Accident in Uttarakhand…नवंबर का महीना उत्तराखंड को दो बड़े जख्म देकर गया। अल्मोड़ा के सल्ट विकासखंड के मरचूला में यात्रियों से भरी एक बस गहरी खाई में गिर गई। यह बस पौड़ी जिले के नैनीडांडा ब्लॉक के बराथ-किनाथ से आ रही थी और इसे रामनगर पहुंचना था। इस हादसे में 36 लोगों की मौत हुई, दो लोगों ने बाद में इलाज के दौरान दम तोड़ा। 25 लोग गंभीर रूप से घायल हुए। मरचूला हादसे के जख्म अभी ताजा ही थे कि फिर 11 नवंबर को देहरादून में एक और भीषण सड़क हादसा हो गया। इसमें एसयूवी सवार 6 युवाओं की दर्दनाक मौत हो गई। उत्तराखंड में सड़क हादसों का ये सिलसिला बढ़ता ही जा रहा है। इस बार भी सवाल रोड सेफ्टी को लेकर उठे, क्योंकि मरचूला हादसे में 42 सीटर बस में 63 लोग सवार थे और देहरादून के पॉश इलाके में हुआ हादसा भी हैरान करने वाला था। उत्तराखंड में होने वाले एक्सीडेंट्स में होने वाली मौतों का पर्सेंटेज नेशनल एवरेज से भी ज्यादा है। यानी देश के मुकाबले उत्तराखंड में रोड एक्सीडेंट्स में ज्यादा जानें जाती हैं। लेकिन ऐसा क्यों? आखिर कौन है विलेन? वो ड्राइवर जो गाड़ी चलाता है। वो आम लोग जो इन सड़कों पर सफर करते हैं या प्रशासन, जिसके हाथ रोड सेफ्टी का जिम्मा है? जब हम आंकड़ों और सड़क हादसों की तह में जाते हैं तो पता चलता है कि सड़कें तो गांव-गांव तक पहुंची हैं लेकिन रोड सेफ्टी के मानकों पर अभी कहीं भी नहीं पहुंच पाए हैं।
मरचूला में सड़क हादसे का शिकार हुई बस 4 नवंबर की सुबह 6.30 बजे पौड़ी के नैनीडांडा ब्लॉक के बराथ-किनाथ से रामनगर के लिए रवाना हुई। गढ़वाल मोटर यूजर्स कॉपरेटिव सोसायटी (यूजर्स) की ये बस सुबह के करीब 8 बजे मरचूला के सारूड़ बैंड पर दुर्घटनाग्रस्त हो गई। इस हादसे में 38 लोगों की मौत हो गई थी। इस दुर्घटना के पीछे जो सबसे बड़ी वजह बताई गई वो थी ओवरलोडिंग। कुछ मीडिया रिपोर्ट्स ने बस में सवार घायलों के हवाले से लिखा कि ओवरलोडिंग इतनी ज्यादा थी कि ड्राइवर स्टीयरिंग घुमा नहीं पाया और दुर्घटना हो गई। कुछ रिपोर्ट्स में परिवहन विभाग की जांच के हवाले से इसके लिए तकनीकी खामी को जिम्मेदार ठहराया गया। बताया ये भी गया कि सड़क हादसा प्रशासन की लापरवाही से हुआ। दो साल में लोक निर्माण विभाग को यहां क्रैश बैरियर लगाने के लिए फंड दिए जा चुके थे लेकिन इस मोर्चे पर काम हुआ नहीं। अब हादसे की वजह जो भी रही हो लेकिन उत्तराखंड में सड़क दुर्घटनाएं विकराल होती जा रही हैं।
खुद ट्रांसपोर्ट डिपार्टमेंट के ज्वाइंट कमिश्नर सनत कुमार सिंह ने कहा था कि सड़क पर क्रैश बैरियर लगे हुए नहीं थे। क्रैश बैरियर नहीं लगाने पर मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने सख्त नाराजगी जाहिर करते हुए जांच के आदेश दिए। 42 सीटर बस में 60 से ज्यादा लोग सवार थे लेकिन कहीं पर भी इस बस को रोका नहीं गया। जब सवाल उठे कि ओवरलोड होने के बावजूद इस बस को आगे जाने की अनुमति कैसे मिली? सनत कुमार सिंह इस हादसे के लिए कई वजहों को जिम्मेदार बताते हैं। वह कहते हैं कि ओवरलोडिंग के अलावा रोड की बुरी स्थिति की वजह से ये सड़क हादसा हुआ। उन्होंने शुरुआती जांच में दुर्घटनाग्रस्त हुई बस में कुछ मैकेनिकल इश्यू सामने आने की बात भी कही। ओवरलोडिंग की चेकिंग को लेकर वह कहते हैं, फेस्टिव सीजन में ओवरलोडिंग को चेक करना एक चुनौती हो जाती है। वहीं, जिस एयर एम्बुलेंस को ऐसे मौकों के लिए रामबाण और संजीवनी बताया जा रहा था, वो भी मौके पर काम ना आ सकी। रिपोर्ट्स के मुताबिक कुछ तकनीकी दिक्कतों की वजह से एयर एम्बुलेंस समय पर ही नहीं पहुंच पाई। बड़ी मशक्कत के बाद एयर एंबुलेंस दोपहर में यहां पहुंची और तब जाकर कहीं 6 लोगों को एयर लिफ्ट करके ऋषिकेश एम्स ले जाया गया।
