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    एडीटर स्पेशल

    Oh My Pigeons! छोटा सा कबूतर, खतरा बड़ा!

    Oh My Pigeons! क्या आप भी कबूतरों को दाना डालते हैं? निश्चित तौर पर आपका जवाब ‘हां’ में होगा। भला कौन होगा जो इस खूबसूरत पक्षी को दाना नहीं डालना चाहेगा। अगर आप भी ऐसा ही मानते हैं तो अपने इस ‘काइंड एक्ट’ को तुरंत रोक दें। भले ही कबूतरों को दाना डालना पुण्य का काम माना जाता हो लेकिन यह ना सिर्फ कबूतरों बल्कि इंसानों के लिए भी खतरे पैदा कर रहा है। अब इसमें पहाड़ भी शामिल हो रहे हैं। पहले पहाड़ों में कबूतर दिखाई नहीं देते थे लेकिन अब दिखने लगे हैं। कबूतरों को दाना डालना तो और भी गंभीर मामला है। इतना गंभीर कि कई देशों में आप पर सिर्फ इसलिए जुर्माना लग सकता है या फिर जेल हो सकती है क्योंकि आप कबूतरों को दाना खिला रहे थे।
    teerandajBy teerandajJuly 15, 2025No Comments
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    बैंकॉक में अगर कोई कबूतर को दाना डालता है तो उसे 3 महीने की जेल हो सकती है। वेनिस में ऐसा करने पर 60 हजार रुपये जुर्माना भरना पड़ सकता है। कंबोडिया की राजधानी में कबूतरों को दाना खिलाने पर सजा का प्रावधान है। सवाल उठता है आखिर क्यों? एक मासूम और खूबसूरत पक्षी को दाना खिलाने से किसी को क्या परेशानी हो सकती है? तो इसका जवाब है परेशानी हो सकती है… और वो भी बहुत बड़ी। वो परिंदा…जो कभी दिल मिलाने का काम करता था…वो आज दिल को बीमार कर रहा है। भारत के कई शहरों में ऐसे टूरिस्ट प्लेस हैं जहां कबूतरों को दाना डालते हुए लोग दिख जाते हैं। इस तरह इंसानों और कबूतरों के बीच दूरी कम होती दिखती है। आज हालात ये हैं कि बीते एक दशक में भारत में कबूतरों की संख्या में 150 फीसदी की बढ़ोतरी हो गई है। ये किसी भी पक्षी की जनसंख्या में हुई सबसे ज्यादा बढ़ोतरी है। चिंता वाली बात ये है कि इंसानों और कबूतरों के बीच का यही रिश्ता अब खतरनाक साबित हो रहा है।
    उत्तराखंड में भी अब कबूतरों की फौज दिखने लगी है। पहले जहां इनकी तादाद सिर्फ मैदानी भागों तक सीमित थी। वहीं अब शहर पक्षी कबूतर पहाड़ चढ़ने लगे हैं। इसका जिम्मेदार है क्लामेट चेंज और फैलता कॉन्क्रीट का जंगल। मैदानी इलाकों में जहां जंगलों को साफ करके कंक्रीट का जंगल खड़ा किया जा रहा है, वहीं पहाड़ों में लगातार तापमान बढ़ रहा है। बढ़ते तापमान की वजह से यहां आने वाले कई पक्षी समय से पहले ही पलायन कर रहे हैं। हर साल दुनिया भर के कोनों से लाखों पक्षी उत्तराखंड के जंगलों में आते हैं। इनका आना यहां के जंगलों के लिए काफी महत्वपूर्ण है। लेकिन बीते कुछ सालों में जिस हिसाब से उत्तराखंड का तापमान बढ़ा है, वो इन पक्षियों को जल्दी यहां से निकलने के लिए मजबूर कर रहा है। आम तौर पर जो पक्षी मार्च के आखिरी या अप्रैल की शुरुआत में वापस जाते थे, वो अब फरवरी में ही उड़ने की तैयारी करने लगते हैं। पहाड़ों के गरम होने की वजह से कबूतरों के लिए यहां अच्छा वातावरण बन रहा है। ये शहरों से अब पहाड़ आने लगे हैं और यहां पर भी इन्हें इंसानों की तरफ से आसानी से खाना मिल जा रहा है। अनुकूल एनवायरनमेंट और भरपूर खाना… इन दो वजहों से इन्हें सर्वाइव करने में मुश्किल नहीं हो रही है। ऊपर से उत्तराखंड में तो वीरान पड़े घर में इनका ठिकाना हो जा रहा है। कबूतरों की आदत ये है कि एक बार जब इन कबूतरों को कहीं से भी आसानी से खाना मिल जाता है तो ये वहीं रहना पसंद करते है।


