सड़क तुम अब पहुंची हो गांव, जब पूरा गांव शहर जा चुका…। ये महज दो लाइनें नहीं बल्कि हमारे पहाड़ की स्याह हकीकत है। पहाड़ों को लेकर भावुक कोई भी व्यक्ति जब भी इन लाइनों को सुनेगा, उसके अंदर भावनात्मक ज्वार निश्चित तौर पर उठेगा। हमारी एक हकीकत ये भी है कि अगर हमारी बात कोई दूसरा करे तो जल्दी समझ आती है। इन लाइनों और इनके रचनाकार को लोगों ने तब तलाशना शुरू किया, जब एक कार्यक्रम में मशहूर अभिनेता पंकज त्रिपाठी ने इन लाइनों को पढ़ा। उससे पहले सिर्फ साहित्यिक रूप से सक्रिय लोगों तक ही ये लाइनें पहुंची थीं। स्पेशल सीरीज ‘पहाड़वाले’ में कवि और पेशे से अध्यापक महेश पुनेठा से तीरंदाज.कॉम के संपादक अर्जुन रावत की खास बातचीत।
आपने इन लाइनों को कहा, उससे पहले आपके मन में क्या सोच थी? जितना गांव में सड़कें पहुंच रही हैं, उतने ही गांव खाली हो चुके हैं?
ये आपने सही कहा कि यह हमारे समाज की और सिर्फ पहाड़ी समाज की ही नहीं बल्कि उन तमाम समाज की हकीकत है जो आज भी विकास के दौड़ में पीछे हैं और शायद इसलिए यह पंक्तियां लोगों से कनेक्ट कर पा रही हैं, चाहे फिर वह पहाड़ के हो या फिर मैदानी क्षेत्र के हों। यह विडंबना है कि हमारे विकास का मॉडल गांव को आत्मनिर्भर करने के बजाय गांव के संसाधनों के दोहन का मॉडल है। यह केवल हमारे देश की बात नहीं है, यह पूरी दुनिया का परिदृश्य है कि जहां भी आप प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध क्षेत्र को देखते हैं, वहां संसाधनों के दोहन के लिए हम विकास का सहारा लेते हैं। हम उसे विकास के नाम से परिभाषित करते हैं। दरअसल क्या वास्तव में यह विकास है? सच्चे अर्थों में इसको समझने की आवश्यकता है। क्या हम विलासिताओं के संसाधनों को जुटा लें, क्या यही विकास है? इसी मॉडल और इसी सोच को लेकर यह पूरी कविता उतरी। उसका तात्कालिक कारण जरूर रहा कि तमाम गांव में जब हम देखते हैं अपने आसपास तो हम पाते हैं कि जब उस गांव को सुविधाओं और सड़क की जरूरत थी, शायद उस सब के आने से गांव के लोग गांव से दूर नहीं होते… तब सड़क नहीं पहुंची लेकिन गांव खाली हो गया और सबसे बड़ी बात यह कि वहां संसाधन बचे थे इसलिए वहां सड़क पहुंचती है, जबकि गांव को उस सड़क की जरूरत नहीं रह गई थी। बहुत बार मुझे यह देखकर भी आश्चर्य होता था कि बहुत सारी नदियों की ओर सड़कें गई हैं। लेकिन उसके पास में जो गांव है वहां सड़क नहीं है, वहां पर पगडंडी है। इससे समझ में आता है कि हम किस चीज को प्राथमिकता देते हैं या हम विकास किस चीज के लिए कर रहे हैं, यह अपने आप में बहुत बड़ा प्रश्न है। तो इन्हीं सबको लेकर क्योंकि मैं पहाड़ों से जुड़ा हूं और मैंने अभावों को देखा है, गांव की पीड़ा भी समझ में आती है तो मैंने कोशिश की कि अपनी बात को इस तरीके से कह सकूं। केदारनाथ सिंह अपने किसी एक इंटरव्यू में कह रहे थे कि कविता का भी अपना एक भाग्य होता है। मुझे लगता है यह एक सेलिब्रिटी के मुंह से बोले जाने के कारण इतनी चर्चा में आ गई। आप मेरी अन्य कविताओं से गुजरेंगे तो मैंने उनमें और गहराई में जाकर पहाड़ की इन विसंगतियों और विडंबनाओं, वहां की लोक संस्कृति और प्रकृति के बारे में दिखाने की कोशिश की है।
