गैरसैंण… एक ऐसी जगह जो राज्य आंदोलन के दौरान पहाड़ की आशा, आकांक्षाओं का प्रतिबिम्ब रही, लेकिन राज्य गठन के साथ ही जिसको प्राथमिकताओं से लगभग हटा दिया गया। ये जगह महज रस्मी कवायद तक महदूद हो गई। ‘अतुल्य उत्तराखंड-तीरंदाज.कॉम’ की टीम ने ग्राउंड पर जाकर उन उम्मीदों, आशाओं को एक बार फिर टटोलने का प्रयास किया जो दो दशक के कालखंड में कहीं दब सी गईं। इस Ground Report की शुरुआत का सिलसिला गैड़ गांव से हुआ, जिसके नाम से ही इस जगह को गैड़सैंण और फिर गैरसैंण से जाना गया। कहते हैं अगर पहाड़ की सही नब्ज़ टटोलनी है तो महिलाओं से बात कीजिए। हमें भी लगा कि पहाड़ में कई मुद्दे महिलाओं से जुड़े है, लिहाजा उनसे ही बात करनी चाहिए। मसलन, यहां महिलाओं के लिए क्या-क्या चुनौतियां हैं, सरकारी योजनाओं का कितना लाभ मिल रहा है? क्या इनकी सोच है?
इसे पहाड़ के लोगों की सादगी कह लीजिए या संतुष्टि का भाव, तमाम परेशानियां है, दिक्कतें हैं, सुविधाएं कम हैं, लेकिन उन्हें हर हालात से लड़ना आता है। यही शायद जिंदगी जीने का सही तरीका, सही सलीका है। उत्तराखंड के किसी भी कोने में चले जाइये, एक बात तो साफ है, सबकुछ शहरों में नहीं है। बहुत कुछ है पहाड़ों पर, यहां पर किया जा सकता है और यहां की महिलाएं करके भी दिखा रही हैं।
महिलाओं से बातचीत का सिलसिला इस सवाल के साथ शुरू हुआ कि आज एक ट्रेंड बन गया है, शहरों में बस जाने का, क्या आपका कभी मन नहीं हुआ। सबसे पहला जवाब दीपा गौड़ का आया, ‘नहीं सर, हम ऐसी जगह पर रहते हैं जहां से किसी का जाने का मन नहीं करता है। यह बहुत ही रमणीय स्थान है। जो यहां आता है, यहीं का होकर रह जाता है।‘ इस जवाब से साफ हो गया कि आज बातचीत में बहुत मजा आने वाला है, तुरंत दूसरा सवाल दाग दिया, आप लोगों की दिनचर्या क्या है? दीपा का जवाब उतनी ही तेजी से आया, सुबह उठकर घर का काम करना। हमारी जॉइंट फैमिली है। एक साथ सब रहते हैं, इसलिए हम सभी में काम बंटे होते हैं। उसके बाद अपने बच्चों का नाश्ता बनाकर, स्कूल भेजना, फिर घास काटने चले जाना। परिवार के साथ एक तय दिनचर्या है।
क्या अपने लिए टाइम निकाल पाती हैं? इस सवाल के जवाब में दीपा ने कहा कि हम गांव में रहते हैं, यहां कई सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। उसमें मिलकर शामिल होते हैं, एक दूसरे के साथ हंस बोलकर टाइम बीत जाता है। अब बात सीधे सवालों की थी, लिहाजा हमने पूछा, कौन-कौन सी सरकारी योजनाएं हैं, जिनका फायदा आप लोगों तक पहुंचा है? अब जवाब देने की बारी सुनीता गौड़ की थी, बोलीं, सरकारी योजनाएं तो पहुंची हैं लेकिन गांव में पानी की समस्या है। इसके अलावा गांव तक सड़क नहीं है। सड़क न होने के कारण रोजमर्रा के समान के लिए परेशानी का सामना करना पड़ता है। ज्यादा पैसे देने पड़ते हैं। यहां ढुलान बहुत ज्यादा होती है। हमारा अगला सवाल था कि जब गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित किया गया तो आप लोगों को कैसा लगा? जब उत्तराखंड राज्य आंदोलन लड़ा जा रहा था तब गैरसैंण एक बहुत बड़ा फैक्टर था। अब जब आप अपने सामने विधानसभा भवन देखते हैं तो क्या सोचते हैं? आगे आपको कितनी उम्मीदें हैं? इस पर गैड़ की दीक्षा बरमोला ने कहा, वह तो ठीक है कि गैरसैंण ग्रीष्मकालीन राजधानी है। लेकिन हमें सुविधाएं नहीं हैं। सबसे पहले तो यहां पर पानी की समस्या है। गांव में पानी के लिए बहुत ज्यादा भटकना पड़ता है। जानवरों के साथ ज्यादा दिक्कत होती है। हमने पूछा कि यहां के लिए तो एक झील की घोषणा की गई थी, उसका क्या हुआ? दीक्षा बारमोला ने कहा, झील के बारे में बोला तो जा रहा था लेकिन अभी तक उसका कुछ फायदा नहीं हो पाया है। जल जीवन मिशन के तहत पानी की सप्लाई की योजना भी इस गांव में नहीं पहुंची है, लेकिन अन्य गांव में योजना पहुंची है।
