- अतुल्य उत्तराखंड के लिए अर्जुन रावत
गढ़वाल और कुमाऊं की सीमा से सटे पौड़ी के बीरोखाल ब्लॉक का एक इलाका है सीली-जमरिया। यह इलाका न सिर्फ स्थानीय लोगों को नौकरियां देने के लिए चर्चा का केंद्र बना हुआ है, बल्कि दूरदराज के इलाकों से लोग यहां काम की तलाश में भी आ रहे हैं। यहां एक उत्तराखंडी की हर्बल एक्सट्रैक्ट कंपनी पहाड़ में इंडस्ट्री के लिए नजीर बन गई है। स्थानीय गांव जमरिया के पेशे से माइक्रोबायोलॉजिस्ट हर्षपाल सिंह चौधरी ने अपने गांव में ही अंबे फाइटो एक्सट्रैक्ट प्राइवेट लिमिटेड कंपनी स्थापित की है, जो इस क्षेत्र के कई लोगों को रोजगार उपलब्ध करा रही है।
यहां प्रोडक्शन का काम देख रहीं सुरजी देवी को इस कंपनी में काम करते हुए 14 साल हो गए हैं। वह यहां पैकेजिंग का काम करती हैं। सुरजी देवी बतातीं हैं, हमें बाहर ट्रेनिंग दी गई, उसके बाद हम यहां काम कर रहे हैं। यहां बहुत कुछ सीखा है। पहाड़ों में रोजगार नहीं है और आप लोगों को गांव में ही रोजगार मिल गया, कैसा लगता है? मुस्कुराते हुए सुरजी देवी इस सवाल का जवाब देती हैं, यहां काम करने वाले कुछ लोग कुमाऊं से तो कुछ नेपाल से भी आए हैं। लेकिन, अधिकांश यहीं के हैं। गांव में बाहर के लोग भी हैं। गांव वाले तो हैं ही। जब सुरजी से पूछा गया कि भरा-पूरा गांव कैसा लगता है? …तो तुरंत बोलीं, बहुत अच्छा लगता है। अब तो कहीं बाहर जाने का मन ही नहीं करता। वह बताती हैं, हम लोग ड्यूटी के साथ अपने घर का काम भी अच्छे से कर लेते हैं। खेती में भी हाथ बंटाते हैं। बच्चों की देखभाल भी अच्छे से हो रही है। आसपास घूमते-टहलते भी हैं। सुरजी देवी को अपने ही गांव में 22 हजार रुपये सैलरी मिल रही है।

यहां से तकरीबन 10 किलोमीटर दूर स्थित गांव किनाथ की सरिता भी प्रोडक्शन का काम करती हैं। गांव से रोज आना-जाना संभव नहीं है तो जमरिया गांव में ही कमरा ले लिया है। पति नहीं हैं, बच्चों का एडमिशन यहीं करा लिया है। हालांकि अपना गांव भी नहीं छोड़ा है, अक्सर आती-जाती रहती हैं। वह यहां काम कर काफी खुश दिखाई देती हैं। जमरिया गांव की ही प्रमिला देवी छह-सात साल से काम कर रही हैं। घर के रोजमर्रा के काम के बीच इनका अच्छा सामंजस्य बन गया है। वह खेतीबाड़ी भी करती हैं। बच्चों को स्कूल भेजने के बाद काम पर आती हैं। वह कहती हैं, सैलरी समय पर मिल जाती है। अपने गांव में ही रहती हूं, इसलिए पैसे भी बच जाते हैं।
खड़कोली के शिव सिंह चार साल से इस कंपनी में काम कर रहे हैं। इसके पहले वह रुद्रपुर में रहते थे। वहां अच्छा था या यहां पर ? यह पूछने पर कहते हैं, घर पर काम करने का मजा ही कुछ और होता है। यहां का वातावरण अच्छा है। वहां पर मच्छर-गर्मी से परेशान हो जाते थे। घर पर खेती का भी काम देख लेता हूं। गाय, बकरियां भी रखी हुई हैं, परिवार घर पर रहता है। रोज बाइक से काम पर आता हूं। यहां पर तीन शिफ्ट में काम होता है। ड्यूटी किसी भी शिफ्ट में हो, घर से ही अप-डाउन करता हूं। प्रोडक्शन में हर शिफ्ट में 15-16 लोग काम पर होते हैं। छुट्टियां भी आसानी से मिल जाती हैं।