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देहरादून इनोवा हादसे में गुनीत (उम्र 19 वर्ष), कुणाल कुकरेजा (उम्र 23 वर्ष), ऋषभ जैन (24 वर्ष), नव्या गोयल (उम्र 23 वर्ष), अतुल अग्रवाल (उम्र 24 वर्ष) और कामाक्षी (उम्र 20 वर्ष) की दर्दनाक मौत हो गई थी। उनका एक साथी सिद्धेश अग्रवाल गंभीर रूप से घायल हो गया था, जिसका अभी भी एक निजी अस्पताल में इलाज चल रहा है, जो अभी तक बोलने की स्थिति में नहीं आया है। एक रिपोर्ट के मुताबिक, 150 किलोमीटर प्रतिघंटे की रफ्तार से दौड़ाई जा रही कार एक कंटेनर ट्रक के पिछले हिस्से से भिड़ने के बाद पेड़ से जा टकराई थी।
उत्तराखंड में सड़क हादसे
उत्तराखंड में सड़क हादसों का ग्राफ लगातार बढ़ता ही रहा है। उत्तराखंड सरकार की वेबसाइट पर मौजूद डाटा ही इसकी गवाही देता है। 2005 से लेकर 2022 तक का डाटा बताता है कि 2005 से कोई भी एक साल ऐसा नहीं रहा, जब 1000 से कम सड़क दुर्घटनाएं हुई हों। इनमें से भी गंभीर सड़क दुर्घटनाओं का आंकड़ा 600 से 900 के बीच रहा है। राज्य बनने के बाद से 2001 से अब तक 20 हजार लोगों की सड़क दुर्घटनाओं में मौत हो चुकी है। इस साल की ही बात करें तो जनवरी से अक्टूबर के बीच ही 1148 रोड एक्सीडेंट हो चुके हैं और इन हादसों में 851 लोगों की मौत हो चुकी है। अब एक तर्क यहां पर ये भी दिया जा सकता है कि एक्सीडेंट सिर्फ उत्तराखंड में ही थोड़े होते हैं। और बात भी सही है। पूरे देश में एक्सीडेंट होते हैं लेकिन उत्तराखंडी होने के नाते तब हमारी चिंता बढ़ जाती है, जब ये नेशनल एवरेज से भी ज्यादा हो जाते हैं।
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रोड हादसों पर भारत सरकार की रिपोर्ट बताती है कि उत्तराखंड में 2021 के मुकाबले 2022 में सड़क हादसों में 27.07 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। 2022 में हर 100 हादसों में 62 लोगों ने जान गंवाई। 100 एक्सीडेंट्स में लोगों की मौत होने के मामले में उत्तराखंड का एवरेज 62.2 है. जो 38.05 के नेशनल एवरेज से काफी ज्यादा है। राज्य में 641 ऐसे क्षेत्र चिन्हित हैं जो दुर्घटना संभावित हैं और 44 ऐसे हैं, जहां ब्लैक स्पॉट है। ब्लैक स्पॉट यानी करीब 500 मीटर की वो जगह जहां तीन सालोमें पांच दुर्घटनाएं ऐसी होती हैं, जिनमें ज्यादा मृत्यु और गंभीर रूप से लोग घायल होते हैं। ये ब्लैक स्पॉट लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं। राज्य में दुर्घटना संभावित स्थलों की बात करें तो सबसे ज्यादा नैनीताल में 90 स्थान दुर्घटना संभावित स्थल हैं। वहीं, सबसे कम 14 दुर्घटना संभावित स्थल रुद्रप्रयाग जिले में हैं। देहरादून में 42, उत्तरकाशी 41, टिहरी 34, पौड़ी 61, चमोली 24 और यही स्थिति दूसरे जिलों की है।
उत्तराखंड में क्यों होते हैं सड़क हादसे?