    इंसानों को कैसे नुकसान?

    कबूतर वैसे तो दिखने में खतरनाक नहीं लगते और ना ही इनका स्वभाव किसी को नुकसान पहुंचाने वाला होता है लेकिन इनकी हरकतें जरूर नुकसान पहुंचा रही हैं। इंसान को सबसे ज्यादा खतरा है इनके पंख और वेस्ट से होता है। अमेरिका की नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन ने कबूतरों पर रिसर्च की तो उन्हें बाग-बगीचे, सड़कें, अस्पताल, कबूतर घर, पुराने भवन जैसे सार्वजनिक स्थानों से क्रिप्टोकॉकस नियोफरमेंस और हिस्टोप्लाज्मा नाम के जीवाणु या कहें वायरस मिले। ये लंग्स में फंगल इनफेक्शन करते हैं। ये ना सिर्फ लंग्स पर असर डालते हैं बल्कि दिमाग पर भी इनका असर पड़ता है। दरअसल कबूतरों की बीट, जो कि बैक्टीरिया या वायरस से संक्रमित होती है,  ये अक्सर सड़कों, खिड़की की मुंडेरों और गाड़ियों पर पड़ी रह जाती है और सूख जाती है। सूखने के बाद ये बीट पाउडर बन जाती है जो हवा में फैल जाती है और सांस के जरिए इंसानी शरीर के भीतर चली जाती है। इस पाउडर को सांस के ज़रिये अंदर लेने से ये फेफड़ों तक पहुंचती है, और फिर धीरे-धीरे लंग इनफेक्शन का कारण बनती है। राजधानी दिल्ली में भी कबूतरों की तादाद काफी मात्रा में है। यही वजह है कि यहां पर लोगों में लंग्स इंफेक्शन का खतरा लगातार बढ़ता जा रहा है।


    कबूतरों को लेकर दिल्ली के सर गंगा राम अस्पताल ने भी एक स्टडी की है। इसमें 11 साल के एक बच्चे का केस बताया गया है जो कबूतरों की बीट और पंखों के संपर्क में काफी बार आया था। इस संपर्क की वजह से बच्चे को सांस से जुड़ी बीमारी हो गई। कबूतरों की बीट के बाद उनके पंख भी बीमारी फैलाने में पीछे नहीं रहते। एक्स्पर्ट्स बताते हैं कि कबूतरों के पंख और फर्र भी सांस की बीमारियों जैसे अस्थमा, ब्रोंकाइटिस और ब्रोंकियोलाइटिस के कारण बन सकते हैं। ये सारी बीमारियां सांस से जुड़ी हुई हैं। इन बीमारियों पर अगर ध्यान नहीं दिया गया तो ये खतरनाक हो सकती हैं। जिन लोगों को पहले से ही फेफड़ों से जुड़ी बीमारियां हैं, उनके लिए कबूतरों की बीट के संपर्क में आना यानी जान का खतरा उठाने जैसा है। बीट के पाउडर में ऐसे वायरस होते हैं जो हाइपरसेंसिटिविटी न्यूमोनाइटिस नामक स्थिति को जन्म दे सकते हैं। ये एक प्रकार कि एलर्जी होती है जो लंग्स में सूजन का कारण बनती है। इस बीमारी के बारे में जागरूकता बेहद कम है। इसी कारण यह अक्सर लंबे समय तक पहचानी नहीं जाती और इलाज के बिना रह जाती है।