बहुत सारे लोग यह तर्क देते हैं कि अगर विकास नहीं होगा, बिजली और सड़कें नहीं होगी तो जो आप आज विकास का उपभोग कर रहे हैं, वह कैसे मुमकिन होगा। यह बात अपनी जगह सही है। लेकिन कोई तो ऐसा बिंदु होना चाहिए, जहां हम प्रकृति को भी बचा सकें और सुविधाओं को भी बढ़ा सकें। जरूरी नहीं है कि चौड़ी सड़कें ही बनाई जाएं, ऊंची-ऊंची बिल्डिंग बनाई जाएं या नदियों के रास्तों को रोक दिया जाए। इसके लिए हमें अपनी जीवनशैली को बदलना पड़ेगा, क्योंकि अभी जो हमें विकास दिखाई दे रहा है यह कब विनाश में बदल जाए, इसकी कोई गारंटी नहीं है।
आप पहाड़ से जुड़े हैं, यहीं रहते हैं इसलिए आपकी पीड़ा सच्ची है, आपने विकास की बात की, जब हम पिथौरागढ़ में प्रवेश करते हैं तो ऐसा लगता है किसी पहाड़ी शहर में आ गए हैं, विकास के नाम पर क्या हम पहाड़ों पर शहर नहीं बनाते जा रहे?
सबसे बड़ी विडंबना यही है कि विकास चौड़ी सड़कों का पर्याय बन चुका है। विकास बड़ी-बड़ी बिल्डिंगों, बड़े-बड़े नगरों-महानगरों का पर्याय बन गया है। यहां तक कि हम प्राकृतिक नदियों के रास्तों को भी पाटने में लगे हैं। छोटी-छोटी नदियों, गाड-गदेरों को मलबे से ढकने में लगे हुए हैं। हम यह नहीं समझ पा रहे हैं कि यह नदी का रास्ता है। कम से कम हम इसे छोड़ दें। विकास और सुविधाओं की भूख के चक्कर में हम पर्यावरण और प्रकृति को भूलते चले जा रहे हैं। बहुत सारे लोग यह तर्क देते हैं कि अगर विकास नहीं होगा, बिजली और सड़कें नहीं होगी तो जो आप आज विकास का उपभोग कर रहे हैं, वह कैसे मुमकिन होगा। यह बात अपनी जगह सही है। लेकिन कोई तो ऐसा बिंदु होना चाहिए, जहां हम प्रकृति को भी बचा सकें और सुविधाओं को भी बढ़ा सकें। जरूरी नहीं है कि चौड़ी सड़कें ही बनाई जाएं, ऊंची-ऊंची बिल्डिंग बनाई जाएं या नदियों के रास्तों को रोक दिया जाए। इसके लिए हमें अपनी जीवनशैली को बदलना पड़ेगा, क्योंकि अभी जो हमें विकास दिखाई दे रहा है यह कब विनाश में बदल जाए, इसकी कोई गारंटी नहीं है। केदारनाथ जैसी आपदाएं हमने देखी और झेली हैं। पहाड़ी क्षेत्रों में ऐसी आपदाएं हर साल आती हैं। जिस तरह की आपदा हिमाचल ने झेली है, सड़कों के किनारे बसने वाले लोगों को कभी वह विकास लगा होगा लेकिन आज वह विनाश की किस स्थिति में पहुंच गए हैं। हमारा मौसम अब पूरी तरह से बदल रहा है अगर यह गर्मी इसी तरह बढ़ती चली गई तो फिर यह विकास हमारे किसी काम का नहीं रह जाएगा। यह हमारे जीवन को और कठिन कर रहा है। उच्च वर्ग के लोग अपने लिए विकल्प तलाश लेते हैं। वह एसी कमरे में बैठे हैं और एसी कारों में आते-जाते हैं। लेकिन उस व्यक्ति के बारे में सोचिए जो व्यक्ति किसान है, मजदूर है, धूप में काम करता है उसकी क्या स्थिति होगी।
आप शिक्षण पेशे से हैं लेकिन मैं आपकी साहित्य की यात्रा के बारे में जानना चाहता हूं, इसकी शुरुआत कब हुई। लेखन कितनी उम्र से शुरू किया, अपने रचना कर्म के बारे में बताइए?
