Climate Change : जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियरों को जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई आसानी से नहीं होने वाली। बात उस परिस्थिति की हो रही है, जब माना जाए कि दुनिया का जलवायु फिर से सामान्य दशा में पहुंच गया हो। अपनी पृथ्वी का तापमान सामान्य हो चुका हो। शोध में बताया गया है कि कई पीढ़ियां हिमालय या दुनिया की अन्य पर्वतमालाओं को उसके मूल स्वरूप में नहीं देख पाएंगी। यह अनुमान इस आधार पर लगाया गया है- वर्ष 2150 तक पृथ्वी का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस से बढ़कर 3 डिग्री सेल्सियस को छू जाए। फिर स्थिर होकर वर्ष 2300 तक वापस 1.5 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाए। शोध में बताया गया है कि तापमान सामान्य होने के बाद ग्लेशियरों को अपने मूल स्वरूप मे आने में करीब 200 साल लगेंगे।
यानी वर्ष 2300 तक जलवायु सामान्य दशा में पहुंचने के बाद वर्ष 2500 में ग्लेशियर अपने मूल स्वरूप में आ पाएंगे। जलवायु परिवर्तन की मार से हमारी कई पीढ़ियां ग्लेशियरों को मूल स्वरूप में नहीं देख पाएंगी। 475 साल बाद की परिस्थितियों का अनुमान ब्रिटेन के ब्रिस्टल विश्वविद्यालय और ऑस्ट्रिया के इंसब्रुक विश्वविद्यालय की अगुवाई में किए गए शोध में लगाया गया है। यह शोध पर्यावरण की दृष्टि से दुनिया भर के लिए महत्वपूर्ण है।
यह शोध दुनिया की प्रतिष्ठित विज्ञान मैगजीन नेचर क्लाइमेट चेंज में मई 2025 में प्रकाशित हुआ है। इसमें बताया गया कि वर्तमान में दुनिया में जलवायु को लेकर जो नीतियां हैं उससे वर्ष 2150 तक ग्लेशियरों का द्रव्यमान 16 फीसदी तक अधिक घट सकता है। पिछला हुआ पानी समुद्र में मिल जाएगा। उसका जलस्तर बढ़ जाएगा। दुनिया के कई तटीय शहरों का वजूद खत्म हो जाएगा। कई देशों के अस्तित्व भी मिट जाएंगे। वैसे भी दुनिया भर में पिघलते ग्लेशियरों पर वैज्ञानिक चिंता जता रहे हैं। लेकिन, इसको लेकर जो गंभीरता बरती जानी चाहिए, वह नहीं दिख रहा है। बड़े-बड़े देश अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ रहे हैं।
दोनों दशाओं में पिसेंगे पहाड़ी राज्य
दुनिया भर के पहाड़ी राज्य तापमान के चरम तक पहुंचने में और फिर सामान्य होने की क्रिया के समय, दोनों स्थिति में परेशान रहेंगे। तापमान चरम पर पहुंचने के बाद जब स्थितियां सामान्य होने लगेंगी, उस दशा में ग्लेशियर पानी को बर्फ के रूप में संग्रहीत करने लगेंगे तो नीचले इलाकों में पानी की कमी हो जाएगी। तापमान चरम तक पहुंचने के समय वह पिघलना शुरू होंगे तब पानी की अधिकता की दशा में उन्हें बाढ़ की स्थिति का सामना करना पड़ेगा।
ग्लेशियर जब पिघलना शुरू होते हैं, एक ऐसी घटना को पीक वॉटर के रूप में जाना जाता है। वहीं, जब वह ग्लेशियरों का फिर से विकास होता है तो वे फिर से बर्फ के रूप में पानी जमा करना शुरू कर देते हैं। नीचे की ओर पानी कम बहता है। इस प्रभाव को ट्रफ जल कहते हैं। दोनों दशाओं में नुकसान होता है। अध्ययन से पता चलता है कि इस नुकसान को आसानी से ठीक नहीं किया जा सकता है, भले ही तापमान बाद में सुरक्षित स्तरों पर वापस ही क्यों न आ जाए। हम उत्सर्जन में कटौती में जितनी देर करेंगे, भविष्य की पीढ़ियों पर उतना ही अधिक बोझ डालेंगे, जिसे बदला नहीं जा सकता है।
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