     ऐसा नहीं है कि ये बीमारियां सिर्फ थ्योरीज में हैं। नवंबर 2023 में 53 वर्षीय एक महिला को कबूतरों की बीट के संपर्क में आने से हाइपरसेंसिटिविटी न्यूमोनाइटिस की जानलेवा स्थिति हो गई। इसके चलते उन्हें लंग ट्रांसप्लांट कराना पड़ा। इस बीमारी के शुरुआती लक्षण हैं बुखार, खांसी और सांस लेने में दिक्कत लेकिन कबूतरों से होने वाले इस फंगल इन्फेक्शन की जानकारी ज्यादा लोगों के बीच नहीं है। इसलिए इसे छोटा-मोटा वायरल समझ कर लोग नजरअंदाज कर देते हैं। सिर्फ लोगों के बीच ही नहीं बल्कि डॉकटरों के बीच भी इस बीमारी की जानकारी कम है।
    चेस्ट रिसर्च फाउंडेशन के प्रिंसिपल संदीप सल्वी कहते हैं कि कबूतर सिर्फ बीमारी नहीं फैला रहे बल्कि शहरों की ऐतिहासिक धरोहरों को भी नुकसान पहुंचा रहे हैं। इनके बीट में यूरिक एसिड की मात्रा अधिक होती है। ऐसे में जब ये शहरों की प्रख्यात मूर्तियों या फिर इमारतों पर बैठते हैं तो इनकी बीट से उनको नुकसान पहुंचता है और उनके टूटने या खंडित होने का खतरा बढ़ जाता है। ये खतरे इसलिए भी और बढ़ रहे हैं क्योंकि इनकी जनसंख्या लगातार बढ़ रही है।

    हमारी वजह से बढ़ रहे कबूतर?

    कबूतरों को दाना खिलाने के जिस काम को हम अच्छा मानते हैं, वही हमारे लिए और खुद इनके लिए बुरा साबित हो रहा है। एंड्र्यू डी ब्लेचमेन अपनी किताब ‘द फेसिनेटिंग सागा ऑफ द वर्ल्ड्स मोस्ट रिविर्ड एंड रिवाइल्ड बर्ड’में लिखते हैं कि कबूतर कोई संकट नहीं हैं। अगर इनकी संख्या बहुत ज्यादा हो गई है तो इसकी वजह इंसान ही हैं। जब हम इन्हें जानबूझकर अधिक दाना डालते हैं या ज़मीन पर खाना गिरा देते हैं, तो उनकी आबादी तेज़ी से बढ़ती है।

    2014 में जम्मू विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि जम्मू शहर में कबूतरों की खुराक का अधिकांश हिस्सा इंसानों की तरफ से दिए गए भोजन से आता है। रिसर्च में सामने आया कि कबूतर अब बचे-खुचे खाने को खाने के बजाय सार्वजनिक रूप से दिए जा रहे भोजन को प्राथमिकता दे रहे हैं। अब ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए क्योंकि जहां पहले उन्हें खाना खोजना पड़ता था। इस काम में काफी ज्यादा मेहनत लगती है लेकिन अब क्योंकि उन्हें इंसान की तरफ से एक ही जगह पर खाना दे दिया जा रहा है तो उन्हें ऊर्जा खत्म करने की जरूरत ही नहीं पड़ रही और भरपेट खाना भी मिल जा रहा है। वेनिस में भी यही हुआ। यहां के फेसम टूरिस्ट स्पॉट्स पर टूरिस्ट की तरफ से दाना इनके लिए सबसे आसान खाना बन गए और यही वजह रही कि इनकी जनसंख्या इन क्षेत्रों में धीरे-धीरे ज्यादा बढ़ गई।

