Ground Report: उत्तराखंड जैसे छोटे पहाड़ी राज्य में गांवों में रोजगार के अवसर न बन पाने और पलायन के बाद बाहरी लोगों का आना तेज हुआ। इसकी वजह से बड़ी संख्या में जमीनें खरीदी और बेची जाने लगी। किसी सख्त भू-कानून के न होने के कारण यहां कोई भी आकर, कितनी भी जमीन खरीद सकता है। पहाड़ी इलाकों में सस्ते दामों में जमीन खरीदकर उसे बाहरी लोग अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। उत्तराखंड राज्य के गठन के साथ ही इस मुद्दे को गंभीरता से देखने की जरूरत थी, लेकिन सरकारों ने इतनी शिथिलता दिखाई कि परिस्थितियां बद से बदतर होती चली गईं। इस कालखंड में आई सरकारों ने जमीन को खरीदने और बेचने की सीमा अपने अनुसार घटाई बढ़ाई। इसके लिए सबके अपने-अपने तर्क रहे। लेकिन हकीकत ये है कि आज उत्तराखंडवासियों को अपने सामने अस्तित्व का संकट खड़ा होता दिख रहा है। कोई भी आंदोलन तब जनआंदोलन बन जाता है, जब उसमें हर वर्ग की भूमिका होती है। कुछ ऐसा ही देखने को मिला जब देहरादून में मूल निवास 1950 और सख्त भू-कानून की मांग को लेकर एक बड़ी रैली आयोजित की गई। राजनीतिक विचारधाराओं से परे लोग एक मुद्दे के लिए साथ आए और अपनी आवाज बुलंद की। सबका दर्द यही था कि अपनी जमीनों को इस तरह बिकते नहीं देख सकते।
‘हम अपना अधिकार मांगते, भू-कानून, भू-कानून’, ‘बोल पहाड़ी हल्ला बोल’… ये नारे पहाड़ के उस दर्द और चिंता को दर्शाते हैं, जो राज्य गठन के 23 साल के भीतर ही उत्तराखंड के लोगों के मन में घरकर चुकी है। तेजी से बिक रहे पहाड़ों के चलते अपने राज्य में अपना आधार खोने का डर लोगों को देहरादून के परेड ग्राउंड तक ले आया। सबसे मन में चिंता इस बात की थी कि अगर अब एकजुट नहीं हुए तो इस पहाड़ी राज्य के अंदर एक और पहाड़ी राज्य के लिए संघर्ष करना पड़ेगा।
साल 2000 में राज्य गठन के बाद से ही भूमि के उचित बंदोबस्त के लिए काम करना चाहिए था। आज पहाड़ी की सबसे बड़ी समस्या ये है कि खेती ही नहीं रह गई है। शायद इसीलिए पलायन हो रहा है। 1960 के बाद भूमि प्रबंधन नहीं हुआ। कई पीढ़ियां आईं और आज खेत बहुत कम रह गए हैं। कुछ खेत पूरब में हैं तो कुछ दूर पश्चिम में…। ऐसे में खेती से आजीविका कमाने के लिए कोई कैसे काम करे। अगर कोई मेहनत करके कुछ पैदा भी कर रहा है तो उसे जंगली जानवर नष्ट कर दे रहे हैं। ऐसे में लोग पहले खेती छोड़कर मनरेगा से जुड़े और फिर पलायन कर गए। पहले खेती प्राथमिकता में थी, लेकिन अब लोगों की आम सोच ये है कि बच्चों को पढ़ा-लिखाकर नौकरी के लायक बना दें। ऐसे में पलायन पहाड़ की नियति बन गया है। पलायन रोकने के लिए पहाड़ में इंडस्ट्री के नाम पर सबकुछ किया गया लेकिन हासिल कुछ भी नहीं है। कोई सख्त कानून नहीं है इसलिए कोई भी, कहीं भी कितनी भी जमीन ले सकता है। इससे हुआ ये कि बड़े-बड़े धन्नासेठों ने मौके का फायदा उठाकर पहाड़ के पहाड़ औने-पौने दामों में खरीद लिए।
राज्य आंदोलनकारी रही मुन्नी खंडूरी का दर्द इस बात से समझिए कि उम्र के इस पड़ाव पर भी उन्हें एक बार फिर आंदोलन में उतरना पड़ा। वह कहती हैं, मैं सुशीला बलूनी के साथ आंदोलन में रही लेकिन आज ऐसा लगता है कि हम खाली के खाली रह गए। हमने जो संघर्ष किया था, उसके नतीजे में हमें कुछ नहीं मिला है। उन दिनों हम जवान थे तो सड़कों पर उतरे थे, कोई बात नहीं लेकिन आज हमें अपने बच्चों के लिए सड़कों पर उतरना पड़ रहा है। आज हमें उत्तराखंड के लिए दर्द है, इसलिए दो-दो हार्ट अटैक आने के बाद भी मैं सड़क पर उतर रही हूं। सरकार मौन लेकर बैठी हुई है, क्यों बाहर के भू-माफियाओं को यहां शरण दी जाती है। हमारी मांग है कि हमारे बच्चों को यहां रोजगार मिले। हमारी जमीनें ऐसे ही न बिकें। एक अन्य व्यक्ति ने कहा कि हमारे पास एम्स है लेकिन वहां नौकरी राजस्थान के लोग पा रहे हैं और हमारे बच्चे वहां सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी कर रहे हैं।
