कम से कम ढाई हजार कमा लेती हूं। शायद यह रकम आपको बहुत कम लगे, लेकिन हमारे लिए बहुत बड़ा सहारा है। हमें अपनी छोटी-छोटी जरूरतों के लिए किसी के आगे हाथ नहीं फैलाना पड़ता।’ ये शब्द अल्मोड़ा के चौखुटिया में एक सेल्फ हेल्फ ग्रुप की सदस्य के हैं, जो NABARD के सहयोग से चल रहे फुटवियर डिजाइन प्रोजेक्ट में पार्टटाइम काम करती है। यहीं हमें कुछ और महिलाएं भी मिलीं, जो अलग-अलग तरह के छोटे-छोटे काम कर रही हैं। ये पहाड़ की छोटी-छोटी लेकिन बदलाव की बड़ी कहानियां हैं।
स्वयं सहायता समूह, यह नाम नाबार्ड का ही दिया हुआ है। इसके लिए जो पंचसूत्र है, वो नाबार्ड ने दिया। 1996 के आसपास रिजर्व बैंक ने भी इन समूहों को मान्यता दी। इसके लिए सर्कुलर जारी किया। इस समय भारत में कम से कम 1.35 करोड़ स्वयं सहायता समूह हैं। उसमें से लगभग 65 लाख समूह ऐसे हैं जो बैंकों के साथ संबद्ध हैं। उत्तराखंड में जितने स्वयं सहायता समूह बैंकों से जुड़े हैं, उन्हें दक्ष बनाना हमारा लक्ष्य है, ताकि, वो लोग आगे भी काम कर सकें।
विनोद कुमार बिष्ट
सीजीएम, नाबार्ड (उत्तराखंड रीजनल सेंटर)
नाबार्ड किस तरह से उत्तराखंड में बदलाव की कहानी लिख रहा है?
नाबार्ड एक यूनिक ऑर्गेनाइजेशन है, भारत का सबसे बड़ा डेवलपमेंटल फाइनेंशियल इंस्टीट्यूशन। यह बैंक की तरह काम करता है। बैंकों के लिए एडवाइजरी भी देता है, कुछ बैंकों का रेगुलेशन भी करता है। नाबार्ड को जो लाभ होता है, उसका बड़ा हिस्सा हम बुनकरों, किसानों को प्रशिक्षण देने में लगाते हैं। उनके लिए विशेष योजनाएं लाते हैं ताकि उनका ठीक से प्रशिक्षण हो सके। उनकी उत्पादन क्षमता बढ़े। हमारा उदे्श्य होता है कि वह जिन क्षेत्रों में काम कर रहे हैं, उनकी उत्पादकता बढ़े। पार्लियामेंट एक्ट के तहत नाबार्ड की स्थापना 1982 में हुई थी। एक समय ऐसा था कि नाबार्ड भारतीय रिजर्व बैंक का एक अभिन्न अंग था। उत्तराखंड के संदर्भ में बात करूं तो राज्य बनने के पहले लखनऊ से चलता था। राज्य गठन के बाद हमारा यहां कार्यालय है। अब तक हमने हर क्षेत्र में काम किया है।
नाबार्ड का सबसे ज्यादा फोकस ट्रेनिंग पर है, ग्रामीण क्षेत्रों के संदर्भ में बात की जाए तो इससे लोगों का आत्मविश्वास बढ़ा है, यह कैसे हुआ?
हम दो तरह के क्षेत्र में काम करते हैं। एक फॉर्मर सेक्टर दूसरा नॉन फॉर्मर सेक्टर। हमारे प्रशिक्षण में महिलाओं के ऊपर विशेष फोकस होता है। हमारी तमाम योजनाओं में एक है किसानों के लिए एक्सपोजर विजिट। इसमें हम किसानों को बाहर लेकर जाते हैं। इसे अंग्रेजी में कहते हैं ‘सीइंग इज बिलीविंग।’ हम उनको दिखाते हैं कि बाहर कैसे उन्नत खेती की जाती है। हमारे पड़ोस में हिमाचल है। जहां पर हॉर्टिकल्चर में बहुत बड़ा रेवोल्यूशन हुआ है। हम कोशिश करते हैं कि हर साल हर जिले से कम से कम दो या तीन इस प्रकार के एक्सपोजर विजिट हो जाएं। जिससे हमारे किसान, जिसमें महिलाएं भी होती हैं, वो बाहर जाकर देख सकें कि क्या-क्या बदलाव हो रहा है। कैसे उन्नत खेती हो रही है। कैसे सेब की खेती की जाती है। नए-नए पॉली हाउसेस तैयार हो रहे हैं। सब्जियों का उत्पादन कैसे हो रहा है। दूसरी एक्टिविटी है- जैसे मछली पालन व्यवसाय या कॉमर्शियल डेयरी। इसको कैसे किया जा रहा है। मैं समझता हूं कि यह बहुत असर करता है। हमारे प्रशिक्षण कार्यक्रम छोटे भी होते हैं, बड़े भी होते हैं।
चौखुटिया में महिलाएं चप्पल बना रही हैं, हल्द्वानी में एलईडी बल्ब, वो उसमें भी इनोवेशन कर रही हैं, जो नॉन ट्रेडिशनल काम है, इसमें कैसे जोड़ा?