    इंसानों का ये ‘काइंड एक्ट’ कैसे कबूतरों की जनसंख्या बढ़ रहा है वो भी जान लीजिए। कुछ शोध बताते हैं कि अगर इन कबूतरों को 4 से 5 दिन तक कुछ खाना या दाना नहीं दिया जाए तो 5 प्रतिशत तक इनकी जनसंख्या में कमी आ सकती है। यानी इंसान ही इन कबूतरों कि बढ़ती आबादी का कारण हैं। हालांकि सिर्फ यही एक वजह नहीं है। विशेषज्ञ इनके बढ़ने के पीछे एक और वजह देखते हैं। उनका मानना है कि कबूतरों के प्रतिद्वंदी पक्षियों की संख्या में कमी आई है। इससे ये बिना डर के आसान खाने की तलाश में शहरों की ओर रुख कर रहे हैं। कबूतरों का शहरों की तरफ आना सिर्फ बीमारियों को न्यौता देना नहीं है बल्कि इससे प्रकृति का संतुलन भी बिगड़ रहा है। पहले जो बीज इनकी मदद से जंगलों तक पहुंचते थे, वो आज कम होते जा रहे हैं। कबूतर अधिक मात्रा में बीज और कचरा खाकर पर्यावरण की सफाई में मदद करते हैं लेकिन इंसानों के दाना देने की वजह से कबूतर अपनी इस प्राकृतिक काम से दूर हो रहे हैं। इसके अलावा कबूतर एक स्थान से दूसरे स्थान तक पोलेन ले जाकर पौधों के लगने में भी योगदान देते हैं लेकिन अब इसमें भी बदलाव आ रहा है और धीरे-धीरे ये गतिविधि भी कम हो रही है।

    इसी वजह से इटली, थाईलैंड, कंबोडिया समेत कई देश लोगों को इन्हें दाना ना डालने के लिए कह रहे हैं। भारत के हैदराबाद में 2017 से कबूतरों को दाना डालने पर बैन है। पुणे में भी आम लोगों से अपील की गई है कि वे कबूतरों को दाना ना डालें। अब ये खतरा सिर्फ शहरों तक सीमित नहीं रह गया है, अब इन्होंने हमारे पहाड़ों पर भी चढ़ना शुरू कर दिया है। जी हां, कबूतर बड़ी तेजी से अब पहाड़ों की तरफ आ रहे हैं।

    सेडार के शोध में हुई थी पुष्टि

    कुछ साल पहले देहरादून स्थित सेंटर फॉर इकोलॉजी, डेवलपमेंट एंड रिसर्च (सेडार) और हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सेलुलर एंड मॉलीक्यूलर बायोलॉजी (सीसीएमबी) ने उत्तराखंड के 1700 से 2400 मीटर की ऊंचाई वाले 1285 वर्ग किलोमीटर जंगल में करीब चार महीने तक एक शोध किया था। 2021 के इस शोध में भी कहा गया था कि उच्च हिमालयी क्षेत्रों में पर्यावरण असंतुलन के कारण मूल रहवासी पक्षी कम हो रहे हैं और मैदानी क्षेत्रों में रहने वाले कबूतर जैसे पक्षी ऊंचाई वाले इलाकों में जगह बना रहे हैं। हिमालयी जंगलों में कबूतर, चील, बुलबुल और बैबलर आदि पक्षी मिल रहे हैं। सेडार की पक्षी विशेषज्ञ डा. गजाला शाहबुद्दीन के हवाले से इस रिसर्च में कहा गया कि मैदानी पक्षी न सिर्फ यहां घूम रहे हैं बल्कि घोंसला बनाकर प्रजनन भी कर रहे हैं।

    (विकास जोशी, पंकज चंद की रिपोर्ट)

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