपरा के अनुसार दरांती बांध रखी थी तो पूर्व सैनिकों में कुछ के पास उनके लाइसेंस वाले हथियार थे। रामलीला मैदान से सरकार का विरोध प्रदर्शन शुरू हुआ। भीड़ में तेज आवाज में सरकार विरोधी नारे लगते। सितारागंज रोड से होता हुआ जुलूस तहसील की ओर बढ़ा। यह जुलूस दो बार थाने के सामने होकर गुजरा था। पहली बार में जन जुलूस थाने के आगे से निकला तो युवाओं ने खूब जोर-शोर से नारेबाजी की।
#खटीमा_गोलीकांड के अमर शहीदों को नमन। एक सवाल अपने आप से, क्या उन आंदोलनकारियों के सपनों का राज्य हम बना पाए हैं। #Uttarakhand pic.twitter.com/C7QiOMtZIS
— Arjun Rawat (@teerandajarjun) September 1, 2024
जुलूस का नेतृत्व कर रहे पूर्व सैनिकों को जब लगा कि युवा उत्तेजित हो रहे हैं तो उन्होंने भीड़ को संभाल लिया। इस तरह आंदोलन पूरी तरह शांतिपूर्ण तरीके से चल रहा था। दूसरी बार जब जुलूस के आगे के लोग तहसील के पास पहुंच गये थे और पीछे के लोग थाने के सामने थे, तभी थाने की ओर से पथराव किया गया और कुछ ही देर में आस-पास के घरों से भी पथराव शुरू हो गया। इसके बाद पुलिस ने लोगों पर बिना चेतावनी गोलियां चला दीं। अगले डेढ़ घंटे तक पुलिस रुक-रूककर गोली चलाती रही। अचानक हुई इस गोलीबारी से भीड़ में भगदड़ मच गई। जिसमें आठ लोगों की मृत्यु हो गयी और सैकड़ों घायल हो गए। पुलिस की गोलियों से कुछ लोगों की मृत्यु हो गई तो पुलिस ने चार लाशों को उठाकर थाने के पीछे एलआईयू कार्यालय की एक कोठरी में छुपा दिया। देर रात के अंधेरे में चारों शवों को शारदा नदी में फेंक दिया। घटना स्थल से बराबद अन्य चार शवों के आधार पर पुलिस ने अगले कई सालों तक मारे गये लोगों की संख्या केवल चार बताई।
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पुलिस ने लगभग साठ राउंड गोली चलाई। पुलिसवालों ने तहसील में जाकर वकीलों के टेबल जला दिए और वहां जमकर तोड़फोड़ की। पुलिस ने अपने काम को सही ठहराने के लिए तर्क दिया कि पहले आंदोलनकारियों की ओर से गोली चलाने के कारण उन्हें जवाबी कारवाई करनी पड़ी। अपने तर्क को मजबूती देने के लिए पुलिस ने महिलाओं द्वारा कमर में दरांती का खूंसा जाना और पूर्व सैनिकों का लाइसेंस वाली बंदूक का अपने पास रखे होने का बहाना दिया। आज भी महिलाओं की दरांती और पूर्व सैनिकों की लाइसेंस वाली बंदूक को खटीमा गोलीकांड में गोली चलाने के कारण के रूप में पुलिस गिनाया करती है। खटीमा गोलीकांड में एक भी पुलिस वाले के शरीर में न तो किसी गोली के निशान मिले ना ही दरांती के।
खटीमा गोलीकांड में शहीद आंदोलनकारी
प्रताप सिंह
सलीम अहमद
भगवान सिंह
धर्मानन्द भट्ट
गोपीचंद
परमजीत सिंह
रामपाल
भुवन सिंह
(शंकर सिंह भाटिया की किताब उत्तराखंड राज्य आंदोलन का इतिहास के आधार पर)
मसूरी गोलीकांड
खटीमा गोलीकांड से पूरा पहाड़ आक्रोशित था। नया राज्य बनाने की मांग अब लोग किसी भी कीमत पर पूरा करना चाहते थे। दो सितंबर को खटीमा गोलीकांड के विरोध में जगह-जगह रैली-विरोध प्रदर्शन प्रस्तावित था। शुक्रवार का दिन था। उत्तराखंड राज्य प्राप्ति आंदोलन अन्य दिनों की तरह चल रहा था। मसूरी के झूलाघर के समीप संयुक्त संघर्ष समिति के कार्यालय में आंदोलनकारी एक सितंबर को ऊधमसिंह नगर खटीमा में हुए गोलीकांड के विरोध में क्रमिक अनशन कर रहे थे। इस दौरान पीएसी व पुलिस ने आंदोलनकारियों पर बिना पूर्व चेतावनी के अकारण ही गोलियां बरसानी शुरू कर दीं। इस गोलीकांड में मसूरी के छह आंदोलनकारी बलिदान हुए थे और दर्जनों घायल हुए थे। वहीं, एक पुलिस उपाधीक्षक की भी मौत हो गई थी।
रात में ही बदल दिया था मसूरी थानाध्यक्ष को
एक सितंबर 1994 को ऊधमसिंह नगर के खटीमा में गोलीकांड हुआ था। इसके बाद रात में ही मसूरी थानाध्यक्ष को बदल दिया गया था। यहां झूलाघर स्थित संयुक्त संघर्ष समिति कार्यालय के चारों ओर पीएसी व पुलिस के जवान कर दिए थे।
मसूरी गोलीकांड में शहीद आंदोलनकारी
- बलबीर सिंह नेगी
- धनपत सिंह
- राय सिंह बंगारी
- मदनमोहन ममगाईं
- बेलमती चौहान
- हंसा धनाई
वर्षों तक झेलने पड़े थे मुकदमे
इसके बाद पुलिस ने आंदोलनकारियों की धरपकड़ शुरू की। इससे पूरे शहर में अफरातफरी मच गई। क्रमिक अनशन पर बैठे पांच आंदोलनकारियों को पुलिस ने एक सितंबर की शाम को ही गिरफ्तार कर लिया था। जिनको अन्य गिरफ्तार आंदोलनकारियों के साथ में पुलिस लाइन देहरादून भेजा गया। वहां से उन्हें बरेली सेंट्रल जेल भेज दिया गया था। वर्षों तक कई आंदोलनकारियों को सीबीआइ के मुकदमे झेलने पड़े थे। खटीमा गोलीकांड और मसूरी गोलीकांड के विरोध में उत्तराखंड से लेकर दिल्ली तक कई सार्वजनिक सभाएं आयोजित की गईं। इन शहीदों के खून से ही 2000 में उत्तराखंड को अलग राज्य का दर्जा मिला है।