जल, जंगल, जमीन… उत्तराखंड (Uttarakhand) के पास बहुत प्राकृतिक संसाधन हैं। ऐसे रिन्यूएबर रिसोर्सेस हैं, जो पानी से लेकर जमीन तक सबको जिंदा रखते हैं। यह सोचनीय स्थिति है कि जिन स्रोतों का रखरखाव हम करते हैं, उनका दोहन अन्य लोग कर रहे हैं। उत्तराखंड का तेजी से दोहन हो रहा है। यह एक ऐसा सोर्स बन गया है जो अन्य लोगों को संपन्न बना रहा है लेकिन यहां के मूल निवासी शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसी मूलभूत सुविधाओं का इंतजार कर रहे हैं। इन्हीं की तलाश में पहाड़ खाली हो रहे हैं और बाहर से बड़ी संख्या में लोग पहाड़ों में जमीनों की खरीद-फरोख्त कर रहे हैं। अब तो संकट प्रतिनिधित्व का भी खड़ा हो गया है। परिसीमन और भू-कानून ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर राज्य गठन के बाद से ही काम करना शुरू कर देना चाहिए था। हमने बहुत देर कर दी, लेकिन देर आए दुरुस्त आए। अच्छी बात ये है कि लोग अब इस पर चर्चा कर रहे हैं। इन मूलभूत मुद्दों में रुचि दिखा रहे हैं। क्यों आज ये मुद्दे इतने जरूरी हो गए हैं, क्या हमने देर कर दी? हमने कितनी देर कर दी? इस पर हमें कितना काम करना चाहिए? अब इस पर आगे क्या हो सकता है? इन दोनों मुद्दों पर बात करने के लिए हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल यूनिवर्सिटी से बेहतर जगह नहीं हो सकती। विषय के जानकार कह लीजिए या अनुभवी लोग, यहां से निकली बात दूर तक जाती है। teerandaj.com के सवाल और 8 प्रोफेसरों के जवाब और विचार…।
कुछ डग भरे हैं, अभी तो उड़ान शेष है…
प्रत्यक्ष युग ने देखा, अनुमान शेष है…
जो बहा ले चले हो तुम संग पवन निराली…
सुगंधित समीरण का अभियान शेष है…
रवि रश्मि बांध पाए नहीं ऐसी कोई गठरिया…
सतरंगी इंद्रधनुष का वितान शेष है…
सो न सकोगे तुम भी जो मैं न सो सकी तो
अभी मेरा मानदेय अनुदान शेष है
संकल्पों की लेखनी है ऐसे नहीं थकेगी
बंधन जो तोड़ डाले विधि विधान शेष है… – डा. कविता भट्ट (शैलपुत्री)
1.क्या हमने भू-कानून के महत्व और परिसीमन को समझने में देर कर दी?
प्रो. (डा.) अजय सिमल्टी, एचएनबीजीयू
यह हमारी त्रासदी रही है कि हमें बिना मांगे या बिना आंदोलन किए कुछ मिला ही नहीं। आज परिसीमन की समस्या के रूप में एक प्रश्नचिह्न हमारे अस्तित्व पर लग गया है। आज पलायन का जो दंश है, उसी के चलते तो पहाड़ी राज्य की परिकल्पना रखी गई थी। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि हम बैक टू स्क्वायर वन आ गए हैं। आगे क्या करना है यह हमें अभी के अभी सोचना पड़ेगा। मुझे लगता है कि पहाड़ी राज्य में जैसे-जैसे प्रतिनिधित्व कम होता चला जाएगा, हम वापस उसी स्थिति में आ जाएंगे जैसे हम उत्तर प्रदेश में थे। परिसीमन के विषय में ठोस कदम उठाए जाएं, जिससे हमारा प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो। एक पहाड़ी राज्य की परिकल्पना जिसके लिए लोगों ने गोलियां खाई थी, जिसके लिए लोगों ने बलिदान दिए। वह कोई नहीं भूल सकता है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो मेरी चिंता यह है कि आने वाली पीढ़ी को शायद एक नए पहाड़ी राज्य के लिए आंदोलन न करना पड़े। यह बहुत ही चिंतनीय विषय है और उसके बाद एक और महत्वपूर्ण विषय जिसे हम अपने पहाड़ी राज्य हिमाचल से नहीं सीख पाए, जिसका भू-कानून बहुत सख्त है। अपने लोगों को फायदा पहुंचाने के लिए क्या हम अपने पड़ोसी से नहीं सीख सकते हैं? अपनी जमीन के लिए क्या हमारी चिंता वाजिब नहीं है? समय आ गया है कि इस जन्मभूमि के लिए सब लोग अपने-अपने परिक्षेत्र में संगठित हो। हमारा सरकार और सरकार के नुमाइंदों से यह विनम्र निवेदन है कि इसको समय रहते सुलझा लीजिए, वरना एक जन आंदोलन पक रहा है और तैयार हो रहा है। तैयार हो जाइए उस आवाज को सुनने के लिए कि ‘बोल पहाड़ी कुछ तो बोल, मत बोल हल्ला, कुछ तो बोल।’
2.जल, जंगल, जमीन सबकुछ है, क्यों अस्तित्व से जुड़े मुद्दों पर खुलकर बात नहीं करते हैं?