मेरे लिखने पढ़ने की शुरुआत बचपन से हो गई थी। मैं स्कूल में पढ़ता था, तब से लेखन के प्रति मेरा रुझान था और लिखना मुझे आकर्षित करता था। लिखे हुए शब्द, चाहे वह पुस्तक में हो या पत्र पत्रिकाओं में मुझे आकर्षित करते थे। मुझे लगता था कि यह भी एक जरिया है जिसके माध्यम से हम अपने समाज की पीड़ा, विसंगति, विडंबनाओं को ठीक करने में अपना योगदान दे सकते हैं। दरअसल इसकी शुरुआत कुछ इस तरीके से हुई कि मैं स्कूली जीवन से ही आदर्शवादी किस्म का व्यक्ति हूं। मुझे हर वह चीज कचोटती थी जो किसी को पीड़ा पहुंचती है। मुझे लगता था कि इन चीजों के खिलाफ कुछ कदम उठाने चाहिए। मुझे कलम एक ऐसा जरिया लगा। तब मुझे ऐसा लगता था कि मैं पत्रकार के रूप में काम करूंगा। ताकि मैं इन तमाम विसंगतियों को सामने रख सकूं। क्योंकि पत्रकार एक ऐसा व्यक्ति होता है जो छोटे से छोटे व्यक्ति से लेकर बड़े पद पर बैठे व्यक्ति से सीधा संवाद कर सकता है। और उसकी बात को समाज तक ले जा सकता है। पत्रकार उस आवाज को आवाज दे सकता है जिसकी कोई आवाज नहीं होती। स्कूली जीवन में मैंने लेखन से संबंधित कुछ कोर्स भी किए थे। पहली बार जब कॉलेज किया तो स्कूल पत्रिका में छापना शुरू हुआ। फिर पढ़ने का सिलसिला जारी रहा। साहित्यिक पत्रिकाओं से परिचय हुआ। पिथौरागढ़ जैसी जगह में हम रहते थे तो साहित्यिक पत्रिकाओं के बारे में जानते ही नहीं थे। शुरुआती दिनों से मैं कादंबनी पढ़ता था। वह काफी स्तरीय पत्रिका थी। मैंने उसमें अपनी कुछ चीज भेजी तो वह छपी नहीं। पढ़ने का सिलसिला जारी रहा और फिर समझ में आया कि साहित्य होता क्या है। किस तरह की चीजें लिखी जानी चाहिए। एक पत्रिका कृति ओर राजस्थान से निकलती थी इसके संपादक विजेंद्र थे। उनसे पहली बार संपर्क हुआ। इसके बाद उन्होंने लिखने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने कहा कि यहां के जनजीवन, प्रकृति और समाज को लेकर कुछ लिखिए। वह इस चीज को महत्व देते थे कि कविता में जनजीवन, समाज का चित्र दिखाई देना चाहिए। आप जहां के हैं, जिस अंचल से आप आते हैं वह आंचल आपकी कविताओं में दिखना चाहिए। पढ़ने वालों को पता चल जाना चाहिए कि यह किस अंचल और किस जमीन का कवि है, उसके संघर्ष क्या है, जिसकी बाद मैंने लिखना और भेजना शुरू किया। इसके बाद धीरे-धीरे साहित्य की एक समझ बनी। किसके बाद अन्य पत्र पत्रिकाओं में भी हंस कथा देश जैसी पत्र पत्रिकाओं में मेरी लेखनी छपना शुरू हुई। हिंदी के बड़े कवि इलाहाबाद में रहने वाले हरिश्चंद्र पांडे और मेरा ससुराल इत्तेफाक से एक ही जगह गंगोलीहाट में है। हम एक ही परिवार के हैं। मैं उनके संपर्क में आया और लगातार उनसे संवाद हुआ। मेरी समझ और गहरी हुई। क्या पढ़ना है यह समझ में आया। फिर यात्रा आगे चल पड़ी। साहित्य ने मुझे बच्चों को समझने में भी मदद पहुंचाई है। उनके प्रति और संवेदनशील होने में साहित्य ने मेरी मदद की है। जब मैंने शिक्षा से संबंधित साहित्य पढ़ा तो मैं बच्चों को और अच्छी तरह से समझ पाया। मैं उनको अपनी बात अच्छी तरह से समझा पाया। उनकी सीखने की प्रक्रिया में और मददगार हो पाया। जैसे स्कूलों में हमारा प्रयोग रही दीवार पत्रिका। मेरी खुद के अंदर का जो रचनाकार था और जो खुद को व्यक्त करने की छटपटाहट थी मुझे लगा कि इन बच्चों के साथ भी ऐसा जरूर होगा। तो मुझे लगा मैं इस रूप में उनकी मदद कर सकता हूं।
आपने दीवार पत्रिका की बात की, एक बहुत ही बढ़िया कांसेप्ट है। थोड़ा सा इसके बारे में बताइए और कैसे हम दीवार पत्रिका जैसे कॉन्सेप्ट के जरिए बच्चों की सृजनशीलता में बदलाव ला सकते हैं?
