पिथौरागढ़ में धूमधाम से मनाया जाने वाला हिलजात्रा (Hilljatra) उत्सव को अब वैश्विक पहचान दिलाने की कवायद की जा रही है। अगर सब कुछ ठीक रहा तो आने वाल समय में इसको यूनेस्को की धरोहर में शामिल किया जा सकता है। संस्कृति विभाग अल्मोड़ा ने मुखौटा संस्कृति को सहेजे कुमौड़, सतगढ़, देवलथल सहित अन्य जगहों पर आयोजित होने वाली हिलजात्रा को यूनेस्को की धरोहर में शामिल कराने की कवायद शुरू कर दी है। इसके तहत संस्कृति विभाग एक डाक्यूमेंट्री तैयार करेगा। बताया जा रहा है कि इस कार्य के लिए जिला योजना से बजट जारी किया जाएगा। अगर यह प्रयास सफल रहा तो उत्तराखंड के साथ ही देश में मशहूर हिलजात्रा को वैश्विक पहचान मिल जाएगी। यूनेस्को की धरोहर में हिलजात्रा के शामिल हो जाने के बाद राज्य में विदेशी पर्यटन को भी बढ़ावा मिलने की उम्मीद है। इस वजह से संस्कृति विभाग बड़ी गंभीरता से इस दिशा में कार्य कर रहा है।
जीबी पंत राजकीय संग्रहालय ने शुरू की तैयारियां
संस्कृति विभाग की तरफ से जीबी पंत राजकीय संग्रहालय ने इस योजना पर काम शुरू कर दिया है। इसके तहत सबसे पहले पिथौरागढ़ के प्रमुख जगहों पर आयोजित होने वाली हिलजात्रा के इतिहास को खंगाला जाएगा। फिर इसके पीछे धार्मिक, पारंपरिक, सांस्कृतिक, सामाजिक पहलुओं को शामिल करते हुए डाक्यूमेंट्री तैयार की जाएगी। इसके बाद अनूठी धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत को यूनेस्को की धरोहर में शामिल करने का प्रस्ताव तैयार होगा। संस्कृति विभाग की कोशिश है कि डाक्यूमेंट्री बेदह प्रभावी बने। इसके लिए वह विशषज्ञों की मदद भी लेगी। बतादें कि इस यात्रा भी भारी भीड़ उमड़ती है। लेकिन, यह लोकल स्तर पर होती है। देश के दूसरे हिस्सों से भी पयर्टक आते हैं। मगर, उनकी तादात उतनी नहीं होती। एक बार यह यूनेस्को की धरोहर में शामिल हो गया तो विदेशी पर्यटकों के साथ देश से भी बड़ी संख्या में पर्यटक हिलजात्रा देखने के लिए आएंगे।
मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, जीबी पंत राजकीय संग्रहालय, अल्मोड़ा के निदेशक डॉ. चंद्र सिंह चौहान ने कहा है कि प्रस्ताव को तैयार कर पहले संगीत नाट्य अकादमी दिल्ली को जाएगा, फिर वहां से संस्कृति मंत्रालय जाएगा। संस्कृति मंत्रालय परीक्षण करेगा। फिर मंत्रालय स्तर से यूनेस्को की धरोहर में शामिल करने की आगे की कार्रवाई होगी। उन्होंने उम्मीद जताई कि इसमें हम लोगों को अवश्य सफलता मिलेगी।
हिल जात्रा का इतिहास
कुमौड़ की हिलजात्रा का इतिहास करीब 500 साल पुराना है। माना जाता है कि चार महर भाइयों की बहादुरी से खुश होकर नेपाल नरेश ने यश और समृद्धि के प्रतीक मुखौटे उन्हें इनाम में दिये थे। तब से नेपाल की तर्ज पर यहां हिलजात्रा पर्व मनाया जाता है। लखिया भूत के आगमन के साथ इस पर्व का समापन होता है। सतगढ़ की हिलजात्रा का इतिहास करीब 300 साल पुराना है। यहां हिलजात्रा पर्व के दौरान महाकाली का अवतार होता है। पारंपरिक वाद्य यंत्रों के साथ ठुलखेल, खेल, झोड़ा, चांचरी का गायन पर्व को विशिष्ट बनाते हैं। वहीं खुशहाली और समृद्धि का प्रतीक मुखौटा संस्कृति की जीवंत उदाहरण हिरन चीतल हिलजात्रा की विशेष पहचान है।
आकर्षण के केंद्र में होते हैं लखिया बाबा
पिथौरागढ़ में इस उत्सव को मनाया जाता है। इसमें सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है कुमोड़ की हिल-जात्रा। इसमें लखिया बाबा आकर्षण का केंद्र होते हैं। उन्हें साक्षात शिव का गण माना जाता है। बाकी हिरण-चीतल को देवता का अवतार माना जाता है। उनकी पूजा होती है। कहीं-कहीं महाकाली की पूजा होता है। वर्षा ऋतु में जब प्रकृति हरियाली की चादर ओढ़ लेती है, खेती लहलहा उठती है, ऐसे खुशी के मौके पर हिल-जात्रा का आयोजन किया जाता है। यह मुखौटों का खेल है। कहीं बैलों की जोड़ी होती है तो कहीं पुतारियां जो रोपाई, गुड़ाई, धान-जुताई का प्रदर्शन करती हैं। बड़ा मनोरंजक ये आयोजन होता है।