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    Home»एक्सक्लूसिव»Dehradun Basmati Rice: कंकरीट के जंगल में खो गया वजूद!
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    Dehradun Basmati Rice: कंकरीट के जंगल में खो गया वजूद!

    Dehradun Basmati Rice का वजूद मिटता जा रहा है। उत्तराखंड और देहरादून से प्यार करने वालों के लिए यह किसी सदमे से कम नहीं होना चाहिए। कई दशकों पहले तक इस शहर की ब्रांडिंग का माध्यम हुआ करता था देहरादूनी बासमती। कुछ मानवजनित तो कुछ प्राकृतिक कारणों से इसकी महक गुम होती जा रही है। सरकारी तंत्र सर्वे कर कारणों-परेशानियों का पता तो कर रहा है। लेकिन, बड़ा सवाल तो इसके वजूद का है। यह विडंबना ही है कि भारी मांग के बावजूद देहरादूनी बासमती का उत्पादन अभूतपूर्व रूप से घट रहा है। जो कारण गिनाए जा रहे हैं, उसमें सबसे पहला शहरीकरण है। कारण जो भी हो उत्तराखंड की एक विरासत पर विलुप्त हो जाने का संकट है।
    Arjun Singh RawatBy Arjun Singh RawatJuly 15, 2025Updated:July 15, 2025No Comments
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    Dehradun Basmati Rice का वजूद मिटता जा रहा है। उत्तराखंड और देहरादून से प्यार करने वालों के लिए यह किसी सदमे से कम नहीं होना चाहिए। कई दशकों पहले तक इस शहर की ब्रांडिंग का माध्यम हुआ करता था देहरादूनी बासमती। कुछ मानवजनित तो कुछ प्राकृतिक कारणों से इसकी महक गुम होती जा रही है। सरकारी तंत्र सर्वे कर कारणों-परेशानियों का पता तो कर रहा है। लेकिन, बड़ा सवाल तो इसके वजूद का है। यह विडंबना ही है कि भारी मांग के बावजूद देहरादूनी बासमती का उत्पादन अभूतपूर्व रूप से घट रहा है। जो कारण गिनाए जा रहे हैं, उसमें सबसे पहला शहरीकरण है। कारण जो भी हो उत्तराखंड की एक विरासत पर विलुप्त हो जाने का संकट है।

    चावल दुनिया में दूसरा सबसे व्यापक रूप से उगाया जाने वाला अनाज है, जिसमें समृद्ध आनुवंशिक विविधता है। यह पृथ्वी पर आधी से अधिक जनसंख्या का मुख्य भोजन है। प्रमुख भारतीय चावल वैज्ञानिकों डा. आर. एच. रिछारिया और डा. एस. गोविंदसामी की मानें तो वैदिक और वर्तमान साहित्य के साक्ष्य बताते हैं कि भारत में चावल की 2 लाख से अधिक किस्में हैं, जो दुनिया के किसी भी अन्य देश की तुलना में एक समृद्ध जैव विविधता है। अलग-अलग कृषि जलवायु परिस्थितियों में बंटी किस्मों के प्राकृतिक चयन, गुणवत्ता और सौंदर्य वरीयताओं के किसानों द्वारा निरंतर चयन के कारण चावल की एक किस्म का समूह विकसित हुआ, जो बासमती चावल के रूप में लोकप्रिय हुआ। उत्तराखंडी की दून घाटी से निकली बासमती की एक अलग महक ने दुनिया को कब अपना मुरीद बना लिया पता ही नहीं चला। पूरी तरह आर्गेनिक चावल की यह किस्म देहरादूनी बासमती कहलाई। आज देहरादूनी बासमती अस्तित्व के संकट से गुजर रही है।

     जब सबकुछ इतना अच्छा था तो फिर क्या हुआ बाजार से देहरादूनी बासमती गायब होती चली गई और उसकी जगह वैकल्पिक किस्मों ने ले ली। दिखने और खिलने में भले ही ये नई किस्में बहुत अच्छी हों लेकिन देहरादूनी बासमती की महक कहीं खो गई। इसके कारणों का पता लगाने के लिए जैव विविधता बोर्ड ने साल 2019 में एक शोध कराया था, जिसमें दून घाटी में बासमती की खेती करने में आने वाली दिक्कतों, जहां खेती बंद कर दी गई, वहां के कारण की पहचान की कोशिश की गई। साथ ही देहरादूनी बासमती के बीज संरक्षण, बीज भंडारण, बीज उपचार, खेती, कटाई आदि से जुड़ी अतीत और वर्तमान पारंपरिक प्रथाओं के बारे में भी अध्ययन किया गया। यह शोध उत्तरा रिसोर्स डेवलपमेंट सोसायटी (यूआरडीएस) ने किया था।

