टिहरी के घनसाली के केमरियासौड़ गांव से निकलकर कामयाबी की कहानी लिखने वाले Dev Raturi के कामकाज और चीन में फिल्मी पर्दे पर आने को लेकर काफी कुछ बताया और दिखाया जा चुका है, लेकिन एक बहुत ही गरीब परिवार का लड़का किन हालातों से निकलकर कामयाबी के शिखर पर पहुंचा, इस संघर्ष को समझने के लिए हम देव के साथ उनके गांव पहुंचे। देहरादून से उनकी बचपन की यादों को साझा करते हुए हम पहले पड़ाव में टिहरी पहुंचे…। यहां देव अपनी टिहरी झील से जुड़ी कई बातें साझा कीं। टिहरी झील को निहारते हुए वह कहते हैं मेरे जेहन में पुरानी टिहरी अब भी समाई हुई है। हमारे लिए वही ऋषिकेश हुआ करती थी। घंटाघर अब भी यादों में बसा है। हम लोग यहां घूमने आते थे। खूब दौड़ते थे। मस्ती करते थे। पुरानी टिहरी तो डूब चुकी है। अब तो नई टिहरी बसी है। उन्होंने इतना भर कहा तो हमने सवालों का सिलसिला शुरू कर दिया।
- चीन के कई शहरों को टूरिज्म डेस्टीनेशन के रूप में देख चुके देव टिहरी झील में कितनी संभावना देखते हैं?
यहां बहुत सी संभावनाएं हैं। हो सकता है बहुत सी चीजें प्लानिंग में होगी, कुछ हो रही होंगी। दुनिया में जहां पर ऐसी जगहें हैं, वहां पर्यटन बहुत बढ़ा है। यहां भी वंडर्स हो सकते हैं। ये तो अपने आप एक हैवेन है। पूरे देश का टूरिज्म यहां पर डायवर्ट हो सकता है। होटल, होम स्टे आदि कई सेक्टर यहां बूम कर सकते हैं। ऐसी जगहों पर जाने के लिए लोग तरसते हैं। हमारे पास ये जगह हैं। हमने इसे बना भी रखा है। यहां जैसी प्राकृतिक सुंदरता दुनिया में कहीं नहीं हैं। प्रवासी सम्मेलन में हमने ऐसे कई वीडियो देखे, जिसे देखकर लगा ही नहीं हम उत्तराखंड में है। बस मार्केटिंग की और जरूरत है। लोगों को बताना होगा कि टिहरी क्यों आना है। यहां ऐसा लग रहा है जैसे भगवान विष्णु क्षीर सागर में रह रहे हैं। अद्भुत! यहां के हट देख रहे हैं। यह सब कितना सुंदर बन पड़ा है।
(टिहरी से हमारा अगला पड़ाव था, पीएमश्री अटल उत्कृष्ट राजकीय इंटर कॉलेज चमियाला। देव रतूड़ी का स्कूल, जहां वह 10वीं तक पढ़े थे। मौसम सुहाना है…हल्की बूंदाबांदी हो रही थी। देव अपने स्कूल को काफी देर तक निहारते रहे, ऐसा लगा जैसे वह अपनी पुरानी यादों में खोए रहना चाहते हों)
- जब हम जिंदगी में कुछ बन जाते हैं तो हमारी कोशिश होती है कि स्कूल, गांव, घर को कुछ दे पाएं, आपने भी किया, क्या कोशिश रही?