प्रो. (डा.) जेपी मेहता, एचएनबीजीयू
उत्तराखंड आंदोलन जब हुआ था तो मैं भी उसका हिस्सा था। मुद्दा सिर्फ उत्तराखंड का नहीं था, उसके साथ कई परिस्थितियों को उठाया गया था जो कि उत्तराखंड बनने से पहले यूपी के अंतर्गत सुलझाए नहीं गए थे। उसमें कई सारे मुद्दे थे, जिसमें भू-कानून से रिलेटेड भी मुद्दा था, जिसमें 370 की बात हुई थी। 370 नहीं दे सकते थे तो 371 की बात हुई थी। 371 के बाद बहुत सारे अमेंडमेंट किए और उन्हें एडॉप्ट किया। हिमाचल में वाईएस परमार बहुत विजनरी थे, उन्होंने 1978 में भू-कानून पर धारा 2 के अंतर्गत व्यवस्था बनाई थी। उस व्यवस्था के तहत कई सारी ऐसी चीजें थी, जो आज सुलझ सकती थी। लेकिन हुआ ये कि हमारे राजनीतिज्ञ उतने मैच्योर नहीं निकले और यहां तमाम मुद्दे खड़े होते गए। जिस तरह से नगर निकायों और नगर पालिकाओं को एक्सटेंशन दिया जा रहा है, यह सबसे बड़ी प्रॉब्लम होने वाली है। अगर हमें कोई आदर्श भू-कानून लाना है तो सबसे पहले 1978 में धारा 2 हमारे लिए ऑब्सटेकल है, अगर उसे हटा दिया जाए तो एक आदर्श भू-कानून बन सकता है। अब जल, जंगल, जमीन की बात रही तो भू-कानून सिर्फ एक एक्ट नहीं है, वह हमारी सारी परिस्थितियों का समावेश है। मैं एक उत्तराखंडी होने के नाते यह कह सकता हूं कि वह हमारी सांस्कृतिक विविधता है। हमारे इकोसिस्टम में अगर बाहर से कोई फॉरेन एलिमेंट आएगा, जमीन लेगा और बसावट करेगा तो वह हमारी सामाजिक व्यवस्था के अनुसार नहीं रहेगा। यहां के जंगल, जमीन, जल और वातावरण के साथ उसका कोई अटैचमेंट नहीं रहेगा। अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए यहां पर रिन्यूएबल रिसोर्सेस हैं जो उत्तराखंड को लंबे समय के लिए सस्टेन रख सकते हैं।
3.अगर पहाड़ की महिला के मन में भविष्य को लेकर आशंका है, तो मामला गंभीर है?
– प्रो. (डा.) हिमांशु बौड़ाई, एचएनबीजीयू
जब हम उत्तराखंड आंदोलन की बात करते हैं तो उसके पीछे एक वाइड परसेप्शन था। चाहे वह सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक या जल, जंगल, जमीन धरोहर हो, ये सारी चीजें उसमें शामिल थीं। आंदोलन के पीछे मूल कारण यह था कि हमारा अपना एक अस्तित्व है, हम अपने अस्तित्व और संसाधनों के माध्यम से सरवाइव कर सकते हैं। इस आंदोलन में सबसे ज्यादा सक्रियता महिलाओं की रही। वह महिलाएं ही थी जिन्होंने उत्तराखंड को सुरक्षित रखा। पुरुषों को काम के सिलसिले से बाहर जाना पड़ता था और वह यहां टिकी रहीं और महिलाओं ने संरक्षक की भूमिका निभाई। इसलिए महिलाओं ने सक्रिय रूप से उत्तराखंड आंदोलन में भाग लिया। उत्तराखंड आंदोलन के बाद महिला प्रतिनिधित्व हमें नगण्य सा दिखाई दिया। इसके अलावा हमारे पास 70 एमएलए का प्रतिनिधित्व आया। 40000 वर्ग किमी से जो ज्यादा क्षेत्र है उसमें हमें 40 प्रतिनिधि मिले थे और तराई के 12000 वर्ग किमी में 30 प्रतिनिधि मिले। यह अनुपात जनसंख्या के हिसाब से बिल्कुल उल्टा रहा। पहाड़ का जो प्रतिनिधित्व होना चाहिए, वह कम होता जा रहा है। हिमाचल जब नया राज्य बना वहां ऐसे नियम बनाए गए, विशेष रूप से भूमि को लेकर, ताकि बाहर के लोगों को वहां बसने नहीं दिया जाए। प्रारंभ में वहां भी प्रश्न उठे कि बाहर के इन्वेस्टर यहां नहीं आएंगे? लेकिन जब वहीं के लोगों ने उस भूमि को उपजाऊ बनाया, आज लोग उस भूमि के माध्यम से संपन्न हैं। हालांकि कुछ परिवर्तन वहां हुए कि 15 साल से ज्यादा जो वहां रह रहा है उसे भूमि खरीदने का अधिकार है। फिर इसको 30 किया गया। इस तरीके का दृष्टिकोण हमने कभी एडॉप्ट नहीं किया।
4. हिमालयी लोक नीति मसौदा समिति के सुझावों का क्या हुआ?
