उत्तराखंड सरकार लीसा का सारा काम निजी क्षेत्र को देने की तैयारी कर रही है। इस बाबत शीर्ष स्तर पर विचार विमर्श किया जा रहा है। राज्य में हर साल एक लाख क्विंटल से अधिक लीसा एकत्रित किया जाता है। लीसा एकत्रित करने का कार्य ठेका देकर कराया जाता है। लेकिन, इसके बाद का सारा कार्य जैसे- लीसा विदोहन, भंडारण और बिक्री का काम वन विभाग करता है। अब ये सारे काम भी निजी हाथों में देने की तैयारी है। वन विभाग का मानना है कि इससे आय बढ़ेगी, क्यों कि यह काम निजी हाथों में जाने से अधिक मात्रा में लीसा एकत्रित किया जा सकता है।
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हालांकि, इस काम के लिए लीसा तथा अन्य वन उपज (व्यापार विनियमन) अधिनियम-1976 और नियमावली में बदलाव करना होगा। यानी 48 साल बाद लीसा नीति बदलेगी। बतादें कि लीसा नीति संयुक्त उत्तर प्रदेश के समय की बनी है। राज्य गठन के 24 सालों बाद भी इसमें कोई परिवर्तन नहीं किया जा सका है। अब वन मुख्यालय से प्रस्ताव तैयार कर शासन को भेज दिया गया है। शासन भी सभी संभव विकल्पों को देखने की बात कह रहा है। उत्तराखंड के जंगलों के लिए अभिशाप माने जाने वाले चीड़ के पेड़ से लीसा एकत्रित किया जाता है। वन विभाग की आय का एक बड़ा हिस्सा इससे आता है।
दरअसल, इसी वर्ष अक्तूबर में एक उच्च स्तरीय बैठक हुई थी। इसमें वन मंत्री, प्रमुख सचिव वन आदि शामिल हुए थे। इस बैठक में लीसा का काम पायलेट प्रोजेक्ट के तहत निजी क्षेत्र को देने की योजना पर मंथन हुआ था। अब इसको लेकर कवायद आगे बढ़ी है। क्योंकि यह काम काम निजी क्षेत्र को देना है, ऐसे में लीसा अधिनियम और नियमावली में बदलाव करना होगा। सूत्रों के अनुसार वन मुख्यालय ने इसका प्रस्ताव तैयार कर शासन को भेज दिया है।
हल्द्वानी, टनकपुर, नैनीताल अल्मोडा, ऋषिकेश में है डिपो
बेहद ज्वलनशील माने जाने वाले लीसा के भंडारण के लिए हल्द्वानी, टनकपुर, नैनीताल, अल्मोड़ा, ऋषिकेश समेत अन्य जगहों पर लीसा डिपो हैं, जहां पर सुरक्षा के कड़े इंतजाम होते है। प्राइवेट लोग नीलामी के माध्यम से लीसा खरीदते हैं। औसतन वन विभाग को हर साल करीब 100 करोड़ तक राजस्व प्राप्त होता है। मीडिया से बातचीत में वन विभाग के प्रमुख सचिव आके सुधांशु ने बताया कि संसाधनों का अधिकतम इस्तेमाल के लिए यह बदलाव जरूरी है। सभी विकल्पों पर विचार किया जा रहा है।
लीसा का इस्तेमाल
चीड़ के पेड़ से निकलने वाला लीसा बड़े काम का है। लीसे से विरोजा एवं तारपीन का तेल निकलता है। जिसका उपयोग कागज उद्योग, साबुन और पेंट बनाने में किया जाता है। लीसा ग्रामीण अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण स्रोत है। लीसे को 150 डिग्री से अधिक तापमान पर डीजल के साथ गर्म करने पर ठोस पदार्थ के रूप में विरोजा एवं द्रव्य पदार्थ के रूप में तारपीन का तेल निकलता है। विरोजा, लाख, ग्लास, चूड़ी और प्लास्टिक उद्योग में प्रयोग में लाया जाता है।
इस तरह निकाला जाता है लीसा
चीड़ के पेड़ों से लीसा निकालने के लिए 1960-65 में जोशी वसूला तकनीक अपनाई गई। इससे पेड़ों को भारी नुकसान हुआ। इसके बाद 1985 में इसे बंद कर यूरोपियन रिल पद्धति को अपनाया गया। इसमें 40 सेमी से अधिक व्यास के पेड़ों की छाल को छीलकर उसमें 30 सेमी चौड़ाई का घाव बनाया जाता है। उस पर दो मिमी की गहराई की रिल बनाई जाती है और फिर इससे लीसा मिलता है। इस पद्धति में पेड़ों की छिलाई अधिक होने से ये निरंतर टूट रहे थे। अग्निकाल में लीसा घावों पर अधिक आग लग रही थी। साथ ही उत्तम गुणवत्ता का लीसा नहीं मिल पा रहा था।
अब बोर पायलट प्रोजेक्ट के तहत होल पद्धति का इस्तेमाल कुछ जगहों पर किया गया है। बताया जा रहा है कि इसके नतीजे बेहतर आए हैं। इस पद्धति में लीसा निकालने के लिए चीड़ के तने को जमीन से 20 सेमी ऊपर हल्का सा छीलकर उसमें गिरमिट अथवा बरमा की मदद से तीन से चार इंच गहराई के छेद किए जाते हैं। इन्हें 45 डिग्री के कोण पर तिरछा बनाया जाता है। फिर छदों पर जरूरी रसायनों का छिड़काव कर उसमें नलकी फिट की जाती है और इससे आने वाले लीसा को पॉलीथिन की थैलियों में एकत्रित किया जाता है।