Independence Day Special: …2047 तक विकसित भारत का लक्ष्य
Independence Day - स्वतंत्रता लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण पहलू है इसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी है। स्वतंत्रता के साथ दायित्व भी होता है। बिना दायित्व की स्वतंत्रता पागलपन है। अभिव्यक्ति का प्रदर्शन करने से पहले अभिव्यक्ति के दर्शन को समझना महत्वपूर्ण है।
स्वाधीनता को स्वतंत्रता में बदलें – हमने स्वाधीनता संघर्षों से पाई है। स्वाधीनता में ब्रिटिश शासकों की जगह भारतीय (अंग्रेज) शासक बन गए। शासन में भारतीयता कहीं दिखाई नहीं देती। भारत रत्न भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व. अटल बिहारी वाजपेयी की एक कविता है –
पंद्रह अगस्त का दिन कहता, आजादी अभी अधूरी है,
सपने सच होने बाकी हैं, राखी की शपथ न पूरी है।….
अतुल्य उत्तराखंड के लिए पार्थसारथि थपलियाल
लेखक पार्थसारथि थपलियाल
Independence Day – 14/15 अगस्त 1947 की मध्य रात्रि को ब्रिटिश सरकार के भारतीय गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन ने भारत की सत्ता तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के हाथों में सौंपी। भारतीय संप्रभुता के प्रतीक तिरंगा ध्वजारोहण किया गया। भारत स्वाधीन हुआ। उस समारोह में नेहरू जी ने अपने भाषण में कहा था, ‘आधी रात के समय, जब दुनिया सो रही है, भारत जीवन और स्वतंत्रता के लिए जाग रहा है।…’ 1947 से अब तक हम प्रतिवर्ष 15 अगस्त को स्वाधीनता दिवस के नाम से मनाते हैं। क्या स्वाधीनता और स्वतंत्रता पर्यायवाची शब्द हैं? नहीं। स्वाधीनता पराधीनता से मुक्ति है, जबकि स्वतंत्रता निर्भयता की सोच बढ़ाती है। इस सोच में आत्मनिर्भता, स्वावलंबन भी शामिल है। गरीबी, बेरोजगारी, संसाधनों का अभाव, बेबसी यदि है तो स्वतंत्रता नहीं मानी जा सकती है। यह भारत है, जो सदैव ज्ञान में लीन रहता है। इसके बारे में विष्णुपुराण और पद्मपुराण में एक श्लोक है-
उत्तरं यत् समूद्रस्य हिमाद्रिशचैव दक्षिणम्।
वर्षों तद् भारतम् नाम भारती यंत्र संतति:।।
अर्थात् समुद्र के उत्तर में और हिमालय के दक्षिण में जो देश है, उसे भारत कहते हैं तथा उसकी संतानों (नागरिकों) को भारती कहते हैं। इस परिभाषा में क्षेत्र को बताया गया है, राज्यों को नहीं। यह सांस्कृतिक भारत है। इसी से भारतीयता उपजी है।
मोहनदास करमचंद गांधी 1915 में अफ्रीका से भारत लौटे। बाल गंगाधर तिलक, गोपालकृष्ण गोखले आदि से प्रेरणा लेकर वे स्वाधीनता आंदोलन में उतरे और अहिंसात्मक आंदोलन चलाने लगे। उस दौर में गांधी से भिन्न दृष्टिकोण रखने वाले भगत सिंह, सुखदेव, बटुकेश्वर दत्त, राजगुरु और चंद्रशेखर आजाद। वे युवा महापुरुष थे जिन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला दी। ऐसे लोगों में से ही एक महापुरुष नेताजी सुभाष चंद्र बोस भी थे। जिन्होंने आज़ाद हिंद फौज की स्थापना की और अंग्रेजों को भारत छोड़ने को विवश कर दिया था।
वह कांग्रेस और थी जिसने स्वाधीनता का आंदोलन चलाया और अंग्रेजों से मुक्ति दिलाई। वह आम भारतीय की पार्टी थी। भारत विभाजन के मुख्य किरदार मोहम्मद अली जिन्ना, ब्रिटिश सरकार और कांग्रेस के नेता थे। धार्मिक आधार पर भारत के तीन टुकड़े कर दिए। भारत को क्या मिला? स्वाधीनता? जब धार्मिक असहिष्णुता के नाम पर भारत का विभाजन हो चुका था, और नागरिकों की अदला बदली इसी आधार पर हो रही थी फिर समझौते को पूरी तरह लागू क्यों नहीं किया गया? यह समस्या तत्कालीन “भारतीय प्रधानमंत्री नेहरू और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत समझौते” की देन है। वास्तव में चचा महान थे। भतीजों का पूरा ध्यान रखा। केवल प्रधानमंत्री पद की चाहत ने दस लाख लोगों की बलि ले ली। हमारी स्वाधीनता की इस करुण कहानी को उस बहरे शासन ने नहीं सुना जिसे राजपाट मिला। ग़ज़ब की स्वाधीनता है!