     

    डा. विनोद कुमार भट्ट, हरिराज सिंह, बालेंदु जोशी और कृषि विभाग के तत्कालीन निदेशक एस. एस. रसायिली (आईएफएस) की टीम ने इस शोध के दौरान पाया कि देहरादून में देहरादूनी बासमती की खेती 410 हेक्टेयर से सिर्फ 158 हेक्टेयर पर आ गई है। सहासपुर, विकासनगर, रायपुर, और दोईवाला ब्लॉक्स में देहरादून जिले के 79 गांवों के 1240 किसानों को सर्वे में शामिल किया गया। 2018 में 410.18 हेक्टेयर जमीन पर 680 किसान देहरादूनी बासमती की खेती कर रहे थे। 2022 में 157.83 हेक्टेयर जमीन पर 517 किसान रह गए हैं। इसी तरह अन्य बासमती प्रजातियां, जो पहले 420.38 हेक्टेयर जमीन पर 560 किसानों द्वारा बोई जाती थीं, वे 2022 में 486 किसानों द्वारा 180.76 हेक्टेयर में सिमट गई है। हर साल खेती का रकबा, उत्पादन और किसानों की संख्या कम होती चली गई।

    कभी धान की चक्की कहा जाने वाला देहरादून कंक्रीट के जंगलों में तब्दील हो चुका है। शहरीकरण के कारण भूमि की कीमत बढ़ गई। इस कारण किसान अपनी भूमि बेचने और आजीविका के विकल्प को बदलने के लिए प्रेरित हुए। यह रिपोर्ट कहती है कि दून घाटी के कई किसानों ने कम उपज के कारण भी देहरादूनी बासमती उगाना छोड़ दिया है। उन्होंने अन्य चावल किस्मों जैसे कि तरावड़ी (एचबीसी 19), शरबती, कस्तूरी, वर. 1121, सुगंधा और पंत-4 की खेती शुरू कर दी है। 5 फरवरी, 2016 से ‘बासमती’ को जीआई के रूप में पंजीकृत किया गया है। स्थान और संबंधित विशिष्ट गुणवत्ता के कारण भारत सरकार के भौगोलिक संकेत (जीआई) माल (पंजीकरण और संरक्षण) अधिनियम 1999 के तहत संरक्षित है। भौगोलिक संकेत का मतलब होता जो किसी विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र से उत्पन्न होती हैं, जिनमें अद्वितीय विशेषताओं के कारण गुण या प्रतिष्ठा होती है। बासमती चावल सदियों से शिवालिक और हिमालय की तलहटी में उगाया जाता है, जो पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड और पाकिस्तान के पंजाब में फैला हुआ है। उपर्युक्त क्षेत्र की कृषि-जलवायु परिस्थितियों में उगाए जाने पर उनके विशेष गुण होते हैं।

    विस्तार से किया गया यह सर्वे फाइलों में दब कर रह गया, इसके बाद क्या प्रगति हुई…। सरकारी आंकड़ेबाजी से इतर ‘अतुल्य उत्तराखंड’ की टीम ने देहरादूनी बासमती के गुम होने का कारणों को टटोलने के लिए सभी हितधारकों से बात की। शोधकर्ताओं की टीम के साथ-साथ देहरादूनी बासमती की खेती करने वाले किसानों, ट्रेडर्स, कंपनियों, एनजीओ से भी इसके कारणों को समझने की कोशिश की गई।