दीवार पत्रिका बहुत लंबे समय से निकली जा रही थी। विभिन्न विश्वविद्यालय में युवाओं के समूह अपने यहां दीवार पत्रिका निकाल रहे थे। लेकिन हमने इसे स्कूली स्तर पर प्रारंभ किया। इसके पीछे हमारी यह कोशिश रही थी कि बच्चों के अंदर भाषाई दक्षता का विकास हो। भाषा के विकास के लिए दो चीजें बहुत ज्यादा जरूरी है, पहला चिंतन और दूसरा अभिव्यक्ति। बच्चा जितना अधिक चिंतन करेगा, जितना अधिक कल्पना करेगा और फिर उसको अभिव्यक्त करने के जितने ज्यादा अवसर मिलेंगे, उसकी भाषा उतनी ज्यादा मजबूत होगी। अब सवाल यहां पर आता है कि हमें ऐसा क्यों लगा कि इसे शुरू करना चाहिए। मैंने प्राथमिक स्तर से लेकर माध्यमिक स्तर में अलग-अलग बच्चों के साथ काम किया है। इस बीच मैंने देखा कि हमारे बच्चों की भाषाई दक्षता काफी कमजोर है। उसके चलते बच्चे अन्य विषयों में भी बेहतर नहीं कर पा रहे हैं। यह स्वाभाविक है। भाषा एक पुल का काम करती है, जब आपकी भाषा ही कमजोर होगी तो अन्य विषय भी आपकी समझ में नहीं आएंगे। मुझे ऐसा लगा कि हमें कुछ करना चाहिए जिससे बच्चों की भाषा मजबूत हो। दूसरा, जो हमारी शिक्षा पद्धति है वो परीक्षामुखी है। दरअसल हम जो पढ़ाते हैं और पढ़ते हैं वह सब परीक्षा के लिए होता है। ताकि परीक्षा में बच्चे अच्छे अंक प्राप्त करें। इसमें केवल बच्चों की याद करने की क्षमता का मूल्यांकन होता है। आप जितना अच्छा याद कर सकते हैं आपके इतने अच्छे अंक आ जाएंगे। आप उस विषय को समझे हैं या नहीं समझे, इससे कोई लेना-देना नहीं है। हमें लगा कि यह कोई बात नहीं है। जब तक बच्चा किसी अवधारणा को समझ नहीं जाता है। समझने का मतलब है कि जो चीज उसने पढ़ी है, उस पढ़ी हुई चीज को वो बदली हुई परिस्थितियों में लागू कर पाता है। जो उसने किताब से जानकारी और सूचनाओं ली, उनका बदली हुई परिस्थितियों में इस्तेमाल करते हुए वह काम कर पाता है या नहीं कर पाता है। हमें लगा बच्चों का यह पक्ष कमजोर है। दीवार पत्रिका यह दोनों काम कर रही है। वह बच्चों की याद रखने की आदत से उनको दूर ले जाती है,। क्योंकि अब आपको एक मौलिक कहानी लिखनी है। वह रटकर कोई भी बच्चा नहीं लिख सकता है। ऐसे ही अन्य विषयों का सवाल है। दीवार पत्रिका बच्चों को ऐसे अवसर मुहैया करवाता है। पत्रिका अपनी भाषा को अधिक से अधिक इस्तेमाल करने का अवसर देती है और अपने अंदर जो कल्पना, भाव और विचार हैं उनको दूसरों के सामने खाली करने का मौका देती है। इससे बच्चों के अंदर आत्मविश्वास बढ़ता है। जब आत्मविश्वास बढ़ता है तो बच्चा हर फील्ड में अच्छा करता है।
आपकी कविताओं को आपसे सुनना, क्योंकि पढ़ना और रूबरू होकर उन कविताओं को सुनना एक अलग अनुभव है। कुछ कविताएं जो आपके दिल के करीब हों?