बालम सिंह कुमाऊं के अल्मोड़ा के चित्तौड़खाल के रहने वाले हैं। वह पैकिंग का काम करते हैं। दिल्ली, जयपुर, पंजाब, चंडीगढ़, लखनऊ जैसे कई शहरों में काम कर चुके हैं। शादी के बाद पहाड़ पर ही काम करने लगे। वह कहते हैं, बाहर काम करने पर कोई खास फायदा नहीं होता। किराया, बिजली का बिल आदि भरने के बाद बचत होती ही नहीं है। ऊपर से वहां से यहां आने का किराया, समय भी ज्यादा लगता है। यहां सब ठीक है। बालम ने यहां किराये पर कमरा ले रखा है। परिवार में पत्नी, दो बेटियां और मां हैं। मां गांव में ही रहती हैं, इसलिए वह अक्सर गांव जाते रहते हैं। गांव नजदीक है लेकिन, नियमित बस की सुविधा न होने के कारण यहीं रहने लगे हैं। बालम सिंह हंसते हुए बताता हैं कि सात-आठ साल पहले अपना बैंड भी चला चुके हैं। लेकिन, मामला जमा नहीं, इसलिए वह काम छोड़कर कंपनी में ही स्थायी हो गए। पहाड़ पर रोजगार की बात पर वह बड़े आत्मविश्वास से कहते हैं, पहाड़ पर बहुत काम है। करने वाला चाहिए। जिन्हें काम नहीं करना है उन्हीं के लिए काम नहीं है। शहरों में कमरा, किराया-भाड़ा, बिजली का बिल सबकुछ ज्यादा है, उससे से अपने पहाड़ों में ही ठीक है।
घर में रोजगार के क्या फायदे हैं? इस सवाल के जवाब में जमरिया के भारत चौधरी कहते हैं, हमारे खेत बंजर नहीं रहते हैं। हम अपनी खेती भी कर रहे हैं। सब्जी भी उगा रहे हैं। घर की जिम्मेदारियों का अच्छे से निर्वहन कर लेते हैं। बाहर तो अधिकांश पैसा रहने खाने में ही खर्च हो जाता है। भारत पांच-छह साल से काम कर रहे हैं। वह पहले गाड़ी चलाने का काम करते थे। अक्सर बाहर रहना पड़ता था। दिनचर्या अस्त-व्यस्त थी। बाहर रुकना पड़ता था। इसलिए वह गाड़ी छोड़कर कंपनी में काम करने लगे। इसी तरह जमरिया के ही सत्येंद्र चौधरी पहले ट्रांसपोर्ट में काम करते थे। काफी समय काम करने के बाद वह अपने घर की ओर लौटे और यहां पर काम शुरू कर दिया। वह पिछले आठ साल से यहां काम कर रहे हैं। पहाड़ पर इंडस्ट्री लगने के फायदे क्या होते हैं? इसके जवाब में सत्येंद्र कहते हैं, यहां जो काम कर रहे हैं उन्हें तो तनख्वाह मिलती ही है, साथ में गांव वालों का भी फायदा होता है। यहां आसपास के दुकानदारों की बिक्री बढ़ी है। यहां काम करने वाले अधिकांश लोगों ने गांव में ही कमरा किराये पर ले रखा है। इससे मकान मालिकों की आय बढ़ी है। साथ ही इनके बच्चे आसपास के स्कूलों में पढ़ते हैं। वह कहते हैं, उत्तराखंड सरकार ने जो मानक तय किया है, यहां पर उससे अधिक सैलरी मिलती है। सत्येंद्र यहां पर प्रोडक्शन के साथ एचआर एडमिन का भी काम देखते हैं।
नरेश चौधरी कुछ समय पहले ही सेना से सेवानिवृत्त हुए हैं। वह गढ़वाल राइफल पलटन में थे। उम्र कम है, किसी शहर में आसानी से काम मिल जाता इसके बावजूद उन्होंने यही काम करना पसंद किया। वह कहते हैं, यहां पर बाहर के लोग काम करने आ रहे हैं। किराये पर कमरा लेकर रहते हैं। मेरा तो गांव में ही घर है। यहां से बस दो किलोमीटर दूर है। मैं पैदल ही घर चला जाता हूं। इसलिए मैंने सोचा यही काम किया जाए। अभी प्रोडक्शन का काम देख रहा हूं। शुरुआत है। काम समझ रहा हूं। बच्चे काशीपुर में रहते हैं। वीकएंड में चला जाता हूं। सैलरी पर्याप्त मिलती है? इसपर नरेश चौधरी कहते हैं, गांव के हिसाब से बहुत ठीक है। अभी लर्निंग स्टेज पर हूं। आगे चलकर और संभावना है।