    किसानों को नहीं मिलती सरकारी तंत्र की मदद

    देहरादून के डकानी में अमूल्य निधि ऑर्गेनिक फॉर्म का संचालन करने वाले किसान 72 साल के एसपी बहुगुणा से देहरादूनी बासमती के कम होते उत्पादन पर सवाल पूछा गया तो उनकी भौंहें तन गईं। उन्होंने कई कारण गिनाएं। सरकार से लेकर कृषि बोर्ड के अधिकारियों पर ढेरों सवाल उठा दिए। उन्होंने कहा, यह सरासर फर्जी बात है कि बाजार में मांग बहुत है। असली देहरादूनी बासमती की मांग अगर होती तो किसान उसे जरूर पैदा करते। दूसरी बात देहरादूनी बासमती लगाने से लेकर बेचने तक की प्रक्रिया में किसान को सरकारी तंत्र से कोई सहयोग नहीं मिलता है। पहले कुछ कंपनियां आती थीं। किसानों से सीधे खरीदारी करती थी, अब नहीं आती हैं। छोटे-छोटे व्यापारी धान लेकर जाते हैं। उनकी कोशिश रहती है कि किसानों को कितना ठग लें। सारा मुनाफा अकेले कमाने की फिराक में रहते हैं। किसान एसपी बहुगुणा बताते हैं, देहरादूनी बासमती पूरी तरह ऑर्गेनिक खेती है। इसमें रासायनिक खादों का इस्तेमाल किया गया तो इसकी महक गायब हो जाती है। लेकिन, तमाम किसान रासायनिक खादों का इस्तेमाल कर इसे पैदा कर रहे हैं। व्यापारी इसे सेंट में डुबा देते हैं। इसके बाद बेचते हैं। लोग महक से भ्रमित हो जाते हैं। लेकिन, ऐसे चावल की महक पकाने के बाद गायब हो जाती है। दिक्कत कहां आ रही है? इस पर वह कहते हैं, सरकार रासायनिक खादों पर सब्सिडी देती है लेकिन आर्गेनिक खाद यानी घर में तैयार की जाने वाली खादों पर वह कुछ नहीं देती। देहरादूनी बासमती में इसी खाद का इस्तेमाल किया जाता है।

    कैनाल के अंडरग्राउंड होने से छोड़ दी खेती

    माजरा में एक छोटी सी चावल मिल चलाने वाले योगेश कक्कड़ सड़क चौड़ीकरण के लिए देहरादून की पश्चिमी नहर को भूमिगत चैनलाइजेशन किया जाना इस इलाके में खेती से विमुख होने का मुख्य कारण मानते हैं। वह कहते हैं, सरकार द्वारा सड़क चौड़ीकरण के लिए पश्चिमी नहर के भूमिगत चैनलाइजेशन के बाद, संपत्ति की दरें कई गुना बढ़ गईं। अधिकांश किसानों ने अपनी जमीनें प्रॉपर्टी डीलरों और बिल्डरों को बेच दीं। परिणामस्वरूप बासमती की खेती का क्षेत्र कम हो गया। वह बताते हैं, किसानों के सामने भंडारण की समस्या मुख्य रूप से होती है। चावल मिल तक धान को लाने में भी उन्हें मुसीबतों का सामना करना पड़ता है। देहरादून में ड्रायर और सॉर्टेक्स सुविधा वाली अच्छी गुणवत्ता वाली प्रसंस्करण इकाइयों (मिलों) का अभाव है। ड्रायर, डिस्टोनर और सॉर्टेक्स वाली ऐसी मिल चावल की गुणवत्ता में सुधार लाएगी, इसलिए गुणवत्ता वाले चावल की राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बाजार में निश्चित रूप से अधिक मांग है। ग्राहक इन दिनों गुणवत्ता के प्रति सजग हैं, क्योंकि वे चावल की एक समान गुणवत्ता चाहते हैं, जो स्थानीय छोटी मिलों में संभव नहीं है।

    प्रदूषित पानी ने पैदा की समस्या

    किसान आनंद कुमार कहते हैं, पिछले एक दशक से शहर का वेस्ट नदियों में डाल दिया जा रहा है। इस वजह से नदियां, नहरें दूषित हो गईं। प्रदूषित पानी कार्बनिक पदार्थों से भरपूर होने के कारण पत्तियों की वृद्धि में मदद करता है जिससे पत्तियां गिरने की समस्या होती है। देहरादूनी बासमती का क्षेत्र लिमिटेड है। इसको चाहिए खादर की जमीन। बरसात और प्राकृतिक पानी से यह फसल होती है। पिछले कुछ साल से धान की कीमत नहीं बढ़ी है। यानी, बाजार में कितने में बिक रहा है इसका फायदा किसान को मिल ही नहीं रहा है। 40-45 रुपये किलो के हिसाब से स्थानीय व्यापारी इसे खरीद रहे हैं। लागत बढ़ गई है, मुनाफा न के बराबर हो गया है। इसलिए किसान दूसरी किस्म के बासमती की ओर बढ़ गए हैं। आखिर में उन्हें भी तो अपना घर-परिवार चलाना है।