आपने दिल से करीब वाली बात कही, दरअसल यहां पर मेरे लिए बड़ी असमंजस की स्थिति हो जाती है आखिर मैं किसको बहुत अच्छी कविता मानूं। क्योंकि मुझे लगता है एक रचनाकार का अपनी रचनाओं से वैसा ही संबंध होता है, जैसा एक माता-पिता का अपने बच्चों के साथ होता है। यह अलग बात है कि कौन सी रचना लोगों तक ज्यादा संप्रेषित होती है। लेकिन कवि के मन में यह ख्याल हमेशा से होता है कि मैं क्या कहना चाह रहा हूं और यह इस कविता में क्या कहा गया है। फिर भी कुछ कविताएं जो लोगों द्वारा ज्यादा पसंद की गई है मैं उन कविताओं को सुनाता हूं।
अब उन लाइनों की बात जिनके लिए आपने कहा कि कविता का भी अपना भाग्य होता है और अगर वह लाइनें आपसे नहीं सुनेंगे तो लगेगा कुछ अधूरा सा है?
वैसे यह कविता मेरा पीछा नहीं छोड़ रही है फिर भी आपके अनुरोध पर सुना देता हूं…। अब पहुंची हो सड़क तुम…..जब सारा गांव शहर जा चुका है…. सड़क मुस्कुराई…..कितने भोले हो भाई…. खड़िया, पत्थर, रोड़ी, बजरी तो है न… खड़िया, पत्थर, रोड़ी, बजरी तो है न।
अब दुनिया आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की तरफ जा रही है, ऐसे में जब हम ग्लोबल लैंग्वेज की बात करते हैं और उसमें अपनी दुध बोलियों को संभाले रखना, अपनी विरासत को बचाए रखना यह कैसे संभव हो पाएगा?
आपने बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल किया है। यह संकट पूरी दुनिया भर में पैदा हुआ है। कहा जाता है कि हर रोज कोई ना कोई बोली मर रही है। बहुत सारी बोलियां आज पूरी तरह से खत्म हो चुकी हैं। मुझे लगता है कि इसके पीछे ग्लोबलाइजेशन का दौर चल रहा है जो एक तरह से लोक का दुश्मन भी है, क्योंकि पूरी दुनिया को एक तरह का बनाने के कोशिश की जा रही है। इसमें लोक बोली, लोक संस्कृति, लोक जीवन को बचाना अपने आप में एक चुनौती है। मुझे लगता है कि यह सारी चीजें जीवन से जुड़ी हुई चीजें हैं। हमारा जीवन जिस तरह से बदल रहा है, जहां से बोली का संबंध है, पूरी जीवन प्रक्रिया से उसका संबंध है, वो पूरी तरह से बदल रही है। आज हमारे गांव खाली हो गए हैं। स्वाभाविक है गांव की बोली और संस्कृति पर खतरा आ गया है। मुझे लगता है कि बोली बचाने का जो सवाल है, यह एक तरह से एकाकी सवाल है। यह तमाम इन चीजों के साथ ही बच पाएगा, जब वो जीवन बचेगा तभी वो शब्द भी बचेंगे। क्रिया से शब्द पैदा होते हैं। आप देखिए कोरोना काल आया और इस दौरान कितने नए शब्द पैदा हुए। इसी तरह से हमारी लोक बोली में आपको बहुत सारे ऐसे शब्द मिलेंगे, जो हमारे उस लोक जीवन के क्रियाकलापों से पैदा हुए, उन व्यंजनों से पैदा हुए, उन अनाजों, खेती के कामकाजों, औजारों से पैदा हुए, अब वो रहे नहीं हैं। उनको बचाना अपने आप में बड़ा कठिन है। वो काम ही नहीं रहे