लोग अक्सर पूछते हैं, अपनी सभ्यता-संस्कृति को कैसे संजोया-संरक्षित किया जाए। अगर आपको यह देखना हो तो उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले के विश्व-विख्यात मुनस्यारी की जोहार वैली के दरकोट में आना चाहिए। यहां आपको एक खूबसूरत उदाहरण दिखेगा। इसका नाम है छिनकेप सदन…इसमें लगी तिबारी 100 साल पुरानी है। इस घर से आठ पीढ़ियों का जुड़ाव है। घर में लकड़ी का स्ट्रक्चर इसकी खूबसूरती पर चार चांद लगा देता है। इस तरह संरक्षण के उम्मीद एक संस्कृतिकर्मी से ही की जा सकती है।
अपनी कला से देश की राष्ट्रपति का ध्यान खींचने वाले रंगकर्मी लक्ष्मण पांगती छिनकेप पांगती के ही वंशज हैं। पूर्वजों के सम्मान में ही उनके मकान का नाम छिनकेप सदन है। वह बताते हैं कि यह घर बाद में आधुनिक तरीके से बनाया गया है। लेकिन, हमने कोशिश की है कि इसमें हमारी सभ्यता और संस्कृति की झलक मिलती रहे। छिनकेप सदन का इतिहास बताते हुए लक्ष्मण पांगती कहते हैं, देश में जैसे बेगारी, सती,दास प्रथाएं आदि थीं। उसी तरह नीलम घाटी में 1700 ईसवी के आसपास सत्तू बेगारी प्रथा थी। सत्तू एक प्रकार का कपड़ा होता है, जिसका उत्पादन यही होता है। उस समय इसे तिब्बत के गोपांव मंदिर में चढ़ाया जाता था। नीलम घाटी से इसे बारी-बारी से तिब्बत पहुंचाया जाता था। एक बार पांचू गांव की एक विधवा की बारी इस कपड़े को पहुंचाने की आई। रास्ते में वह किसी नाले में गिर गई। सत्तू गीली हो गया।
लक्ष्मण प्रसाद पंघ (बाएं) के साथ बातचीत करते वरिष्ठ पत्रकारअर्जुन रावत।
वह किसी तरह वह गोपांव पहुंची, वहां जब पवित्र कपड़ा गीला होने की बात पता चली तो उस पर कोड़े बरसाए गए। जब यह खबर जोहार घाटी पहुंची तो लोग आक्रोशित हो उठे। विरोध जताने और प्रथा को बंद कराने के लिए छिनकेप पांगती ल्हासा के लिए निकल पड़े। वहां पहुंचने के लिए 16 तर्जन यानी पड़ाव पड़ते थे। बताया जाता है-जब वह 10-11वें पड़ाव पर थे तो इसकी जानकारी तिब्बत के शासक को मिल गई। उन लोगों को भी यह प्रथा बंद करने की मांग ठीक लगी। तब उन्होंने इस प्रथा को बंद करने का निर्णय ले लिया। इसके बाद नीलम घाटी में छिनकेप को लेकर तरह-तरह के लोकगीत प्रचलन में आ गए। जिन्हें आज भी गाया जाता है।
इसके अलावा तेजम तहसील में पहले खेती बाड़ी की जाती रही है। लेकिन, यहां पानी की काफी कमी थी। तो हमारे पूर्वज यानी छिनकेप ने वहां नहर बनाकर सिंचाई की व्यवस्था सुनिश्चित की। इस पर भी यहां एक गीत बना है। आप नीलम घाटी जाएंगे। आज भी वहां एक चौखट है जहां लिखा है- श्री छिनकेप पांगती ले बणायो, बद्रीनाथ जी की कृपा से 1666 मा, यानी सन 1666 में छिनकेप पांगती ने उस घर को बनाया था।
छिनकेप सदनलक्ष्मण पांगती बताते हैं- हमारे पूर्वज घुमक्कड़ थे। शायद यही वजह थी कि हम पहले से ही साक्षर थे, क्योंकि हमको व्यापार करने के लिए पाकिस्तान, अफगानिस्तान, तिब्बत और देश के कई अन्य हिस्सों में जाना पड़ता था। वह अपनी नाट्य प्रस्तुति के माध्यम से अपनी जनजाति के बारे में लोगों को बताते हैं। हमारी संस्कृति काफी समृद्ध हैं। आजादी की लड़ाई में भी हमारा अहम योगदान रहा है। हमारी जनजाति से कई स्वतंत्रता सेनानी रहे हैं। शौका समाज के लोगों का काम बाहर आने जाने का था। हम लोगों के जरिये स्वतंत्रता संग्राम की तमाम खबरें इधर-से उधर पहुंचती थीं।
लक्ष्मण पांगती के मुताबिक, उन लोगों का पारंपरिक व्यवसाय ऊन से कपड़े बनाने का था। इसमें महिलाएं भी सहयोग करती थीं। आज भी उनके समुदाय के लोग यह व्यापार कर रहे हैं। स्वरूप बदल गया है। यहां का ऊन मोटा होता है, लोग अब सॉफ्ट ऊन पसंद करते हैं। इसलिए पहले जैसा व्यापार तो नहीं रहा है। लेकिन, हम लोगों ने भी खुद को बदला है। अब मिक्स ऊन के कपड़े बनाने लगे हैं। इसी कारोबार से हमारे बाप-दादा ने हम लोगों को पढ़ा लिखा कर इस काबिल बनाया है। इसलिए इससे लगााव है।
छिनकेप सदनसितंबर माह में भारत में आयोजित जी-20 सम्मेलन ने देश-दुनिया में खूब सूर्खियां बटोरी। मीडिया ने हर गतिविधि की जोरदार रिपोर्टिंग की। कई एक से बढ़कर एक सांस्कृतिक कार्यक्रम हुए। लक्ष्मण पांगती ने भी अपनी टीम के साथ इस घाटी के परंपरागत और विलुप्त प्रायः 22 प्रकार के वाद्य यंत्रों की प्रस्तुति दी। जिसे घाटी के एक इलाके में अलग-अलग मौकों पर बजाया जाता है। लोगों के बीच यह चर्चा का विषय भले ही न बना हो, मगर देश की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को यह खूब भाया। उन्होंने राष्ट्रपति भवन के कुछ कर्मचारियों को जोहार वैली दरकोट स्थित छिनकेप सदन भेजा। राष्ट्रपति भवन से आए लोग भी इस भवन की सजावट देख मुग्ध हो गए थे। खिड़की दरवाजों पर जो नक्काशी की गई थी, वह अप्रतिम थी। वह बताते हैं- उस समय आकाशवाणी दिल्ली से मनोहर सिंह रावत ने मुझे फोन कर जी-20 में प्रस्तुति देने का प्रस्ताव दिया। मुझे यह अच्छा लगा। अपनी संस्कृति, सभ्यता के बारे में कला के माध्यम से देश-दुनिया के सामने प्रस्तुति करने का मौका मिलने वाला था। हमारे यहां कई तरह के वाद्य यंत्र हैं। जिन्हें विशेष मौकों पर बजाया जाता है। जैसे- मौत के लिए अलग, जन्म के लिए अलग, खुशी के मौके के लिए अलग धुन, यहां तक कि जब बलि दी जाती थी तब के लिए भी अलग धुन होती है। हमने इसे जी-20 में पेश किया। जिसे काफी पसंद किया गया।