    सरकार उठाए अच्छे बीज की जिम्मेदारी

    आर्गेनिक अनाज पर काम करने वाली कंपनी नेचर बायो फूड्स के प्रोजेक्ट मैनेजर विजय भट्ट कहते हैं कि हमारे देखते-देखते प्रति बीघा उत्पादन ढाई-तीन क्विंटल से डेढ़-दो क्विंटल हो गया है। गुणवत्ता के बीज कुछ ही किसानों के पास हैं। आठ दस गांव ही हैं जहां गुणवत्तायुक्त देहरादूनी बासमती का उत्पादन हो रहा है। बाकी किसान हाईब्रिड बासमती उगाने लगे हैं। क्योंकि यह धान खेत से उठ जाता है। प्रोडक्शन ज्यादा होता है। पैसे भी मिल जाते हैं। रही बात देहरादूनी बासमती बचाने की तो सरकार को किसानों को तकनीकी सहायता करनी होगी। जैसे, गुणवत्तायुक्त बीज उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी उसे उठानी चाहिए। इससे स्थितियां काफी सुधर जाएंगी।

    560 किसान कर रहे खेती

    देहरादून जिले के सहसपुर, विकासनगर, रायपुर और डोईवाला ब्लॉक के 79 गांवों में रहने वाले 560 किसान आज भी देहरादूनी बासमती उगा रहे हैं, जबकि बाकी किसान दूसरे आर्थिक कारणों से बासमती की दूसरी किस्मों की ओर रुख कर चुके हैं। उत्तराखंड जैव विविधता बोर्ड द्वारा कराए गए एक अध्ययन में यह जानकारी सामने आई थी। इसमें एकत्रित की गई जानकारी में किसान का नाम और गांव, देहरादूनी बासमती की खेती के तहत कुल भूमि, किसान द्वारा उगाई गई देहरादूनी बासमती का कालानुक्रमिक रिकॉर्ड और उसके खेत की जीपीएस लोकेशन शामिल थी। 560 किसानों में से 5% से अधिक (35 किसान) कई पीढ़ियों से देहरादूनी बासमती की खेती करने वाले हैं।

    देहरादूनी बासमती में मिलाया जा रहा कस्तूरी

    जानकार मानते हैं, बाजार में देहरादूनी बासमती बेचने वाले कई व्यापारी हैं, लेकिन दुर्भाग्य से वे ज्यादातर हरिद्वार में उगाई जाने वाली बासमती बेच रहे हैं, जिसे बासमती टाइप-3 नहीं बल्कि बासमती 370 के नाम से जाना जाता है। इसके अलावा, कस्तूरी बासमती को देहरादूनी बासमती के साथ मिलाया जाता है। यह भी माना जाता है कि बासमती टाइप 3 या देहरादूनी बासमती का मूल स्रोत एक ही है, इसलिए वे एक-दूसरे से काफी मिलते-जुलते हैं। आम आदमी के लिए इन दोनों में अंतर करना मुश्किल है, केवल विशेषज्ञ ही अंतर पहचान सकते हैं। इसलिए दून घाटी की इस विरासत बासमती को संरक्षित और सुरक्षित रखने के लिए देहरादूनी बासमती के लिए अलग से जीआई टैग मिलना बेहद जरूरी है, अन्यथा इस अनोखे चावल के हमेशा के लिए खत्म हो जाने का खतरा है।

    बासमती के आकार में भिन्नता

    अगर बारीकी से देखा जाए अलग-अलग जगहों पर देहरादूनी बासमती के आकार में कुछ भिन्नता नजर आती है, जिसे कई लोगों ने भी स्वीकार किया है। उदाहरण के लिए, जगतपुर खादर क्षेत्र में उगाई गई एक किस्म देहरादून के अन्य हिस्सों में उगाई गई बासमती से आकार में छोटी है, लेकिन स्वाद, सुगंध और पकने के बाद दाने के आकार में कोई अंतर नहीं देखा गया। यह बासमती किस्म अपने आकार से लगभग दोगुनी लंबी हो जाती है और पकने पर मुड़ भी जाती है। पके हुए चावल भी खुले बर्तन में पकाने पर सुंदर दिखते हैं, क्योंकि प्रत्येक दाने को एक दूसरे से आसानी से अलग किया जा सकता है। दून घाटी में उगाई जाने वाली देहरादूनी बासमती के वास्तविक और अन्य प्रकारों का पता लगाने के लिए डीएनए फिंगर प्रिंटिंग और कीमोटैक्सोनॉमी सहित उचित शोध और आणविक अध्ययन की निश्चित रूप से आवश्यकता है।

