पहाड़ों की रानी मसूरी से मिलने तो आप कई बार गए होंगे, लेकिन इस बार हम आपको ले चलते मां सुरकंडा देवी के चरणों में जहां पहुंच आपको सचमुच ऐसा लगेगा कि आपने मां के साक्षात् दर्शन कर लिए। यकीन मानें आपको प्रवेश द्वार की ओर पग बढ़ाते ही मां की उपस्थिति का अहसास होने लगेगा। और यहां पहुंचने में हुई आपकी थकान कहां फुर्र से गायब हो जाएगी आपको पता ही नहीं चलेगा।
कद्दूखाल पहुंचकर आप उस रास्ते की ओर रूख करते हैं जो सीधे सुरकंडा देवी मंदिर की ओर जाता है। यहां से 1.3 किमी की दूरी पर है यह मंदिर। यह सफर आपको पैदल तय करना होता है। आप चाहें तो घुड़सवारी कर भी मंदिर तक जा सकते हैं। कहीं कहीं पर चढ़ाई एकदम सीधी है लेकिन धबराने की कोई जरूरत नहीं क्योंकि आप जैसे कई श्रद्वालु आपके साथ होंगे जो माता का गुणगान करते हुए आपको हिम्मत भी देंगे। केदारखंड में जिन 52 शाक्तिपीठों का जिक्र किया गया है दरअसल सुरकंडा देवी उन्हीं मे सेएक है। इसे सुरेश्वरी के नाम से भी जाना जाता है।
आज जिस पर्वत शिखर पर यह मंदिर स्थित है उसे सुरकूट पर्वत भी कहा जाता है। मंदिर के पुजारी बताते हैं कि जब राजा दक्ष प्रजापति ने यज्ञ का आयोजन किया तो उसमें अपने दामाद भगवान शंकर को छोड़ सभी देवाताओं को आमंत्रित किया गया, लेकिन फिर भी दक्ष पुत्री सती यज्ञ में शामिल होने पहुंच गई। भगवान शंकर को न बुलाए जाने का कारण पूछे जाने पर राजा दक्ष ने महादेव के लिए अपमान भरे शब्द कहे। सती शब्दों के इन तीक्ष्ण बाणों को सहन न कर सकी और धधकते हवन कुंड में अपने प्राणों की आहुति दे दी। रौद्र रूप धर भगवान शंकर ने वहां पहुंच शव को त्रिशूल पर लटका हिमालय की ओर रूख किया उसी दौरान जहां जहां सती के अंग गिरे वे सिद्धपीठ कहलाए।
इसी सुरकूट पर्वत पर मां का सिर गिरा था, जो आज सुरकंडा देवी मंदिर के रूप में जाना जाता है। इसके अलावा इसी स्थान पर कभी देवराज इंद्र ने भी घोर तपस्या की थी। समुद्रतल से 3030 मी. की ऊंचाई पर मनमोहक पहाड़ियों के बीच अचानक यहां पहुंच एक समतल जगह पर सुरकंडा देवी का दरबार सजा है। जहां से यहां से हिमालयन रेंज का नजारा भी क्या खूब दिखाई देता है। मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही कुछ कदम चल कर मंदिर का द्वार हैं।
मंदिर के एक दरवाजे पर सैकड़ों चुनरियां बंधी हुई है। मंदिर की देखरेख में जुटे सेवादार ने बताया कि यह सिलसिला बहुत सालों से यूं ही चल रहा है। और जितने भी लोग चुनरी बांध अपने मनोकामना के लिए यहां आए उन्हें मां ने कभी निराश किया। चैत्र नवरात्र की अष्टमी के दिन यहां गंगा दशहरा का पर्व बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है। इन दिनों यहां श्रद्वालु किसी जल्दी में भी नहीं दिखाई देते बल्कि एक रात यहीं धर्मशालओं में रूक यहां होने वाले कार्यक्रमों को करीब से देखते हैं और इन कार्यक्रमों में हिस्सा लेने में भी पीछे नहीं रहते।
एकदम शांत महौल के लिए जाने वाला यह क्षेत्र उन दिनों ढोल दमाऊ और रण्सिंग से संगीतमय वातावरण गुंजायमान रहता है। श्रद्वा के अलौकिक आनंद में डूबे लोग यहां मां का गुणगान जागर के रूप करते हैं। और स्वर से स्वर मिलाते लोग इस भक्तिमय गीत-संगीत के बीच नाचते गाते हैं। प्रतिदिन मां का भोग तैयार किया जाता है। जो आटे के साथ शुद्ध घी से बना होता है।
मंदिर में मुख्य मंदिर के अलावा एक गोल चबूतरा है जहां नरियल को बलि के रूप में मां को आर्पित किया जाता है। इसके अलावा परिसर में ही भैरव मंदिर भी है। उसी के पास हनुमान मंदिर और शिव-पार्वती मंदिर भी है और शिव-पार्वती की के दर्शन के बाद सीधे वापिस न आए बल्कि इसी मूर्ति के पीछे छिपे हैं बंसी बजाते कृष्ण कन्हैया।
कहां ठहरें- अगर आप मसूरी में अपना होटल न छोड़ना चाहें तो एक दिन में आप अप-डाउन कर सकते हैं, क्योंकि कद्दूखाल से मसूरी की दूरी महज 35 किमी है। अगर आप सुबह शाम होने वाली पूजा में शामिल होना चाहते हैं तो मंदिर प्रबंधन की धर्मशालाओं में भी ठहर सकते हैं। मगर इनमें अधिक सुविधाओं की उम्मीद न करें। इन सब के अलावा कद्दूखाल से 8 किमी की दूरी पर धनोल्टी में आपको गढ़वाल मंडल विकास निगम की डोमेट्ररी से लेकर सुपर डीलक्स रूम तक मिल जाएंगे।
कैसे पहुंचे – यह स्थान दिल्ली से लगभग 315 किमी. की दूरी पर है। आप दिल्ली से मसूरी वाया देहारदून होते हुए सुरकंडा पहुंच सकते हैं। अगर आप अपने वाहन से जाने की सोच रहे हैं तो जरूरी नहीं कि मसूरी भी होते हुए जाएं क्योंकि देहरादून से आगे बढ़ने पर मसूरी से 2 किमी पहले ही एक रास्ता सुरकंडा की ओर निकल जाता है।