कंपनी के जीएम डॉ. सीएस जोशी खुद पहाड़ से हैं, इसलिए वह पहाड़ की कठिनाइयों-चुनौतियों से वाकिफ हैं। चंपावत के मूल निवासी डॉ. जोशी ने नैनीताल से अपनी शिक्षा पूरी की है। इसके बाद उन्होंने गवर्नमेंट सेक्टर में मिनिस्ट्री ऑफ हेल्थ साइंसेज में काम किया। फिर प्राइवेट सेक्टर की ओर गए इसी सिलसिले में वह दक्षिण भारत भी गए। उन्होंने देहरादून के सेलाकुईं में भी काम किया, इसके बाद वह यहां पर आए। करीब 28 साल से इसी सेक्टर में काम कर रहे हैं। यहां आप कितना नयापन पाते हैं? इस सवाल पर डॉ. जोशी कहते हैं, वैसे हम कुमाऊं बॉर्डर पर ही हैं। हमारे कल्चर और यहां के कल्चर में बहुत ज्यादा अंतर नहीं है। कई त्योहार तो एकदम समान है। लगभग-लगभग सब एक जैसा है।
विदेशों में होता है निर्यात
डॉ. जोशी बताते हैं- इस्राइल, जापान, यूरोप में 80 फीसदी माल एक्सपोर्ट करते हैं। बाकी दस फीसदी अन्य देशों में। ऐसा नहीं है कि माल भेज दो बस। कस्टमर को संतुष्ट करना होता है। कस्टमर यहां पर आते हैं। वह हमारी फैक्ट्री देखते हैं। यहां का वातावरण देखते हैं, जो पानी हम इस्तेमाल कर रहे हैं, उसको भी देखते हैं। हमको मानकों पर खरा उतरना होता है। इसके लिए हम हमेशा रिसर्च करते रहते हैं। एक पौधा होता है नीर ब्राह्मी। उसके चार पांच अलग-अलग केमिकल्स होते हैं। वो सारे आइसोलेट कर देने पर वो मेंटल हेल्थ के लिए इस्तेमाल होता है। शोध में पता चला कि यह सौंदर्य प्रसाधन में भी इस्तेमाल किया जा सकता है। इस तरह इसकी उपयोगिता बढ़ गई। इस प्रकार से हमारे यहां रिसर्च चलती रहती है।
कुछ कठिनाइयां भी हैं…
जीएम डॉ. सीएस जोशी बताते हैं, मैदानी इलाकों की तुलना में हमें कच्चा माल चार से पांच रुपये किलो महंगा पड़ता है, क्योंकि हमें माल पहले रामनगर में उतारना होता है। फिर यहां तक माल लाने में हमें दूसरी गाड़ी की व्यवस्था करनी पड़ती है। इस तरह हमारी लागत तो बढ़ती ही है साथ में समय भी लगता है। लेकिन, हम लोग अपने प्रोडक्ट्स को थोड़ा एडवांसमेंट दे देते हैं जिससे कॉस्टिंग तो मैचअप हो जाती है। प्रॉफिट मार्जिन भी थोड़ा सा बढ़ जाता है।
स्टेट मशीनरी से कितनी मदद
राज्य सरकार की मशीनरी से मिली मदद के सवाल पर डॉ. सीएस जोशी कहते हैं-इस तरह का सेटअप तैयार करने के लिए सरकार को जो सहयोग करना चाहिए, वह अभी पूरी तरह नहीं मिल पाता है। हम शासन में बैठे टॉप लोगों की बात नहीं कर रहे हैं। सिस्टम की बात कर रहे हैं। नियम की बात कर रहे हैं। सरकार के शीर्षस्थ लोग तो चाहते हैं, पहाड़ पर कंपनियां आएं। वह एक उदाहरण से समझाते हैं, हल्द्वानी में हमारे एक साथी चीन गए। वह 200 घड़ियां खरीदना चाहते थे। उन्होंने कहा, मुझे 400 रुपये के आसपास की रेंज चाहिए। वहां पर जो प्रोड्यूसर था उसने टैक्स ऑफिस में बात की और अपना टैक्स निल करा दिया। वह सामान बेचने के लिए कुछ भी करते हैं। हमारे यहां यह अप्रोच नहीं है। इससे इंडस्ट्रीज को उतना पुशअप नहीं मिल पाता, जितने की उसे जरूरत होती है। मैं उत्तराखंडी होने के नाते सरकार से कहना चाहूंगा कि अगर उसे पहाड़ पर विकास करना है तो इन सारी चीजों को कंसीडर करना होगा।