    महंगा होता जा रहा श्रम

    बासमती की खेती में मेहनत बहुत लगती है, खेत की तैयारी, नर्सरी तैयार करना, निराई-गुड़ाई, कटाई से लेकर मड़ाई, सुखाने और भंडारण तक हर चरण में श्रम की आवश्यकता होती है। यह कारक भी किसानों को बासमती से दूर कर रहा है। हर गुजरते साल के साथ श्रम महंगा होता जा रहा है। कुछ गांवों में तो रोपाई और कटाई के मौसम में मजदूर मिलना भी मुश्किल हो जाता है। जल प्रदूषण में वृद्धि नदियों और नहरों में जल प्रदूषण में वृद्धि किसानों की देहरादूनी बासमती में रुचि खोने और अन्य बासमती और धान की किस्मों की ओर रुख करने के लिए महत्वपूर्ण कारकों में से एक बन गई है।

    कम उत्पादकता के चलते मोह भंग

    कम उपज के कारण भी देहरादूनी बासमती से किसानों ने मुंह मोड़ा है। उन्होंने अन्य चावल की किस्में जैसे कि तरावड़ी (एचबीसी 19), शरबती, कस्तूरी, वर. 1121, सुगंधा और पंत-4 की खेती शुरू कर दी है। किसानों के अनुसार गैर ऑर्गेनिक बासमती केवल 10 क्विंटल प्रति एकड़ देता है, जबकि कई अन्य बढ़िया अनाज वाली धान की किस्में हैं जो देहरादूनी बासमती की तुलना में दोगुनी से अधिक उपज देती हैं, जिससे बेहतर आर्थिक लाभ मिलता है। कम उत्पादकता के कारण, देहरादूनी बासमती की कीमत अन्य बासमती किस्मों की तुलना में तुलनात्मक रूप से अधिक है, जो कई खरीदारों को दूर कर देती है। किसानों ने यह भी बताया कि अन्य बासमती किस्मों की तुलना में इसे उगाने में अधिक मेहनत लगती है क्योंकि अधिकांश काम हाथ से किए जाते हैं जिसके लिए अधिक श्रम की आवश्यकता होती है।

    अनिश्चित बाजार

    अधिकांश किसानों का मानना ​​है कि देहरादूनी बासमती का बाजार काफी अनिश्चित है। बड़ी कंपनियों ने इसका व्यापार बंद कर दिया है। किसान खरीदारों का इंतजार करते रहते हैं। कई बार महीनों तक इंतजार करना पड़ता है और फिर स्थानीय व्यापारियों को कम कीमत पर बेच देते हैं। कई किसानों के अनुसार, 1998 में बासमती का पेटेंट होने के बाद, कई व्यापारियों, सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों ने बासमती खरीद में रुचि दिखाई। 2017 तक देहरादूनी बासमती की मार्केटिंग में कोई समस्या नहीं थी। देहरादूनी बासमती की राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों ही बाजारों में अच्छी मांग थी। नवदान्या जैसे कई गैर-सरकारी संगठनों ने देहरादूनी बासमती के संरक्षण और संवर्धन में रुचि दिखाई थी और इसके सहयोगी संगठन नवदान्या एग्रोटेक रिसर्च फाउंडेशन (एनएआरएफ) ने मार्केटिंग में रुचि दिखाई थी, जो बाद में नवदान्या नेचुरल प्रोडक्ट्स प्राइवेट लिमिटेड (एनएनपीपीएल) बन गया। यह अब भी देहरादूनी बासमती के प्रचार और मार्केटिंग को जारी रखे हुए है।