प्रो. (डा.) कविता भट्ट, एचएनबीजीयू
बड़े लगाव के साथ हमने इस उत्तराखंड राज्य का निर्माण किया था और जिसकी धुरी महिलाएं थी। राज्य बनने के बाद हमारे सपने आकाश कुसुम हो गए। हमने जिन सपनों के साथ उत्तराखंड बनाया था, वह हमें कहीं दिखे ही नहीं। साल 2010 की बात है, बहुत सारे संगठनों ने मिलकर एक हिमालयी लोक नीति मसौदा समिति बनाई। उसमें मैं ड्राफ्टिंग कमेटी की मेंबर थी। हम लोगों ने लगभग 84 पेज का एक दस्तावेज तैयार किया। पूरा अभिलेख सरकार को सौंपा कि यहां के सस्टेनेबल डेवलपमेंट के लिए क्या होना चाहिए, विकास के मुद्दों पर किस तरह से बात होनी चाहिए, सड़कों का निर्माण किस तरीके से होना चाहिए, वन अधिनियम में ऐसे कौन-कौन से हेर-फेर होने चाहिए कि जिससे जो महिलाएं सदियों से उन जंगलों के साथ जुड़ी रही, जंगल उनकी रोजी-रोटी तो थी ही, लेकिन जैसे कि चिपको आंदोलन में गौरा देवी ने कहा कि यह जंगल हमारा मायका हैं। वह लगाव जो यहां की महिलाओं का जंगलों के साथ था या फिर जो भी हमारे परिसंपत्तियां हो उनके साथ, कहीं ना कहीं ये मुद्दे खो गए। यहां के प्रतिनिधि ठीक तरीके से उन बातों को नहीं रख पाए। 2010 की कमेटी के बाद जो 84 पेज का अभिलेख था, सरकार ने उसमें से कुछ विषय लिए, लेकिन जो उसकी रीढ़ थे जैसे कि भू-कानून की बात कर रहे हैं, वो रीढ़ नहीं ली गई। जब रीढ़ ही नहीं ली गई तो उस दस्तावेज के लागू होने का कोई महत्व ही नहीं, क्योंकि वह पूरे 11 हिमालयी राज्यों के लिए था। जिसमें हिमाचल भी है और आज हम हिमाचल को देख सकते हैं। मेरी चिंता यह है कि आज हम अपने ही राज्य में भिखारी बनकर न रह जाएं।
5.क्या प्रतिनिधित्व पर मंडरा रहे खतरे को देखते हुए परिसीमन पर संवाद तेज हो रहा है?