लक्ष्य विकसित भारत का
साल 2047 में भारत को स्वाधीन हुए सौ वर्ष हो जाएंगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वाधीनता के अमृत महोत्सव समारोह (2022) में अगले 25 वर्षों को अमृतकाल घोषित किया। उद्देश्य भारत को इतना विकसित करना है कि जब भारत अपनी स्वाधीनता के सौ वर्ष मनाए उस समय तक भारत विकासशील राष्ट्र की बजाय विकसित श्रेणी में आ जाए। साल 2027 तक भारत दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। अनेक क्षेत्रों में हमने आत्मनिर्भरता हासिल कर ली है। हम भारत को विकसित राष्ट्र बना सकते हैं, आवश्यकता है हम सभी के प्रयास एक दिशा में हों। कुछ करणीय बिंदु निम्नवत हैं –
राजनीतिक सुचिता और परिपक्वता
स्वाधीनता प्राप्ति के बाद धक्के मार गति से भारत ने अनेक उपलब्धियां हासिल की। हम इससे भी बेहतर प्रदर्शन कर सकते थे लेकिन हमारे समक्ष जो लोकतंत्र रहा वह अधिकतर लूटतंत्र रहा। भारतीय राजनीति के युगद्रष्टा आचार्य चाणक्य ने प्रजा के सुख को राजा का सुख बताया।
प्रजासुखे सुखे राज्ञ: प्रजानां च हिते हितम्।
नात्मप्रियं हितं राज्ञ प्रजानां तु प्रियं हितम्।।
अर्थात् प्रजा के सुख में राजा का सुख निहित है। प्रजा का हित ही वास्तविक हित है।
लोकतांत्रिक राजव्यवस्था में अंधकार
भारत में राजनीतिक नारे जब भी लगते हैं उनमें रामराज्य की कल्पना और गांधी जी के सपनों का भारत समाए हुए होते हैं। यह राजनीतिक दलों द्वारा जनता के साथ छलावा है। सत्य यह है, सत्ता में बैठते ही लोकतंत्र की परिभाषा बदल दी जाती है। परिवारवादी राजनीतिक दलों में नैतिकता नामक तत्व है ही नहीं। यह बेशर्मी नहीं तो क्या है। जब अपराधी, गुंडे और माफिया लोग विधानसभाओं, संसद और प्रशासनिक तंत्र का ही हिस्सा बन जाते हैं। इस स्वतंत्रता में आम आदमी कहां है? राजनीतिक माफियाओं के परिवारों के कई-कई सदस्य विधायक, सांसद, निगमों के चेयरमैन तथा शासकीय समितियों में शामिल कर दिए जाते हैं, यह कैसा लोकतंत्र और कैसी स्वतंत्रता? अनुभव बताता है कि लोकतांत्रिक राजव्यवस्था में जबतक अच्छे पढ़े-लिखे, बुद्धिशील लोग जो राष्ट्र के लिए राजनीति के लिए आगे नहीं आते तब तक कुव्यवस्था ही रहेगी। भारतीय राजनीति का आधार चाणक्य नीति, शुक्रनीति, रामराज का दर्शन, गांधी जी के सपनों का भारत, पंडित दीन दयाल उपाध्याय का “एकात्म मानववाद”, डॉक्टर अम्बेडकर का समतामूलक विचार, राममनोहर लोहिया का समाजवाद होना चाहिए। अन्यथा राजनीतिक अंधकार ही अंधकार है।
प्रशासन में अंग्रेजियत और नौकरशाही पर नियंत्रण
स्वतंत्रता के लिए आवश्यक है प्रशासन में अंग्रेजीयत की मानसिकता वाले लोगों को तरजीह न दी जाए, इनकी मानसिकता उलझाए रखने की होती है। नौकरशाहों को अत्यधिक सेवा संरक्षण नहीं दिया जाना चाहिए। सेवा संरक्षण के कारण इनमें से भ्रष्टाचार करने वाले अधिकारी साफ बच जाते हैं। माना कि यह वर्ग तीक्ष्ण बुद्धि हो, लेकिन शोषण यही वर्ग करता है। अंग्रेजी शासन इन्हें सिखा गया कि आम जनता से दूरी बनाए रखें।