अब सवाल-जवाब सीधे हो रहे थे, हमने पूछा, इस गांव में और कौन-कौन सी समस्याएं हैं? अनीता गौड़ ने बताय कि त्रिवेंद्र सिंह सरकार के समय पर यहां पर हॉस्पिटल की बिल्डिंग बनी थी। उसके लिए करोड़ों रुपये आए थे। बिल्डिंग तो बन गई लेकिन हमें अभी तक डॉक्टरों की सुविधा उपलब्ध नहीं हो पाई है। गांव में किसी को पेट-सिर दर्द हो, किसी के हाथ-पांव फ्रैक्चर हो तो यहां एक्सरे होता है फिर हम इलाज के लिए श्रीनगर जाते हैं। वहां कहा जाता है कि हाथ पांव ठीक है। ऐसे में हमें बहुत ज्यादा दिक्कतें होती हैं। भराड़ीसैंण में ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित हुई है। लेकिन वह सिर्फ 6 महीने के लिए ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित हुई। दो दिन का सत्र होता है और 2 दिन के बाद सब यहां से चले जाते हैं। उसका हमने क्या करना है, जब वहां कोई बैठता नहीं है। वह बिल्डिंग खाली ही पड़ी है। पैसे वेस्ट जा रहे हैं। अगर कोई अधिकारी वहां पर बैठता तो हमें भी सुविधा होती। अगर हमें कोई भी कागज बनवाना हो तो हमें उसके लिए देहरादून जाना पड़ता है। गांव में किसी भी व्यक्ति या बच्चे की तबीयत खराब हो जाए तो हमें गाड़ी बुक करके अन्य शहर जाना पड़ता है। किसी के पास पैसे हों या ना हों लेकिन कोई जिंदगी नहीं दे सकता है। दूर अस्पताल जाने तक कोई डिलीवरी वाली महिला हो या कोई बीमार, कुछ भी हो सकता है, कोई किसी की गारंटी नहीं ले सकता है। इसलिए हमें यहां पर डॉक्टर की सुविधा चाहिए। धामी सरकार से हमारी यही रिक्वेस्ट है कि गैरसैंण को चाहे ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाना हो या कुछ और, एक चीज फिक्स कर दो। यहां दो दिन का सत्र लगता है और पैसे उसमें वेस्ट जाते हैं। सड़कें और पानी की लाइन बनाने के लिए कहा जाता है कि बजट नहीं है, लेकिन सत्र के लिए कहां से पैसे आते हैं? इसमें बेवजह खर्चा होता है।
कुल मिलाकर महिलाओं का कहने का मतलब था कि गैरसैंण ग्रीष्मकालीन राजधानी है तो यहां पर सत्र लंबा चले, ताकि यहां पर अधिकारी बैठें, जिससे उनकी समस्याएं वह सुन सकेंगे। एक अन्य महिला रजनी गौड़ ने बताया कि हम महिला मंगल दल से जुड़े हैं। लेकिन अभी हमें कोई फायदा नहीं हुआ है। इसके अलावा हम एक समूह से भी जुड़े हुए हैं। हम लोग उसमें अभी शुल्क जमा करते हैं।
अभी केंद्र सरकार का मोटे अनाज पर ज्यादा फोकस है, जो हमारे पहाड़ का अनाज है जैसे, कोदा, झंगोरा, रागी जिन्हें हम मिलेट्स भी कहते हैं। क्या आप लोगों ने नहीं सोचा कि हम लोग सहायता समूह से मिलकर इस पर कुछ काम करें? इस सवाल के जवाब में दीपा गौड़ ने कहा, पहले गांव में महिला मंगल दलों का रजिस्ट्रेशन होता था। लेकिन जब से यहां पर नगर पंचायत बनी है तब से यह बोल दिया गया है कि नगर पंचायत में महिला मंगल दलों का रजिस्ट्रेशन नहीं होगा। 2018 में हमारा नया महिला मंगल दल का गठन हुआ। 