एक सवाल जो अक्सर पूछा जाता है कि उत्तराखंड में इतने सड़क हादसे क्यों होते हैं? इस सवाल का जवाब तो सबसे पहले यहां के भूगोल में है। ये एक पहाड़ी इलाका है जहां काफी खराब भौगोलिक और क्लाइमेटिक सिचुएशन हैं जिससे ये क्षेत्र सड़क दुर्घटनाओं के लिहाज से काफी ज्यादा संवेदनशील हो जाता है। इसके ऊपर यहां एक क्षेत्र को दूसरे से जोड़ने वाली सड़कें भी बहुत अच्छी स्थिति में नहीं होती हैं। ओवरलोडिंग, खराब रोड, क्रैश बैरियर्स ना होने की वजह से भी यहां सड़क हादसे होते हैं। दूसरी तरफ, शराब पीकर गाड़ी चलाना, हाई स्पीड और ड्राइवरों की नींद पूरी ना होने की वजह से भी सड़क हादसे होते हैं। सर्दियों में कोहरा भी सड़क हादसे बढ़ाने में प्रमुख भूमिका निभाता है। उत्तराखंड में सड़क हादसों की ये जो वजहें हैं, ये राज्य बनने से लेकर आज तक, समान ही हैं। देश के दूसरे इलाकों के मुकाबले उत्तराखंड में होने वाले सड़क हादसे ज्यादा जानलेवा साबित होते हैं। यहां वाहन अक्सर संकरी सड़कों के करीब की खाइयों में गिर जाते हैं जिससे नुकसान दो गाड़ियों के टकराने से भी ज्यादा होता है।
2019 में रोड सेफ्टी पर सुप्रीम कोर्ट की कमेटी ने कहा था कि उत्तराखंड सरकार की रोड सेफ्टी स्ट्रैटेजी टाउन यानी शहरों पर ज्यादा फोकस है। कमेटी ने सरकार को ग्रामीण क्षेत्रों पर फोकस बढ़ाने का निर्देश दिया था। राज्य में हर जिले की सड़कें सुरक्षित हों, ये सुनिश्चित करने के लिए हर राज्य में डिस्ट्रिक्ट रोड सेफ्टी कमेटियां बनी होती हैं। 2019 में सुप्रीम कोर्ट की कमेटी ने कहा कि हर डिस्ट्रिक्ट कमेटी को रोड सेफ्टी एक्शन प्लान तैयार करना होगा। साथ ही इनको सेफ्टी प्लान को लागू करवाने की जिम्मेदारी होगी। इनकी ये भी जिम्मेदारी है कि ये सड़क दुर्घटनाओं को कम करने पर फोकस करें। हालांकि क्या ऐसा हो रहा है? इसकी कोई जानकारी कही नहीं मिलती है। हर बार जब सड़क हादसे होते हैं, तब प्रशासन एक्टिव हो जाता है।
उत्तराखंड में सड़क हादसों के लिए ओवरलोडिंग को एक बड़ी वजह माना जाता है। लेकिन सवाल उठता है कि यहां ओवरलोडिंग क्यों ज्यादा होती है? तो जवाब है- लचर व्यवस्था। दरअसल, पहाड़ों में जो बसें चलाई जाती हैं, ये ज्यादातर लंबी दूरी की होती हैं। पहाड़ी भाग में ज्यादातर छोटी दूरी के लिए रोडवेज की तरफ से किसी तरह का बस संचालन किया ही नहीं जाता। इससे कई बार निजी वाहनों और टैक्सियों को मनमानी करने का मौका मिल जाता है। लेकिन फिर सवाल उठता है कि आखिर पहाड़ों में रोडवेज की बसें कम या ना के बराबर क्यों चलती हैं? जवाब है – पैसा। दरअसल हर रूट पर बसें चलाने के लिए आने वाले खर्च का आकलन किया जाता है। ऐसे में अगर एसेसमेंट में नुकसान सामने आता है तो उन रूट्स पर बसों का संचालन रोक दिया जाता है या फिर किया ही नहीं जाता। रोडवेज का यही फॉर्मूला केमू और दूसरी कंपनियां भी अपनाती हैं। भले ही उत्तराखंड के दोनों मंडल यानी गढ़वाल और कुमाऊं के इतिहास में कई मोटर कंपनियां खुल चुकी हैं लेकिन उसके बाद भी आज भी पहाड़ी इलाकों में पब्लिक ट्रांसपोर्ट सबसे ज्यादा कमजोर नजर आता है। पहाड़ों में रोडवेज की बसों की बहुतायत ना होने की वजह से ओवर क्राउडिंग बहुत ज्यादा होती है। अक्सर जब यात्रियों को घंटों के इंतजार के बाद एक मैक्स या बस मिलती है तो ना सवारी और ना ही बस वाला, ओवर क्राउडिंग करने से गुरेज करता है। बस वाले को मुनाफा दिखता है और सवारी को बड़ी मुश्किल से मिली बस या मैक्स के छूट जाने की चिंता।
कैसे रुक सकते हैं सड़क हादसे?