लेखक अद्वैता काला भी इस आंदोलन में शिरकत करने पहुंची। उन्होंने कहा कि ये अस्तित्व की लड़ाई है। ये देखकर अच्छा लगा कि बहुत समय बाद आम जनता आगे आई है। जिस वजह से हमने ये राज्य मांगा था, हमारा सांस्कृतिक अस्तित्व खत्म हो रहा है और इसके लिए हम सबको खड़ा होना चाहिए और वही आज हो रहा है। 23 साल इस राज्य को बने हो गए हैं, अब तक जो हमारा उद्देश्य था कि हमारी संस्कृति बची रहे, हमारी भाषा बची रहे, हमारी देवभूमि बची रहे, वो सब ख्तम हो रहा है। भू-माफिया का लालच हमें जिंदा खा रहा है। इसीलिए महत्वपूर्ण हो जाता है कि हम सामने आएं, बोले कि अब और नहीं सहेंगे। हमें अपना राज्य मिला लेकिन क्या हमारे यहां से नए आंत्रप्रेन्योर निकल रहे हैं, क्या अपना बिजनेस चला रहे हैं, क्या जो हमारी खेती है, उसे सुरक्षा मिल रही है। जो खेती की जमीन है वो बेची जा रही है और फिर उसका लैंड कन्वर्जन करके कुछ भी बना लीजिए। संस्कृति तो जा ही रही है, ऐसे तो उत्तराखंड के मूल निवासियों की अपनी जमीन भी चली जाएगी।
सोशल मीडिया पर भू-कानून के लिए लगातार कैंपेन चलाने वाले वन यूके समूह के अजय पाल सिंह का कहना है कि ये मांग अपने पहाड़ को बचाने की है। उसके लिए हमें मूल निवास 1950 भी चाहिए, भू-कानून भी चाहिए और परिवार में एक व्यक्ति को रोजगार भी चाहिए। ये चीजें होंगी तो पहाड़ बचेगा, ये हमें समझना होगा कि पहाड़ को लूटने वाले कौन लोग हैं, जब तक इसकी पहचान नहीं होगी, तब तक हम बचा नहीं सकते। हमें पता होना चाहिए कि कौन पहाड़ को लूट रहे हैं और कौन पहाड़ को बचा सकते हैं।
स्वामी दर्शन भारती ने कहा कि आंदोलन होना चाहिए, उत्तराखंड को बचाने के लिए। एक बार उत्तराखंड के लोगों ने राज्य को बनाने के लिए शहादत दी, आज समय है घर को बचाने का, संकल्प लेना पड़ेगा। दलों से ऊपर उठकर मन को मिलाना पड़ेगा। राज्य को एक नई दिशा देनी पड़ेगी।
युवा नेत्री अनुकृति गुसांई ने कहा कि उत्तराखंडी होने का अहसास सबसे बड़ा अहसास है। कोई भी राजनीतिक दल इतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना अपना उत्तराखंड है। इसलिए सबसे महत्वपूर्ण है कि नौजवान साथी इस आंदोलन से जुड़े, इसमें ताकत भरें। कल का उत्तराखंड कैसा होगा, ये तय करने वाले उत्तराखंड के नौजवान होंगे। उत्तराखंड आंदोलन में हमारे बुजुर्गों ने गोलियां खाई, अपना बलिदान दिया, जिन मुद्दों के लिए उत्तराखंड बना वो मुद्दे कहीं न कहीं बैक सीट पर चले गए हैं। इसलिए आज भू-कानून पहली मांग है। जिस तरह से स्थायी निवास प्रमाणपत्र किसी को भी कैसे भी बांट दिए जा रहे हैं, वो आने वाले कल के लिए खतरे की घंटी है। इसलिए मूल निवास 1950 दूसरी अहम मांग है। अपने भविष्य को तय करने का हक उत्तराखंड के लोगों का है, इसलिए नौजवान इस आंदोलन में शामिल हैं। इसके अलावा कोई भी नेता अगर उत्तराखंड में है और उसके लिए उत्तराखंड अहम नहीं है तो उसे राजनीति नहीं करनी चाहिए। राजनीति आपके लिए दूसरी हो सकती है लेकिन उत्तराखंड अपनी मातृभूमि आपके लिए पहले होनी चाहिए।
आंदोलन में पहुंचे एमएमए फाइटर अंगद बिष्ट ने कहा कि भू-कानून का मुद्दा हमेशा से रहा है। चाहे हमारे पिता रहे हों या दादा, ये मुद्दा हमेशा से था, बस अभी तक ये कानून हमें मिला नहीं है। अब वक्त आ गया है कि इस पर कोई ठोस फैसला हो।
पौड़ी से आई एक महिला आंदोलनकारी ने कहा कि हमने 1994 में इस राज्य के गठन की लड़ाई इसलिए लड़ी थी कि हमारा सबकुछ हमारा हो। हमारी जमीनें धड़ल्ले से ऊपर ही ऊपर बिक रही हैं। इसलिए हम कह रहे हैं कि भू-कानून जरूरी है, हमारा मूल निवास 1950 बहुत जरूरी है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो हमारी आने वाली पीढ़ी हमें कोसेगी। इसलिए हम सरकार से चाहते हैं कि हमारा भू-कानून और मूल निवास 1950 जल्द से जल्द लागू हो।
पूर्व सैनिक भी भू-कानून और मूल निवास के मुद्दे पर मुखर हैं। गौरव सैनानी संगठनों का कहना है कि हमने पूरा जीवन देश के लिए दिया है। हम अब इस जंग को जीतने के बाद ही चुप बैठेंगे। पहले हमें भर्ती के लिए मूल निवास मिलता था अब हमारे बच्चों को स्थायी निवास प्रमाणपत्र दिया जा रहा है। ये सही नहीं है। अगर हमारी मांगें नहीं मानी गईं तो उत्तराखंड के लिए एक दूसरा बड़ा आंदोलन होगा। इसमें गौरव सैनानी आगे बढ़कर हिस्सा लेंगे।