1968 में पहली बार बदरीनाथ धाम बस पहुंची थी। उस साल Char Dham Yatra पर करीब 60 हजार तीर्थयात्री आए थे। इसके ठीक एक वर्ष बाद 1969 में गंगोत्री तक मोटर रोड बन गई। 1987 में भैरों घाटी का पुल बन गया। तब तक चारधाम यात्रियों की संख्या करीब 70 हजार थी। अब आते हैं वर्ष 2024 में। 23 मई तक चारों धामों में कुल 9 लाख 70 हजार तीर्थयात्री दर्शन के लिए पहुंच चुके हैं। पिछले वर्ष तीर्थयात्रियों की संख्या 56,31,224 थी, जबकि राज्य गठन के वर्ष 2000 में इन चारों धामों में कुल 12,92,411 यात्री पहुंचे थे।
दावा किया जा रहा है कि चारधाम आने वाले यात्रियों से अब तक राज्य को 200 करोड़ रुपये का कारोबार मिल चुका है। पिछले वर्ष की तुलना में तीर्थयात्रियों की संख्या दोगुने से ज्यादा बढ़ी है। यह सब सरकारी आंकड़ा है। अनुमान है कि इस साल इन तीर्थों में 70 लाख तक तीर्थ यात्री आएंगे। इससे उत्तराखंड का पर्यटन विभाग बहुत उत्साहित है। अब सवाल यह उठता है कि क्या पर्यावरण की दृष्टि से बेहद संवेदनशील चार धाम यह भार उठाने में सक्षम है?
पर्यावरणविद् कई बार चेता चुके हैं। गंभीर परिणाम की चेतावनी भी दे चुके हैं यह दिखने भी लगा है। मौसम में आए अप्रत्याशित बदलाव इसकी तस्दीक कर रहे हैं। मगर, हम चेत नहीं रहे हैं। पिछले साल बदरीनाथ तक 2,69,578 वाहन व गंगोत्री धाम तक 96,884 वाहन पहुंचे थे। इस साल 10 दिनों में ही बदरीनाथ में 12,263 और गंगोत्री में 10,229 वाहन पहुंच गए। ये दोनों ही धाम गंगोत्री और सतोपंथ ग्लेशियर समूहों के क्षेत्र में हैं। जो तेजी से पिछल रहे हैं। इसी साल अप्रैल में जारी इसरो की रिपोर्ट के अनुसार- हिमालयी ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने के साथ ही ग्लेशियर झीलों की संख्या और आकार में निरंतर वृद्धि हो रही है। यह आपदाओं की दृष्टि से गंभीर खतरे का संकेत है।

इसरो के मुताबिक-676 झीलों में से 601 का आकार दोगुने से अधिक हो गया है। जबकि 10 झीलें 1.5 से दो गुना और 65 झीलें 1.5 गुना बढ़ी हैं। प्रख्यात ग्लेशियोलॉजिस्ट डॉ. डीपी डोभाल के अनुसार, लगभग 147 वर्ग किलोमीटर में फैले गंगोत्री ग्लेशियर के पीछे खिसकने की गति 20 से 22 मीटर प्रतिवर्ष है। पिछले एक दशक तक कांवड़िए हरिद्वार से ही गंगा जल भरकर लौट जाते थे, मगर अब वे जल भरने सीधे गोमुख जा रहे हैं। यही नहीं, गंगोत्री और गोमुख के बीच जेनरेटर भी लग गए हैं। इससे पर्यावरण को जो नुकसान हो रहा है उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।
व्यावसायी गदगद हैं। स्वाभाविक भी है। लेकिन पर्यावरण और आपदा प्रबंधन से जुड़े लोग इस अप्रत्याशित भीड़ ने चिंता में डाल दिया है। प्रख्यात पर्यावरणविद पद्मभूषण चंडी प्रसाद भट्ट बताते हैं कि इस संवेदनशील क्षेत्र में कभी लोग लाल कपड़े तक नहीं पहनते थे। वहां शोर करना वर्जित था। मगर, अब शोर-शराबा आम बात हो गई है। अत्यधिक भीड़ के कारण यात्रा मार्गों पर गंदगी भी खूब हो रही है। इस मार्ग पर जो शोधन संयंत्र (एसटीपी) लगे हैं, उनकी क्षमता भीड़ के मुकाबले बहुत कम है। गंदगी नदियों में मिल जाती है।
पिछले वर्ष की बात करें तो बदरीनाथ में लगे संयंत्र का मलजल सीधे अलकनंदा में मिल गया था। यह सोशल मीडिया में खूब वायरल भी हुआ था। लगभग 1300 किमी लंबे चारधाम यात्रा मार्ग पर स्थित कस्बों की अपनी सीमित ठोस अपशिष्ट (कूड़ा-कचरा) निस्तारण व्यवस्था है। सरकार या नगर निकायों के लिए अचानक इस व्यवस्था का विस्तार आसान नहीं होता। इस पर यात्रा के दौरान उमड़ने वाली भीड़ का भी भार बढ़ जाता है। इससे अव्यवस्था फैल जाती है।
पर्यावरणविदों के लिए एक और चिंता का विषय ब्लैक कार्बन है, जो जलवायु परिवर्तन में योगदान के साथ ही ग्लेशियरों को भी पिघला रहा है। ऑटोमोबाइल द्वारा उत्सर्जित ब्लैक कार्बन बर्फ और बर्फ की सतहों पर जमा हो सकता है। जिससे ग्लेशियरों के पिघलने की गति तेज हो जाती है। जंगलों की आग ने पहले ही वातावरण में ब्लैक कार्बन की वृद्धि कर दी है और अब डीजल वाहन इसमें और अधिक वृद्धि करेंगे। आस्था भी बरकरार रहे और पर्यावरण में संतुलन भी बना रहे। इसका रोडमैप तैयार करना जरूरी हो गया है। नहीं तो आने वाले समय में यह विनाशकारी साबित हो सकता है।