– प्रो. (डा.) पीएस राणा, एचएनबीजीयू
मैं तो व्यक्तिगत रूप से यह मानता हूं पर्वतीय क्षेत्र में जो हमारा राजनीतिक परिसीमन है, वह एक संकट का विषय है। इससे भविष्य में परेशानी होगी। परिसीमन, संवैधानिक रूप से जनसंख्या के अनुरुप होता है। पॉपुलेशन की स्थिति यह है कि पर्वतीय क्षेत्रों से सभी लोग मैदानों में माइग्रेट हो चुके हैं। स्वाभाविक है कि इस परिस्थिति में उनका प्रतिनिधित्व ज्यादा हो जाएगा। अब सरकार के पास दो विकल्प है। या तो परिसीमन के लिए संविधान में संशोधन लाएं, दूसरा तरीका यह है कि सरकार यहां के माइग्रेशन को रोके। क्योंकि यहां संशोधन पूरे देश में लागू होगा। तो सबसे सरल तरीका था कि पर्वतीय क्षेत्र के माइग्रेशन को रोका जाए। मेरे हिसाब से उस माइग्रेशन को रोकने के लिए यहां पर परिसीमन राजनीतिक प्रतिनिधित्व का नहीं बल्कि छोटी प्रशासनिक इकाई का भी होना चाहिए। प्रशासनिक इकाई छोटी होगी तो निश्चित रूप से जितने भी डिस्ट्रिक्ट लेवल के अधिकारी हैं वह एक जिले में बैठेंगे। मान लीजिए वर्तमान में पौड़ी जिला बहुत बड़ा है, उसके दो जिले बन जाएं। इतनी वहां ब्यूरोक्रेसी होगी। सरकारी अधिकारी जनता के डायरेक्ट संपर्क में आएंगे। सबसे बड़ी बात यह होगी कि जब एक वहां एक टाउन बन जाएगा तो जो भी वहां लोकल प्रोडक्शन होता है उसके लिए एक मार्केट मिल जाएगा। उससे यह होगा कि हमारा आदमी बाहर नहीं जाएगा। लोग बाहर शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की वजह से जा रहे हैं। इन्हीं तीन वजह से माइग्रेशन हो रहा है। क्या यह तीन बड़े मुद्दे नहीं थे कि सरकार इनके अनुरूप रणनीति बनाती। हम यहां शिक्षा की सुविधा देते, स्वास्थ्य और रोजगार की सुविधा यहां पर देते।
6.क्या रोजगार मुहैया कराने के नाम पर बहुत हद तक अस्तित्व संकट में आ गया है?
प्रो. (डा.) राकेश नेगी, एचएनबीजीयू
पहाड़ में बड़ी इंडस्ट्रीज नहीं लग सकती है। पहाड़ों के विकास की बात कर रहे हैं तो यहां के जल, जंगल, जमीन को बचाए रखने के साथ-साथ छोटे-छोटे कुटीर उद्योगों का विकास किया जा सकता है। पहाड़ों में सीढ़ी नुमा खेत हैं, यह बहुत सारे माल्टे होते हैं, और कई सारे फल होते हैं, लेकिन उनके लिए मार्केटिंग की व्यवस्था यहां पर नहीं है। जिससे फल ऐसे ही बर्बाद हो जाते हैं। उसके लिए कोल्ड स्टोरेज बनाकर, छोटे-छोटे उद्योग विकसित किए जा सकते हैं। यहां का जल, जंगल और जवानी यहीं के काम आ सकती है और इस राज्य का विकास किया जा सकता है। हमें एक बड़ी सोच रखने की आवश्यकता है। इसके साथ ही हमारे जो पॉलिसी मेकर, बुद्धिजीवी हैं सभी लोग आपस में सामंजस्य बनाकर चलें, चाहे वह पॉलीटिकल लीडर हो, सोशल वर्कर हो, क्या नया हो सकता है, सभी लोग मिलकर इस पर काम करें। दो दशक बीत चुके हैं लेकिन अभी तक हमारा दशा और दिशा पर जो चिंतन हो रहा है वह अभी तक बदल जाना चाहिए था। लेकिन आने वाले भविष्य के लिए निश्चित है कि हम लोगों को चिंतन करना चाहिए। यहां की जियोग्राफी और टोपोग्राफी को देखते हुए यहां का एक विकास मॉडल हमको तैयार करना होगा, जिससे कि आने वाले समय में लोक कल्याणकारी राज्य की हम जो बात करते हैं, उसे हम यहां के जनमानस को दे सके। इसलिए हम सभी को राज्य के विकास के लिए अपने-अपने स्तर पर समर्पित करना होगा। यह न केवल पॉलीटिकल लीडर्स का काम है, मैं मानता हूं कि जो भी इस राज्य के निवासी है, यह उन सबका काम है। हम अपने स्तर पर काम करेंगे तो आने वाला समय निश्चित ही अच्छा होगा।
7. ऐसी स्थिति क्यों आ गई कि एक नए आंदोलन की जमीन बनती दिख रही है?