अंग्रेज चले गए न्याय व्यवस्था छोड़ गए
मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘पंच परमेश्वर’ भारतीय न्याय का आदर्श पहलू है। तब पंचायत में न्याय होता था, अब न्यायालय में फैसला होता है। न्याय व्यवस्था का भारतीयकारण होना चाहिए। अभी न्याय व्यवस्था अंग्रेजों के जमाने की है। जजों को विंटर वेकेशन भी चाहिए और समर वेकेशन भी। विंटर में हीटर और गर्मियों में एयर कंडीशनर, कार्यालय में भी घर में भी, फिर छुट्टियों का क्या औचित्य?
आम आदमी के मन के सवाल
एक बात आमजन यह नहीं समझ पाता कि महंगे वकील कानून की ऐसी कौन सी परिभाषा अपने तर्क से समझाते हैं कि वे मुकद्दमा जीत जाते हैं। सवाल यह भी समाज में तैरता है कि भ्रष्टाचार के मामले में एक बाबू को सौ-पांच सौ रुपये की रिश्वत लेते रंगे हाथों पकड़ा जाता है तो जेल की सज़ा पाता है लेकिन किसी जज के अधिकार क्षेत्र में पकड़े गए करोड़ों रुपयों की जांच में दोषी पाए जाने पर भी एफआईआर दर्ज नहीं होती? न्यायपालिका, कार्यपालिका, राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए विभिन्न मामलों में निर्णय लेने की समय सीमा तय करती है, लेकिन तारीख पर तारीख सुनाने वाली न्यायपालिका 25-30 साल में जब निर्णय सुनाती है, उसका समय कौन निर्धारित करेगा? सुनवाई के लिए केस लिस्ट होते हैं 40/50 और सुनवाई होती हो 12/15 की तो बाकी लोगों की सुनवाई न होने का दोषी कौन? अगर ऐसा ही सरकारी हॉस्पिटल की ओपीडी के डॉक्टर भी करने लगे तो क्या मरीज बच पाएगा? 30 साल जेल में बंद रहने के बाद यदि अभियुक्त का दोष सिद्ध न हुआ और वह बाइज्जत बरी हो जाए तो उसके 30 सालों के जीवन का सुख कौन पूरा करेगा? न्यायाधीशों की जवाबदेही पर कौन विचार करेगा? लोकमत में पूछा गया सवाल कि यदि नेता का व्यभिचार सिद्ध हो गया हो तो उसे माननीय बोलना कितना उचित है और दोष सिद्ध न्यायाधीश को न्यायमूर्ति कहना कितना उचित है? कॉलेजियम एक ऐसा शब्द है जो न्यायपालिका के न्याय पर प्रश्नचिन्ह लगता है। इसका रास्ता न्यायपालिका को ही निकालना है। न्यायपालिका को ये लोकमत वैसे ही सुनने/जानने चाहिए जैसा भगवान राम चंद्र ने धोबी की बात सुन ली थी। ये सभी प्रश्न 2047 से पहले समाप्त होने आवश्यक हैं।
स्वतंत्र भारत में लोक कल्याण की संस्कृति हो
भारतीय संस्कृति विश्व कल्याण की भावना की संस्कृति है। भारतीय संविधान संस्कृति में सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, दया, करुणा, ममता, सहिष्णुता जैसे मानवीय मूल्य हैं। इसी संस्कृति में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का भाव है। यह संस्कृति मानवता से पोषित संस्कृति है। यह बड़ी उपलब्धि हो सकती है यदि भारतीय संस्कृति को हम आगामी 20/22 वर्षों में विस्तार दे सकें। भारत के पास आध्यात्मिकता और योग ऐसी विरासत हैं जो विश्व को आकर्षित करने में सहायक सिद्ध हैं।