2013 में मैंने चीन में अपना पहला रेस्टोरेंट खोला। उसी दौरान यहां आया था। सबसे पहले मैंने तत्कालीन प्रिंसिपल साहब से पूछा कि यहां पर क्या-क्या असुविधाएं हैं, जो हमारे दौरान थी। हम लोगों के समय फीस तक के पैसे नहीं होते थे। मैं सातवीं-आठवीं तक नंगे पांव आता था। कपड़े नहीं होते थे। मैं नहीं चाहता कोई बच्चा पैसे की किल्लत की वजह से अपनी पढ़ाई छोड़े। उन्होंने 30-40 बच्चों के बारे में बताया। जिनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। हमने उनका सहयोग किया। इसके अलावा खेल का सामान नहीं था। उसकी व्यवस्था की गई। पानी की टंकी ठीक नहीं थी। उसकी भी व्यवस्था की गई। यह सब तीन-चार साल तक लगातार किया गया। खैर, अब तो स्कूल काफी भव्य बन गया है। पीएमश्री योजना के तहत यह सब हुआ है। यह बहुत अच्छी योजना है। मैं यह नहीं चाहता था कि जो कुछ कर रहा हूं, वह सबको पता चले। लेकिन, एक बार प्रिंसिपल साहब ने मुझे स्कूल में संबोधन के लिए कहा, उस दौरान स्कूल में 300-400 बच्चे रहे होंगे। उनमें से कई बच्चे अब भी मिलते हैं। वो लोग भी पहाड़ के लिए बहुत सोचते हैं। सब कुछ न कुछ योगदान अपने गांव के लिए कर रहे हैं।
- आपने केमरियासौड़ और एक अन्य गांव को गोद लिया है? क्या प्लानिंग है?
कुछ लौटाने की कोशिश है। क्योंकि जब मैं किसी लायक नहीं था तब इसने मुझे गोद लिया था। इस गांव की सेवा करने का मौका मिला है। यहीं जन्म हुआ, यहीं पला-बढ़ा। यहीं से पढ़ाई की। यही वह गांव है, जिसकी वजह से मैं हूं। यहां (एक जगह की ओर इशारा करते हुए) हमारी भैंस-गाय बंधा करती थी। जब घर में कुछ खाने को नहीं होता था तो मां तुरंत भैंस के दूध का एक ग्लास दे देती। हम उसे पीकर पूरा दिन मस्त रहते। ये हमारा (मंदिर की ओर दिखाते हुए) शनि मंदिर है। इसके ऊपर हमारा घर है।
- यहां सारे घर एक कलर में हैं, क्या कोई प्लान है?
हां जी, ये मैंने इनिशिएटिव लिया है। प्रशासन ने भी काफी साथ दिया है। अभी हम लोग यहां पर बहुत सी संभावनाएं तलाश रहे हैं। आगे हम यहां की सड़कों पर काम करेंगे। लाइट लगाएंगे। शिक्षा पर काम करेंगे। बेरोजगारी पर काम करेंगे। कैसे इस गांव को एक मॉडर्न विलेज और एक टूरिस्ट विलेज बनाया जाए एक आदर्श गांव बनाया जाए। जो बाकी गांव के लिए भी एक एक प्रेरणा बने, एक उदाहरण बने। प्रवासी सम्मेलन में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने कहा, भाई आप लोग सक्षम हैं। विदेश में रह रहे हैं। यहां अपने गांव के लिए भी कुछ करिए। ‘मेरा गांव मेरा तीर्थ’ के तहत अपना गांव गोद ले लो। उसे आदर्श ग्राम बनाओ। यहां से शुरुआत हुई। मुझे भी लगा। यह मेरे लिए बहुत बढ़िया मौका है। हमारा मुख्य मकसद पलायन रोकना है। यह तभी रुकेगा जब यहां सुविधाएं बढ़ेंगी। जैसे आप जानते हैं कि मैं अपनी जगह तभी छोडूंगा, जब मुझे वहां पर सुविधाएं नहीं मिलेंगी। जैसे आजकल नए-नए बच्चे हैं, वर्क फ्रॉम होम करते हैं। अगर उनको यहां पर इंटरनेट मिल जाए। तो वह बाहर किराये पर क्यों रहेगा। अगर यह सब चीजें नहीं मिलेंगी तो वह निश्चित तौर पर दूसरी जगह जाएगा। हमारा गांव चारधाम यात्रा के रास्ते में पड़ता है, यह हमारे लिए प्लस प्वाइंट है। इस लाभ उठाया जा सकता है। हम इस दिशा में कुछ प्लान भी कर रहे हैं।
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- यहां जमीन बहुत अच्छी है, क्या आर्गेनिक खेती नहीं की जा सकती?