5 साल हो चुके हैं। हमारे महिला मंगल दल में हम महीने का 20 रुपए शुल्क जमा करते हैं। इससे कुछ ज्यादा हो नहीं पता है। इस वजह से हम कुछ कर भी नहीं पाते हैं। आय की समस्या है। दीपा कहती हैं, जिस तरह से यहां ग्रीष्मकालीन राजधानी की घोषणा हुई है, उस तरह की फैसिलिटीज अभी तक यहां हो नहीं पाई हैं। गैरसैंण में हम काफी सारे साधन चाहते हैं जैसे कि हॉस्पिटल। अस्पताल बना है तो वहां पर मशीन नहीं हैं। इसलिए कई सारी दिक्कतें हो रही हैं। इसलिए डॉक्टर भी यहां आने को तैयार नहीं होते हैं। गांव में पानी की समस्या ऐसी है कि अगर कोई दुग्ध या सब्जी उत्पादन भी करना चाह रहा हो तो गांव में पानी नहीं है। हमारा गैरसैंण पिछड़ा जैसा रह गया है। वैसे तो ग्रीष्मकालीन राजधानी है, लेकिन यह सिर्फ नाम से आगे है। गैरसैंण सिर्फ नाम से फेमस हुआ है, यहां पर कोई भी सुविधा नहीं है।
दीक्षा बरमोला ने कहा कि एजुकेशन की बात करें तो यहां कॉलेज के लिए बहुत दूर जाना पड़ता है। यहां पर स्कूल तो बहुत सारे खुले हैं, लेकिन यहां पर अच्छे टीचर नहीं हैं। यही कारण है कि बच्चों की शिक्षा के लिए यहां से अब पलायन हो रहा है। इंटर करने के बाद तो हमें बाहर ही जाना पड़ रहा है। एक अन्य महिला ने छुट्टा पशुओं की समस्या बताई। उन्होंने कहा, हम यहां पूरी मेहनत से खेती करते हैं, लेकिन लोगों द्वारा छोड़े गए पशु खेतों को बरबाद कर देते हैं। रात दिन हम मेहनत करते हैं और अंत में हमें कोई फायदा नहीं होता है।
एक अन्य महिला ने कहा, हम मेहनत से यहां पर काम करते हैं तो हम यही चाहते हैं कि हमारे काम में उन्नति हो, हमें कुछ फायदा मिले। शासन-प्रशासन कुछ नहीं कर पा रहा है। हम कितनी बार अपनी शिकायत लेकर ब्लॉक और तहसील भी गए, लेकिन हमारी बात कोई नहीं सुन रहा है। अनीता कहती हैं, गांव में कुछ भी काम नहीं हो रहा है। यह सिर्फ ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित हुई है। उसके अलावा यहां पर कुछ काम नहीं हो रहा है। राजधानी घोषित होने के बाद अगर सरकार 6 महीने यहां पर बैठ जाती, यहां पर ऑफिस खुलते और अफसर बैठते, उनकी फैमिलीज यहां आ जाती, जिसकी वजह से यहां स्कूल खुल जाते तो बच्चों को हमें बाहर नहीं ले जाना पड़ता। फिर यहां डॉक्टरों की भी सुविधा होती। यहां राजधानी घोषित हुई है और सारे विभाग देहरादून में हैं। कुछ भी काम के लिए लोग देहरादून जा रहे हैं तो उनके बच्चे भी उनके साथ जा रहे हैं। इसलिए यहां स्कूलों की दिक्कत हो रही है और इंटर के बाद तो हमें अपनी खेती छोड़कर बाहर जाना ही पड़ता है। बच्चों का भी भविष्य खराब हो रहा है। ऐसे में खेती का भी क्या करेंगे। लोगों को अपने बच्चों का भविष्य सुधारना है। अगर ग्रीष्मकालीन राजधानी में 6 महीने सरकार यहां पर बैठ जाती तो हमें कुछ फायदा होता। दीपा और सुनीता दोनों ने यह बात कि पूर्व सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत के समय में सड़क और अस्पताल के लिए योजना बनाई गई, अगर उनका कार्यकाल कुछ और दिन रहता तो वह जरूर कुछ करते।
इस दौरान 70 साल की चंद्रकला नाम की महिला ने बताया कि मैं आंदोलनकारी हूं। हम जेल में भी गए हैं। 5 साल तक हमने बहुत संघर्ष किया। कर्णप्रयाग, चौखुटिया, गैरसैंण गए। यह हमने अपने लिए नहीं किया, सबके लिए किया। अपने घर-खेत बच्चे छोड़कर पांच दिन जेल में भी रहे। हमें कुछ नहीं मिला, बस गैरसैंण राजधानी बनने के बाद गैरसैंण का नाम बाहर भी गया, यह हमारे लिए बड़ी बात है।