तो उनसे जुड़े हुए शब्द कैसे रहेंगे। मुझे लगता है कि इसमें एक संगठित लड़ाई की जरूरत है। मैं यह मानता हूं कि कोई भी बोली या भाषा तब अधिक विस्तार पाती है जब वो बाजार की भाषा हो, जब वो राजगार की भाषा हो। यदि मैं आज भारत की बात करूं कि आज अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ा है। वो इसलिए नहीं बढ़ा है कि यहां के लोग अंग्रेजी से कुछ खास लगाव रखते हैं, अंग्रेजी का प्रभाव इसलिए बढ़ा है क्योंकि अंग्रेजी रोजगार देने वाली भाषा है। यह माना जाता है की अगर आपको अच्छा रोजगार चाहिए तो आपको अंग्रेजी आनी चाहिए, आपको सीखनी पड़ेगी। यह नहीं है कि आपको दूसरे देश में जाना है और वहां व्यापार करना है या वहां रोजगार करना है, इसलिए आपको अंग्रेजी आनी चाहिए। अपने ही देश में भी आपको अच्छा रोजगार करना है तो अंग्रेजी आनी चाहिए। इसलिए सरकारी स्कूलों में, हिंदी माध्यम के या भारतीय भाषाई माध्यम के स्कूल खाली होते जा रहे हैं।
अब मुझे लगता है कि मान्यता प्राप्त भारतीय भाषाओं के सामने खतरा है। आज हिंदी के सामने खतरा आने लग गया है। आज से 10 साल बाद हम इसी तरह से हिंदी के बारे में बात कर रहे होंगे जिस तरह से आज हम लोक बोलियों के बारे में बात कर रहे हैं, क्योंकि जिस तरह से माध्यम भाषा या भारतीय भाषा के रूप में हिंदी स्कूलों से गायब होती जा रही है। कैसे हम इसे बचाएंगे यह भी एक चुनौती है। फिर भी मुझे लगता है कि हमें अपने प्रयास करने रहना चाहिए। हम अपने व्यवहार में इनका जितना प्रयोग कर सकते हैं, उतना करना चाहिए। हमें अपनी बोली में अच्छा साहित्य सृजित करना चाहिए क्योंकि यह भी एक बहुत बड़ा कारण है। यदि हमारी बोली भाषा में अच्छा साहित्य लिखा जाएगा, एक स्तरीय साहित्य लिखा जाएगा तो लोग उसको पढ़ने के लिए प्रेरित होंगे। लोग उसको जानेंगे। इस तरह से बहुत सारे एक साथ प्रयास करते हुए हम अपनी दुध बोली को बचा सकेंगे। हमें इसकी लड़ाई मिलकर लड़नी चाहिए। मैं कहता हूं कि आज हम केवल हिंदी को बचाने की ही क्यों बात करते हैं या केवल गढ़वाली, कुमाऊंनी बचाने की ही क्यों बात करते हैं। आपको जौनसारी बचाने की भी बात करनी पड़ेगी। सबको मिलकर यह लड़ाई लड़नी पड़ेगी। सारी भारतीय भाषाओं को अंग्रेजी के वर्चस्व के खिलाफ लड़ना पड़ेगा। यह राजनीतिक सवाल है। भावनात्मक रूप से तो हमें अपनी बोली से प्रेम है, हम उसका इस्तेमाल भी कर रहे हैं। लेकिन मुझे लगता है इतने प्रयासों से भी वो बचेगी नहीं। धीरे-धीरे वो कम होती रहेगी। जब तक राजनैतिक स्तर पर उनको बचाने के लिए कोई ठोस फैसले नहीं होते हैं तब तक बड़ा कठिन है। ऐसा मैं मानता हूं।
जब हम बोली-भाषा की बात करते हैं तो कई बार ऐसा होता है कि वो क्लिष्ठ हो जाती है। भाषा का सरलीकरण सही है या नहीं?
