उत्तराखंड… प्रकृति के रंग में रचे-बसे लोक उत्सवों की धरती… जिसके हर हिस्से में अपनी लोक गाथाओं, मान्यताओं, मेलों, उत्सवों के अनोखे-अनूठे किस्से हैं। हर किस्सा एक-दूसरे से बिल्कुल अलग, बिल्कुल जुदा। ऐसा ही एक अनोखा लोक उत्सव है हिल-जात्रा…। मुखौटा शैली के उत्सवों में सबसे अलग है सीमांत जिले पिथौरागढ़ की हिल जात्रा। हर किरदार जीवंत, हर किरदार दिलचस्प और उतनी ही रोमांचित कर देने वाली है… हिल-जात्रा की किस्सागोई।
रोमांच से भरे इस सिलसिले का अतीत नेपाल से तिब्बत तक ले जाता है। ये 600 से 700 साल पुरानी विरासत है, जो दो देशों के साझा अतीत को जितना जोड़ती है उतनी ही पौराणिक भी है….। देव अवतार हिरण-चीतल अपने मोहक रूप से सम्मोहित करते हैं और शिवजी के गण लखिया बाबा अपनी आमद से रोमांचित।
ये रोम-रोम को उमंग और उल्लास से भर देने वाला उत्सव है। नंदी से लेकर, छोटे-बड़े बैलों की जोड़ियों के नखरे ऐसे.. मानों किसी ने बड़े सलीके से इन किरदारों को गढ़ा है। वर्षा ऋतु में जब प्रकृति अपनी हरी-भरी छटा पर इतराती है, तभी उमंग से भरे माहौल में हिल-जात्रा अपनी ओर खींच ले जाती है। 6 पट्टी सौर घाटी में वैसे तो कई जगह हिल-जात्रा होती है लेकिन कुमोड़ गांव की हिल-जात्रा सबसे अलग है। कुमोड़ के आराध्य हैं लखिया बाबा। कोट मंदिर में किरदारों के तैयार होने का सिलसिला दोपहर से ही शुरू हो जाता है। लोगों में सबसे ज्यादा उत्सुकता होती है लखिया बाबा के पात्र के तैयार होने की। उनके तैयार होने की जगह और प्रक्रिया पारंपरिक है, सबसे अलग है। उनके साथ नंदी और हल्या के पात्र तैयार होते हैं। विशेष पूजा के साथ पात्र में अवतरित होते हैं लखिया बाबा।
हमारे उत्तराखंड में 13 जिले हैं, इनमें से सिर्फ पिथौरागढ़ में इस उत्सव को मनाया जाता है। इसमें सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है कुमोड़ की हिल-जात्रा। इसमें लखिया बाबा आकर्षण का केंद्र होते हैं, उन्हें साक्षात शिव का गण माना जाता है। बाकी हिरण-चीतल को देवता का अवतार माना जाता है, उनकी पूजा होती है, कहीं महाकाली की पूजा होता है। वर्षा ऋतु में जब प्रकृति हरियाली की चादर ओढ़ लेती है, खेती लहलहा उठती है, ऐसे खुशी के मौके पर इस हिल-जात्रा का आयोजन किया जाता है। मुखौटों का ये खेल है, कहीं बैलों की जोड़ी होती है तो कहीं पुतारियां जो रोपाई, गुड़ाई, धान-जुताई का प्रदर्शन करती हैं। बड़ा मनोरंजक ये आयोजन होता है, इसी को हिल-जात्रा कहते हैं। – कैप्टन दीवान सिंह (रिटा.)
हिल-जात्रा का इतिहास काली कुमाऊं से आए कुरमौर वंश के चार मेहर भाइयों के जिक्र के बिना अधूरा है। हिमालय दर्शन को निकले मेहर भाइयों और आदमखोर बाघ का किस्सा यहां सदियों से ऐसे ही दिलचस्प अंदाज़ में सुनाया, बताया जा रहा है। अपनी वीरता से मेहर भाइयों ने तत्कालीन शासक पिथौरा शाही और जिया रानी के दिल में जगह बनाई और फिर नेपाल के राजा को अपने बाहुबल और बुद्धि से प्रभावित किया। नेपाल के राजवंश में होने वाली इंद्र यात्रा ही मेहर भाइयों के साथ इस हिस्से में आई और कालांतर में हिल-जात्रा कहलाई। हालांकि समय के साथ इसमें नए कथानक और पात्र जुड़ते चले गए।
नेपाल में इंद्र-जात्रा हुआ करती है, नेपाल के राजा का आमंत्रण पिथौरागढ़ के राजा के लिए था, उनका संदेश था कि आपके राज्य के बीर-भड़ों को राजकीय सम्मान के लिए इस जात्रा में भेजिये। राजा के लिए अच्छा मौका था और उन्होंने काली कुमाऊं से आए कुरमौर वंश के चार मेहर भाइयों की वीरता और बुद्धिकौशल को देखते हुए उन्हें नेपाल की हिल-जात्रा में भेजा। नेपाल के राजा ने मेहर भाइयों से कहा कि आपको जा मांगना है, मांगिये…। इन भाइयों ने वहां इंद्र-जात्रा के मुखौटे देखे थे, उन्होंने वही राजा से मांग लिए और इस तरह इंद्र-जात्रा का ये स्वरूप पिथौरागढ़ में आया। – जर्नादन उप्रेती, कवि एवं रंगकर्मी
ये एक ऐसा रोमांचक अनुभव है, जो अतीत के ऐसे सफर पर ले जाता है, जहां हर किरदार जीवंत लगता है, जहां किस्सागोई का उमंग और उल्लास से भरा अंदाज हर वक्त ताजगी का अहसास कराता है। कुमोड़ की हिल जात्रा की सबसे बड़ी खासियत है इसका विस्तार। कोट से जात्रा मैदान तक बड़ी संख्या में लोग अपने पसंदीदा पात्रों का इंतजार करते हैं। उन्हें चीतल-हिरन को भी देखना है, नंदी बैल, हल्या से भी मिलना है। छोटे-बड़े बैल, भालू, बंदर और न जाने कितने किरदार सदियों से चली आ रही परंपरा से रूबरू कराते हैं।
शाम के समय सबसे ज्यादा उत्सुकता होती है लखिया बाबा या कहें लखिया भूत के दर्शन की। जात्रा मैदान में उनकी आमद पूरे इलाके को एक नई ऊर्जा से भर देती है। लखिया भूत का दैवीय अवतरण इस कहानी का सबसे रोमांचकारी हिस्सा है। वो भक्तों को दर्शन देते हैं, धन्य, धान का आशीष देते हैं, उत्साह के साथ अपनी मौजूदगी का अहसास कराते हैं और फिर शांतचित होकर चले जाते हैं। बजेठी से कुमोड़ तक हिल-जात्रा एक ऐसा अनुभव है, जिसमें रोमांच, कौतूहल, अभिनय, परंपरा, ऐतिहासिकता, अभिनय सबकुछ है और सबसे ऊपर है वो आस्था जो उस दैवीय शक्ति से जोड़ती है, जिसके आगे सब नतमस्तक हैं।