    1999 में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा एक कार्यक्रम शुरू किया गया, जिसे विविध कृषि सहायता परियोजना (डीएएसपी) कहा जाता है, जो बाद में उत्तरांचल विविध कृषि सहायता परियोजना (यूएडीएएसपी) बन गया। यूएडीएएसपी ने 2003 में देहरादूनी बासमती के प्रचार और संरक्षण के लिए कार्यक्रम शुरू किया। इनका 2005 से कोहिनूर फूड्स लिमिटेड के साथ मार्केटिंग समझौता था, जिसका बाद में यूएसए की मेसर्स मैककॉर्मिक इंग्रीडिएंट्स साउथईस्ट एशिया प्राइवेट लिमिटेड के साथ विलय हो गया। ये कंपनी 2017 तक देहरादूनी बासमती खरीदती रही, लेकिन फिर उन्होंने किसानों से खरीदना बंद कर दिया। इससे कुछ समय के लिए बाजार में गिरावट आ गई। एक बड़ा कारण किसानों की अन्य पारंपरिक बासमती जैसे तरावड़ी (एचबीसी 19) में रुचि लेना भी रहा, जिन्होंने बेहतर पैदावार के कारण कस्तूरी, पूसा बासमती 1 जैसी बासमती और पंत 4 जैसी बढ़िया किस्म की बासमती पर भी काम किया। हालांकि, 2 साल की गिरावट के बाद देहरादूनी बासमती ने रफ्तार पकड़ी, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में पारंपरिक बासमती की मांग बढ़ रही है।

    सहायक तंत्र का अभाव

    किसानों के अनुसार, देहरादूनी बासमती के लिए कोई सहायक तंत्र नहीं है। सहायक तंत्र, खासकर तकनीकी जानकारी की उपलब्धता पूरी तरह से गायब है। कृषि विज्ञान केंद्र (केवीके) किसानों की सलाह की जरूरतों को पूरा करने के साथ-साथ बासमती की खेती के दौरान मिट्टी के स्वास्थ्य, रोग और कीट प्रबंधन और यहां तक ​​कि भंडारण जैसे समस्याओं के समाधान के लिए बहुत अच्छी तरह से सुसज्जित नहीं हैं।

    गुणवत्तापूर्ण बीज की कमी

    गुणवत्तापूर्ण बीज की उपलब्धता देहरादूनी बासमती किसानों की प्रमुख समस्याओं में से एक है। हालांकि, किसान अपनी फसल से सबसे अच्छी गुणवत्ता वाले 56 देहरादूनी बासमती (बासमती चावल – टाइप-3) बीज को बचाकर रखते हैं, लेकिन अगर उचित देखभाल और चयन नहीं किया जाता है तो समय के साथ बीज की गुणवत्ता खराब हो जाती है। नवदन्या देहरादूनी बासमती के संरक्षण और संवर्धन के लिए काम कर रही है। यह देहरादूनी बासमती के गुणवत्तायुक्त बीजों का संरक्षण और संवर्धन कर रही है। इसके अलावा, भुड्डी, भूड़पुर, हरिपुर और जगतपुर खादर गांव में कुछ किसान ऐसे हैं जो गुणवत्तापूर्ण बासमती बीज रखते हैं। ये निश्चित रूप से अच्छी पहल हैं, लेकिन दून घाटी के किसानों की मांग को पूरा करने के लिए ये अपर्याप्त हैं। देहरादूनी बासमती की गुणवत्ता को बनाए रखने के साथ-साथ गुणवत्तापूर्ण बीजों की उपलब्धता की मांग को भी पूरा करने की आवश्यकता है। उत्तराखंड को सामुदायिक बीज बैंकों के माध्यम से एक विशिष्ट बीज संरक्षण कार्यक्रम को प्राथमिकता देने की जरूरत है। नवदान्या द्वारा पहले ही इसे सफलतापूर्वक किया जा चुका है।