सर्वे भवन्तु सुखिन सर्वे संतु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चिद्दुखभागभवेत।।
गरीबी मिटाने के प्रयास हों
यद्यपि सरकार ने गरीबी दूर करने के जो प्रयास किये हैं, उनका प्रभाव दिखाई देने लगा है। देश में गरीबी 26 प्रतिशत से घटकर 21.9 प्रतिशत पर आ गई है। प्रयास अच्छा है लेकिन यह कहावत जीवित है ‘गरीब की पत्नी के सौ देवर।‘ यही किसी गरीब की दशा है। गरीब कोई छोटा-मोटा रोजगार शुरू भी करना चाहे तो कभी पुलिस वाले हफ्ता वसूली करते हैं, कभी इलाके के बदमाश। गरीब अपने बच्चों को महंगी पढ़ाई नहीं दिला सकता, सामान्य पढ़ाई में लेबर होने के अलावा कोई रोजगार नहीं। अदम गोंडवी का यह शेर बहुत कुछ कह जाता है-
तुम्हारी फाइलों गांव का मौसम गुलाबी है।
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है।।
सामाजिक समरसता श्रेष्ठ भारत की पहचान
विश्व में जितने भी धर्म/मजहब हैं, उनके मानने वाले लोग भारत में रहते हैं। वे काफी हद तक आपसी संबंध समरसता के साथ बनाए हुए हैं। लेकिन जिस तरह मजहबी उन्माद दुनिया में बढ़ रहा है, उसे समझते हुए सतर्कता बरतने की आवश्यकता है, अन्यथा भारत की सांस्कृतिक विरासत को हानि होगी। इसे समझें बिना भारत तरक्की नहीं कर सकता। अभी तक सामाजिक समरसता पर हम गर्व करते रहे आगे भी इसके संरक्षण के प्रयास जारी रहने चाहिए।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा
स्वतंत्रता लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण पहलू है इसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी है। स्वतंत्रता के साथ दायित्व भी होता है। बिना दायित्व की स्वतंत्रता पागलपन है। सोशल मीडिया में जिस तरह की अश्लीलता जानबूझकर फैलाई जा रही है, वह सभी समाज में स्वीकार्य नहीं होनी चाहिए। अभिव्यक्ति का प्रदर्शन करने से पहले अभिव्यक्ति के दर्शन को समझना महत्वपूर्ण है।
गांधी जी के सपनों का भारत
महात्मा गांधी जी ने ‘मेरे सपनों का भारत’ में जिस समाज की कल्पना की है, वह स्वराज्य भी है और उसमें स्वतंत्रता भी है। उस समाज में सामाजिक समरसता हो, समाज में न्याय हो, समाज में समता हो, लोगों में समृद्धि हो, अमीर और गरीब का भेद न हो, दीन दुखियों के प्रति सेवाभाव हो, लोगों में देशप्रेम की भावना हो। लोग सत्य और अहिंसा का पालन करते हों। हमें विचार करना चाहिए कि जातीय भेदभाव, सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, खाद्यान्नों में, दूध में, दवाइयों में मिलावट राष्ट्र हित में नहीं है। स्वच्छ राजनीति के बिना स्वच्छ समाज और समृद्ध भारत की कल्पना नहीं की जा सकती है। गांधी जी का सपना ही स्वाधीनता से स्वतंत्रता की आशाएं प्रकट करता है। 2047 तक भारत को स्वाधीन से स्वतंत्र में बदलना है, यह भारत का लक्ष्य हो।
(लेखक आकाशवाणी से सेवानिवृत्त हैं, ये उनके निजी विचार हैं।)