हम लोग चाह रहे हैं कि यहां पर ऑर्गेनिक खेती की भी जाए। किसी एक चीज पर निर्भरता न हो। यहां पर हल्दी, जीरा की पैदावार कर अच्छी कमाई की जा सकती है। प्रशासन से बातचीत की है। वो लोग आने वाले हैं। यहां की मिट्टी की जांच करेंगे। देखेंगे और क्या संभावनाएं हैं। लोगों को प्रशिक्षण देने की व्यवस्था की जाएगी। जब लोगों को रोजगार मिलेगा तो डेफिनेटली धीरे-धीरे लोग वापस आने लगेंगे। चीन में यहां के बहुत सारे लोग हैं, जो चाहते हैं गांव के विकास में योगदान दें। मैंने सबको बोला कि भाई देखो ऐसा है ये कितना बड़ा गांव है, एक नहीं दो गांव है। अकेले देव रतूड़ी से कुछ नहीं होगा। मैं तो ज्यादा से ज्यादा फाइनेंशली हेल्प कर दूंगा। थोड़ा सा गाइड कर दूंगा। लेकिन, इतने भर से कुछ नहीं होने वाला। लोगों को एकजुट होना होगा। मैं अपने आप को सौभाग्यशाली मानता हूं कि गांव के लोग साथ दे रहे हैं।
हमारे गांव के लगभग हर घर का एक बंदा विदेश में है। अधिकतर चीन में हैं। कुछ अमेरिका में भी हैं। कई लोगों को मैं इटली भी ले गया था। यहां से कई लोगों को मैं चीन लेकर गया हूं। उन्हें ट्रेनिंग दी। अब वह अच्छा काम कर रहे हैं। लेकिन, हम चाहते हैं कि लोग यहां पर रोजगार पैदा करें। तभी तो पलायन रुकेगा। इस बारे में मैंने टिहरी के डीएम से बात की है। उन्होंने हर संभव मदद का आश्वासन दिया है। हम चाहते हैं कि यहां पर होम स्टे चलाने वाले युवा ट्रेंड हों। एक स्किल सेंटर बनाने पर भी विचार कर रहे हैं।
- उत्तराखंड में होम स्टे पर काफी जोर है, क्या करने की जरूरत है?
मैं चाहता हूं होम स्टे, होम स्टे बनकर न रह जाए। मैं चाहता हूं। होम स्टे के साथ उनका वहां मनोरंजन भी हो। लोकल कूकिंग भी उन्हें सिखाए। साथ ही उन्हें अपने खेती के बारे में भी बताएं। साथ ही उन्हें पेड़ से फल तोड़ना भी सिखाएं। आसपास दस किलोमीटर के दायरे में कौन से मंदिर हैं, पर्यटन स्थल हैं। उनकी हिस्ट्री क्या है। यह सब पता होना चाहिए। तभी पर्यटकों का आकर्षण बढ़ेगा। अगर यह सब हो जाएगा तो लोगों का यहां से लगाव हो जाएगा। वह ज्यादा रुकेंगे। फिर आएंगे।
- हॉस्पिटालिटी में स्किल का होना कितना जरूरी?