    बासमती की किस्सागोई भी जायकेदार है…

    देहरादूनी बासमती दून घाटी में उगाई जाने वाली सबसे पुरानी फसलों में से एक मानी जाती है। लोगों के बीच कुछ कहानियां प्रचलित हैं। एक यह है कि तपोवन क्षेत्र (रायपुर) में सुगंधित चावल की खेती महर्षि (संत) वेद-व्यास ने हजारों साल पहले की थी। जिन्होंने इसे संस्कृत नाम बासमती दिया (‘बस’ का अर्थ है – सुगंध और ‘माटी’ का अर्थ है – अंदर से धारण करने वाला)। यह चावल देहरादून और हरिद्वार क्षेत्रों में वर्षों से उगाया जाता रहा है। दूसरा सिद्धांत किसानों के बीच काफी लोकप्रिय है। जिसके अनुसार जब अफगान इस क्षेत्र की ओर प्रवास कर रहे थे तो वे इस सुगंधित चावल को पश्चिमी एशिया से लाए थे। वे अपने साथ मिट्टी से भरी बांस की टोकरियों में धान के पौधे भी लाए थे। देवकी नंदन पांडे (1999) ने अपनी पुस्तक ‘गौरवशाली देहरादून’ में लिखा है कि अफगान राजा अमीर दोस्त मोहम्मद जब 1842 में राजनीतिक कैदी के रूप में देहरादून आए तो अपने साथ सुगंधित और स्वादिष्ट धान के बीज भी लाए। चूंकि, धान के बीजों को अफगानिस्तान जैसी जलवायु और मिट्टी मिली, इसलिए यह बिना किसी समस्या के देहरादून में बहुत अच्छी तरह से विकसित हुआ। बीजों को बचाने के लिए दून घाटी के किसान उन्हें बांस में रखते थे और मिट्टी से भर देते थे। बीजों को बचाने की इस तकनीक को बाद में ‘बांस मिट्टी’ (बांस का मतलब बांस और मिट्टी का मतलब मिट्टी) कहा गया, जो अंततः बासमती बन गई। देहरादून की जलवायु में बासमती चावल अफगानिस्तान की तुलना में अधिक लंबा और सुगंधित हो गया। इस बासमती को देश के अन्य हिस्सों में भी प्रयोग के लिए उगाया गया, लेकिन उनमें इसके प्राकृतिक गुणों की कमी थी। सिंह एट अल द्वारा 1997 में देहरादून के सियोला-माजरा बेल्ट में किए गए सर्वेक्षण के अनुसार, जो कभी दुनिया में सबसे बेहतरीन किस्म के बासमती चावल के उत्पादन के लिए मशहूर था, इस बेल्ट में बासमती उगाने वाले प्रमुख क्षेत्र का 80 प्रतिशत हिस्सा अब केवल आवास के लिए उपयोग किया जा रहा है। हालांकि, वर्ष 2020 तक माजरा के पास ब्राह्मणवाला में केवल कुछ हेक्टेयर कृषि भूमि बची है, बाकी अब या तो आवासीय कॉलोनी या व्यावसायिक परिसर बन गई है। माजरा ग्राम पंचायत अब नगर निगम के अधीन है और इसकी उपजाऊ भूमि जो कभी बासमती का केंद्र हुआ करती थी, दुर्भाग्य से शहरीकरण की भेंट चढ़ गई है। दून घाटी की देहरादूनी बासमती जो पहले लगभग पूरी घाटी में उगाई जाती थी, अब शहर के बाहरी इलाकों, पुराने शिमला रोड और सहसपुर, विकासनगर, रायपुर और डोईवाला विकासखंड के कुछ गांवों में उगाई जा रही है।

     

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    पत्रकारिता का लंबा करियर। एजेंसी,टीवी, अखबार, मैग्जीन, रेडियो और डिजिटल मीडिया का अनुभव। राष्ट्रीय मीडिया में 15 साल काम करने के बाद पहाड़ों का रुख। पहाड़ के मुद्दों पर खुलकर बोलने का दम। जमीन पर काम करने का जज़्बा और जुनून आज भी वैसा ही, जैसा पहले दिन था।

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    पहाड़ों से पहाड़ों की बात। मीडिया के परिवर्तनकारी दौर में जमीनी हकीकत को उसके वास्तविक स्वरूप में सामने रखना एक चुनौती है। लेकिन तीरंदाज.कॉम इस प्रयास के साथ सामने आया है कि हम जमीनी कहानियों को सामने लाएंगे। पहाड़ों पर रहकर पहाड़ों की बात करेंगे. पहाड़ों की चुनौतियों, समस्याओं को जनता के सामने रखने का प्रयास करेंगे। उत्तराखंड में सबकुछ गलत ही हो रहा है, हम ऐसा नहीं मानते, हम वो सब भी दिखाएंगे जो एकल, सामूहिक प्रयासों से बेहतर हो रहा है। यह प्रयास उत्तराखंड की सही तस्वीर सामने रखने का है।

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