सड़क हादसों को रोकने के लिए सबसे पहले तो सरकार को अपनी नीतियों में बदलाव करना होगा। सरकार को चाहिए होगा कि वह सड़क दुर्घटनाओं का रुट कॉज एनालिसस करे। एक्सपर्ट्स कहते हैं कि हर सड़क हादसे की साइंटिफिक इनवेस्टिगेशन की जानी चाहिए। ऐसा नहीं है कि उत्तराखंड में सड़क हादसों को रोकने पर विचार नहीं हुआ हो। कई बार हुआ है लेकिन जमीन पर योजनाएं उतर नहीं पाई हैं। सरकार को चाहिए कि पहाड़ी इलाकों में रोडवेज बसों की संख्या बढ़ाई जाए। इससे जब पर्याप्त बसें होंगी तो ओवरलोडिंग जैसी समस्या कम होगी। इसके साथ ही बसों समेत दूसरे वाहनों का समय-समय पर फिटनेस चेक अप भी जरूरी है। नेशनल इंस्टीट्यूट्स ऑफ हेल्थ की एक रिसर्च में भी यही सुझाव दिए गए थे। रिसर्च में सुझाया गया है कि उत्तराखंड की पहाड़ियों पर नई सड़क बनते वक्त ये देखना चाहिए कि क्या वो क्षेत्र ऊबड़-खाबड़ तो नहीं हैं। कहीं पर ढलान और कहीं पर ऊंचाई तो नहीं है। इसके साथ ही क्या वो क्षेत्र भूस्खलन प्रभावित क्षेत्र तो नहीं हैं। इन सभी को चेक करने के बाद ही रोड बनानी चाहिए। इसके साथ ही सड़क सुरक्षा के लिए पैराफीट और गाइड दीवारें, सेफ बेरीकेड्स, प्रॉपर ड्रेनेज और रोड साइन लगाए जाने चाहिए।
कोहरे के दौरान, साइनबोर्ड के लिए चमकदार पेंट या पट्टियों का उपयोग किया जाना चाहिए। ड्राइवरों की गलती के कारण होने वाली दुर्घटनाओं से बचने के लिए गति को सीमित करना, जांच चौकियों यानी चेक पोस्ट पर एल्कोहल डिटेक्टर का उपयोग करना, सीट बेल्ट पहनना, सावधानीपूर्वक वाहन चलाना, नियमित ड्राइविंग लाइसेंस की जांच, वाहन चलाते समय मोबाइल फोन के उपयोग पर प्रतिबंध लगाने जैसे कई उपाय अपनाए जाने चाहिए। राज्य सरकार ने प्रदेश में पर्वतीय मार्गों पर व्यावसायिक वाहनों की अधिकतम आयु-सीमा निर्धारित करने का फैसला लिया है। खैर, हर सड़क हादसे के बाद इस तरह के कई वादे और इरादे जाहिर किए जाते हैं लेकिन वो जमीन पर कितना उतर पाते हैं, ये किसी से छिपा नहीं है। सड़क हादसों पर रोक लगाने की जिम्मेदारी प्रशासन के साथ ही आम लोगों की भी है। प्रशासन सुरक्षात्मक उपाय करे और आम लोग सावधानी बरतें और यातायात नियमों का पालन करें, क्योंकि एक छोटी सी गलती ही बड़ा नुकसान कर जाती है। (अतुल्य उत्तराखंड के लिए विकास जोशी)