देखिए, होम स्टे में खाने के अलावा सर्विस बहुत मायने रखती है। कैसे आप उसे ट्रीट करते हैं। हाइजिन का कैसे ख्याल रखते हैं। आप कैसे आप उसका अतिथि देवो भव: की तरह उसका वेलकम कैसे करते हैं। बहुत सारी बारीक चीजें हैं। जिन्हें ध्यान रखने की जरूरत है। चूंकि, मैं इसी सेक्टर से हूं। इसलिए यह ट्रेनिंग उन्हें अच्छे से दे सकता हूं। हम सिखाएंगे कि होम स्टे की मार्केटिंग कैसे करेंगे। अब देखते हैं कि हम एक-दो साल में अपने गांव को कितना बदल पाते हैं।
प्राथमिक विद्यालय लाटा की यादें
यहां एक ऊपर नहर होती थी। जहां पिताजी हमको लेकर आते थे। यहां तक पूरा जंगल होता था। उस टाइम इतना ज्यादा खुला नहीं था। पहली से तीसरी क्लास तक यहां पढ़ाई की। इसके बाद सीधे पांचवीं में प्रमोट कर दिया गया। फिर छठवीं के बाद हम चमियाला चले गए। मुझे लगता है कि अगर लाइफ में आपके अंदर कुछ बदलाव हो सकता है, वह शिक्षा से ही संभव है। अगर शिक्षा का स्तर ऊंचा है तो आपका स्तर अपने आप ऊंचा हो जाएगा। हमने यहां भी पूछा था कि हम क्या मदद कर सकते हैं। बहुत से मूलभूत सुविधाएं थीं जो यहां नहीं थीं। वह सब मैनेज कराया। मेरा मानना है,स्कूल साफ सुथरा होना चाहिए। कलर अच्छा हो। इंस्पायरिंग कोट्स हों। जिससे उसके माध्यम से बच्चे कुछ नया सीखें। पहले तो यहां पर अध्यापक भी कम थे। हमने डीएम साहब से बात की। उन्होंने खाली पद भरे। अब भी बहुत सी चीजें हैं जो यहां पर की जा सकती हैं। हम प्रयास कर रहे हैं।
- जिनको आप ही चीन लेकर गए, अब उनका रिवर्स पलायन की सोच रहे हैं?
देखिए, मैं अपने गांव का पहल शख्स हूं जो विदेश गया। पहले सारे लोग गांव में ही रहते थे। पूरा गांव भरा था। जब मैं चीन गया तो मुझे लगा कि वहां बहुत स्कोप है। इसलिए मैं एक-एक करके दोनों गांव चमियाला और लाटा से युवाओं को लेकर गया। अभी 100-150 लोग वहां पर है। दुखद बात यह है कि अधिकतर लोग वहां जाने के बाद गांव छोड़ दिए। उनके पास पैसा आ गया सभी देहरादून, ऋषिकेश में घर खरीद लिया। गांव छोड़ दिया। अब अधिकतर लोग इंडिया में आते भी हैं तो देहरादून, ऋषिकेश तक ही आते हैं। गांव नहीं आते। सच कहिए तो पलायन में मेरा भी योगदान है। क्योंकि मैं ही उन्हें यहां से लेकर जाने की शुरुआत की थी। इसलिए मैं सोच रहा हूं कि फिर से अपने गांव को हराभरा करूं। जैसे मेरा गांव था, हंसता-खेलता वैसा फिर बने। हम लोगों के समय यहां पर कोई सुविधाएं नहीं थीं। इसलिए हम पलायन किए। कोशिश है कि यहां पर सुविधाएं हों, रोजगार हो। ताकी, अब कोई बाहर न जाएं।
- दो गांवों को गोद लिया है, विकास के लिए क्या योजना है?