भाषा का सरलीकरण बहुत ज्यादा जरूरी है। मझे लगता है कि यदि आज अंग्रेजी एक वैश्विक भाषा बनी है तो इसके पीछे बहुत बड़ा कारण है… अंग्रेजी भाषा की उदारता। उसने हर भाषा के शब्दों को अपने शब्दकोश में शामिल किया है। यदि हम शुद्धता के बारे में बात करते हैं या शुद्धतावाद पर चलें की दूसरी भाषाओं के शब्द हमारी बोली भाषा में नहीं लिए जायेंगे, ऐसा करके हम कहीं न कहीं अपनी भाषा के प्रसार को ही रोक देंगे। हमें दूसरे भाषा के शब्दों को ग्रहण करना ही चाहिए। और उसको सहज सरल बनाने की भी जरूरत है। उसे बहुत अड़े रहने की जरूरत नहीं है। यह बहुत जरूरी है भाषा को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाने के लिए उसके खिड़की दरवाजे हमें खोलने पड़ेंगे। बाहर की हवा भी वहां आए और हमारे यहां से बाहर जाए। जैसे आपने देखा मैंने दो कविताएं यहां पढ़ी, मेरी कोशिश रहती है कि भले ही मैं हिंदी में कविता लिख रहा हूं लेकिन लोक बोलिया के शब्दों को उसमें लाऊं। मैं चाहता हूं कि इस बहाने हिंदी में हमारी बोली के शब्द समाविष्ट हो। जैसे भोजपुरी, अवधि के शब्द आप हिंदी खड़ी बोली में देखते हैं। हमारी बोली के शब्द भी वहां पहुंचने चाहिए। इस तरह से हम अपनी दुधबोली की सेवा कर सकते हैं। उसको आगे बढ़ा सकते हैं। कुछ एकेडमिक लोगों को लुप्तप्राय शब्दों को बचाने के लिए शब्दकोश में संरक्षित करने चाहिए। उस तरीके के काम भी किया जा सकते हैं।
कई बार ऐसा होता है कि एकेडमिक बहसों के कारण ही यूथ कनेक्ट फील नहीं कर पाता है। इस पर क्या कहेंगे?
इसके लिए ही बोली भाषा बचाने वाले आंदोलनों की आवश्यकता है। इस तरह से वह यूथ जो बोली भाषा से दूर होता जा रहा है, ये आंदोलन उन्हें अपनी ओर लाने का प्रयास करते हैं और उनको झकझोरते हैं। भावनात्मक रूप से आकर्षित करते हैं। चाहे वो गढ़वाली-कुमाऊंनी बचाने के अभियान हो या देश भर में अन्य भाषाओं को लेकर उनके साथ हमें बिरादाराना गठबंधन करना पड़ेगा। हम केवल कुमाऊंनी बचाने की बात ना करें, हमें गढ़वाली बचाने की भी बात करनी चाहिए। गढ़वाल वाले गढ़वाली बचाने की बात कर रहे हैं और कुमाऊं वाले कुमाऊंनी बचाने की बात कर रहे हैं। जबकि हमें सभी को बचाने की बात करनी चाहिए। उत्तराखंड में तीन बोलियां मुख्यतः बोली जाती है। तीनों बोलियों की वकालत हमें करनी चाहिए अन्यथा वही होगा कि गढ़वाली और कुमाऊंनी बच जाएगी लेकिन अन्य बोलियां खत्म हो जाएंगी, जिनका अपना अलग महत्व है। क्योंकि वह किसी की दुधबोली है। हमें अपनी मां से प्रेम है तो हमें दूसरे की मां के प्रति भी प्रेम होना चाहिए। उसके साथ ही हमें खड़ा होना चाहिए। जब ऐसी सामूहिक लड़ाई होगी, राजनीतिक दबाव बनेगा तो मुझे लगता है कि भाषा बोली बचाने के लिए भविष्य में एक ठोस रणनीति सरकार जरूर बनाएगी।