प्रो. (डा.) जेपी भट्ट, एचएनबीजीयू
थोड़ा पीछे अगर हम जाएंगे तो दो-तीन बिंदु ऐसे हैं… एक तो यहां के गांव के विकास के लिए चकबंदी जरूरी थी, उसमें नंबर 0/100, अगर हम माइग्रेशन को देखते हैं उसमें नंबर 0/100, पहाड़ की भाषा की बात करें, उसमें नंबर 0/100। यहां का आदमी सरकारी नौकरी को पहली प्राथमिकता देता है। आदमी को उपनल, संविदा पर 10-15 साल हो जाते हैं, उसमें नंबर 0/100। उत्तराखंड आंदोलन जब हुआ, इसकी परिकल्पना आजादी के बाद से ही की जा रही थी, वह यहां की विषम भौगोलिक परिस्थितियों को देखकर ही की जा रही थी। क्योंकि भौगोलिक परिस्थितियां ही सामाजिक, आर्थिक परिदृश्य और संस्कृति को प्रभावित करती है। आज फिर से उस भौगोलिक स्थिति को नज़रंदाज किया जा रहा है। जो अपने आप में एक गंभीर मुद्दा है। आगे जिस रोड मैप की हमने बात कही या सोशल वेलफेयर की बात करें, उस पर कोई बात नहीं हो रही है। पहले तो हमें यह समझना होगा कि जो प्रस्तावित उत्तराखंड था उसकी राजधानी गैरसैंण थी। गैरसैंण में बैठकर हमारे नेता और ब्यूरोक्रेट्स बात करते तो कुछ हो सकता था। आधा अधूरा है। अस्थायी राजधानी में स्थायी हल नहीं ढूंढे जा सकते हैं। हम सरकार से यह गुजारिश करते हैं कि पहाड़ों में जो इंडस्ट्रीज की शुरुआत हो वह पिथौरागढ़, जौनसार और पुरोला से चलते हुए आए और फिर मैदानी क्षेत्र की ओर जाए। उससे लोगों को रोजगार उपलब्ध होगा। रोजगार उपलब्ध होगा तो माइग्रेशन रुकेगा। माइग्रेशन रुकेगा तो स्कूल खुलेंगे। हमारी बहुत सारी समस्याओं का समाधान हो सकता है। लेकिन बशर्ते हमें गैरसैंण राजधानी जो आधी अधूरी हमें मिली है, उसके लिए भी हमें एक-एक आंदोलन की आवश्यकता है।
8.पहाड़ों का दोहन किसकी कीमत पर हो रहा है? उनकी चिंता क्यों नहीं हो रही जो मूलवासी है?
प्रो. (डा.) एमपीएस बिष्ट, एचएनबीजीयू
दुर्भाग्य यह है कि आज हिमालय के इस हिस्से की सुंदरता और भव्यता को इग्नोर किया जा रहा है। जहां तक बात दोहन की है, हिमालय की सेंसिटिविटी का ध्यान कोई नहीं रख रहा है। हमें वही मिट्टी,पत्थर, कंकड़ मिल रहे हैं। इसके परिणाम हमें आए दिन नजर आते हैं। चाहे आप जोशीमठ का प्रकरण ले लीजिए। एक छोटे से नाले ऋषि गंगा में इतनी बड़ी त्रासदी हुई कि 200-250 लोग मर गए। क्या हमारी टेक्नोलॉजी है और क्या हमारा विकास? किस तरह का हम अपने पहाड़ों के लिए चिंतन कर रहे हैं, यह बड़ा ही सोचनीय विषय है। अभी आपने सिलक्यारा की बात कही, यह सारी चीजें मैं देखकर आ रहा हूं और इस बात को लेकर मैं चिंता में रहता हूं कि क्यों नहीं यहां की भौगोलिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए विकास योजनाओं को बनाया जाए। मुझे लगता है कि कहीं ना कहीं हमारे राजनीतिज्ञ या जो भी हमारे नीति निर्धारक हैं, उनकी सोच इस बात से बहुत दूर है। नहीं तो आज इतनी घटनाएं नहीं होती। हम कृषि की बात करते हैं, हमारी जितनी भी ट्रेडीशनल फार्मिंग थी, ‘मंडुवा-झंगोरा खाएंगे, उत्तराखंड बनाएंगे’, आज न मंडुवा, झंगोरा है, न उत्तराखंड है। वह लोग कहां हैं जिन्होंने ये शब्द कहे थे। मंडुवा-झंगोरा को आज दुनिया ढूंढ रही है। जो करने वाले हैं, उनको कोई सहारा नहीं है। जिस कंडाली को आज लोग पूछ रहे हैं, उसको काटने वाला गांव में कोई नहीं मिलेगा। अगर हम पलायन रोकेंगे और इन लोगों के लिए मूलभूत सुविधाएं जुटाएंगे, तब शायद हमारा हिमालय बचेगा और जिस बड़े भू-भाग को हम परिसीमन में इग्नोर करने की बात कर रहे हैं, इसको बचाने की बात करेंगे।