दोनों गांव को एक करने की कोशिश की पहली पहल है, एक कलर पर दोनों गांवों के घरों को रंगना। दोनों गांवों में रोजगार की संभावनाएं तलाशी जा रही हैं। लोग यहां पर तभी रुकेंगे जब यहां पर कुछ कमाई का साधन बने। होम स्टे हम खोल भी लें तो भी खास फायदा नहीं होगा। यहां पर साफ पानी की किल्लत है। चारधाम यात्रा मार्ग पर है ये दोनों गांव। लेकिन, पार्किंग नहीं होगी तो लोग अपनी गाड़ियां कहां पार्क करेंगे। हम इसपर काम कर रहे हैं। पार्किंग की व्यवस्था की योजना पर काम चल रहा है। पार्किंग होगी तभी होम स्टे का असली लाभ मिलेगा।
- आप लोगों को जोड़ने में ग्लू का काम कर रहे हैं। इसके लिए आपको चीन से इंडिया की काफी दौड़ लगानी पड़ेगी, कैसे मैनेज करेंगे?
यह अपनी माटी को लौटाने का समय है। मैं सैकड़ों को लोगों को यहां से लेकर चीन क्यों गया, गांव के विकास के लिए। विकास तो हुआ मगर उसका स्वरूप बदल गया। लोगों ने पैसे कमाएं लेकिन गांव छोड़ दिया। इस मुहिम में चीन में रहने वाले लड़के मेरे साथ हैं। सबने एक ग्रुप बनाया है। सबका कहना है, भाई गांव के लिए जो जरूरी है, सब करेंगे।
- रिवर्स माइग्रेशन में सरकार की भूमिका कैसे देखते हैं?
प्रवासी सम्मेलन बहुत अच्छी पहल है। 27 से ज्यादा देशों में रह रहे उत्तराखंडियों को एक मंच पर लाना कम बड़ी बात नहीं है। मैं भी उसी का हिस्सा हूं। इसकी जितनी सराहना की जाए कम है। मैं जिस अधिकारी से बात की, सबने कहा-बताइए आप क्या करना चाहते गांव के लिए, हम आपकी कैसे मदद कर सकते हैं। कुल मिलाकर सबका अप्रोच काफी अच्छा है। सब कुछ सरकार नहीं कर सकती। जहां कुछ कमी है, उसे पूरा करना हम सबकी जिम्मेदारी है। सब काम के लिए सरकार पर निर्भर नहीं रह सकते।
देव चीन में बहुत कामयाब है, गांव के लिए बहुत कुछ करना चाहते हैं, कभी दिल में आता है एक दिन लौटूंगा?
बिल्कुल, मैं अपनी पत्नी से अक्सर बात करता हूं। कहता हूं-मूलत: हम गांव के ही हैं। कई बार बात होती है चीन में रहने वालों ने देहरादून-ऋषिकेश में घर बना लिए हैं। हम क्यों नहीं बना रहे हैं। मैं कहता हूं कि बिल्कुल नहीं। घर तो हमारा गांव में है। हम लौटेंगे तो गांव ही जाएंगे। बच्चों के बारे में नहीं कह सकता। लेकिन, मैंने तो गांव का वह संघर्ष देखा है। मैं भी सोचा हूं कि गांव में होम स्टे बनाऊं, क्योंकि लोग यह भी कहते हैं कि आप गांव जाने की बात करते हैं, खुद क्यों नहीं जाते। इसलिए जो आप कहते हैं, उसे खुद करके दिखाएं। हमारे सोनार गांव के एक शख्स हैं, जो चीन में रहते हैं। वहां पर 50-60 हजार सैलरी है। वह वापस आना चाहते हैं। होम स्टे खोलना चाहते हैं। लेकिन, वह हिचकिचा रहे हैं कि वह यह कर पाएंगे कि नहीं। हो सकता है आर्थिक रूप से कमजोर पड़ जाऊं। मैंने कहा, भाई फाइनेंसियली मदद मैं कर दूंगा। मेरा मानना है, जब तक गांव को तीर्थ नहीं मानेंगे तब तक कुछ नहीं होगा। मंदिर जाने पर जो हमारी भावना होती है। वहीं भावना गांव के लिए होनी चाहिए। अगर ऐसा हो जाता है तो स्मार्ट विलेज बनने से कोई रोक नहीं सकता।
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