जो पारंपरिक काम होते हैं, उसमें ढेर सारे लोग दक्ष होते हैं लेकिन उन्हें बाजार नहीं मिल पाता है। तो हमने सोचा कोई ऐसी योजना लाते हैं जिसमें लोगों को बाजार मिले। ऐसे प्रोडक्ट जो खुद भी इस्तेमाल करें। साथ ही स्थानीय बाजार, जो ब्लॉक, तहसील और जिला स्तर पर लगते हैं, वहां पर भी इनको मौके मिले। हमने सेनेटरी नैपकिन से शुरुआत की थी। यह महिलाओं के लिए बहुत अच्छी एक्टीविटी थी। यह प्रोडक्ट बाजार में बिकने वाले अन्य प्रोडक्ट की तुलना में आधे से भी कम दाम पर उपलब्ध कराया। बच्चों के लिए डायपर, ग्रामीण क्षेत्रों में इसको काफी अच्छा रिस्पांस मिला। ग्रामीण क्षेत्रों में तमाम ऐसे इलाके हैं, जहां महिलाएं सेनेटरी नैपकिन का इस्तेमाल नहीं करती हैं। हमने लगभग हर जिले में इसे बनाने का प्रशिक्षण दिया। उनके लिए यह बहुत बड़ा इनोवेशन था। इसके बाद हम लोग इन महिलाओं को एलईडी बल्ब बनाना सिखाया।
एसएचजी और नाबार्ड का क्या कनेक्शन है?
माइक्रो फाइनेंस प्रोग्राम की शुरुआत सबसे पहले बांग्लादेश में हुई थी। बांग्लादेश ग्रामीण बैंक के मोहम्मद यूनुस को इसका श्रेय जाता है। मैं यह नहीं कहूंगा कि यह प्रोग्राम भारत में नाबार्ड ने शुरू किया। पहले भी यह कई जगह अलग-अलग रूपों में था। लेकिन, प्रभावी नहीं था। कनार्टक में एक संस्था है माईराडा एजेंसी। इसके संस्थापक एक बार नाबार्ड आए। वह कुछ किसानों-महिलाओं को सक्षम बनाना चाहते थे। ताकि, उनके पास आमदनी का कोई जरिया विकसित हो सके। नाबार्ड के तत्कालीन अध्यक्ष ने कहा कि हम आपको 10 लाख रुपये ग्रांट देते हैं। लेकिन, महिलाएं एक दूसरे की सहायता से यह काम करेंगी इसलिए इसका नाम स्वयं सहायता समूह रखा जाए। यह नाम नाबार्ड का ही दिया हुआ है। अब तो यह अपने आप में बड़ा नाम हो गया। पूरे हिंदुस्तान में छा गया है। स्वयं सहायता समूह के लिए जो पंचसूत्र है, वो नाबार्ड का ही दिया हुआ है। 1996 के आसपास की बात है जब रिजर्व बैंक ने भी इन समूहों को मान्यता दी। इसके लिए सर्कुलर भी जारी किया। नाबार्ड ने इसका प्रारूप तैयार किया था। इस समय भारत में कम से कम 1 करोड़ 35 लाख स्वयं सहायता समूह हैं। उसमें से लगभग 65 या 66 लाख समूह ऐसे हैं जो बैंकों के साथ संबद्ध हैं। हमारा लक्ष्य है कि उत्तराखंड में जितने स्वयं सहायता समूह बैंकों से जुड़े हैं, उन्हें दक्ष बनाना। ताकि, वह लोग आगे भी काम कर सकें।
नाबार्ड जल स्रोतों पर भी काम कर रहा है, ऐसे और कौन-कौन से क्षेत्र हैं, जहां आप लोग काम कर रहे हैं?
नाबार्ड एक रिफाइनेंसिंग ऑर्गेनाइजेशन है। रिफाइनेंसिंग का मतलब होता है पुनर्वित्त देना। बैंकिंग सेक्टर में जो प्राथमिक क्षेत्र है, वहां जो कर्ज जा रहा है, उस कर्ज की भरपाई करते हैं। मतलब, किसानों, महिलाओं, समूहों को दक्ष बनाते हैं ताकि, वह अपना कर्ज चुका सकें। इस पर हम हजार करोड़ तक खर्च करते हैं। हम ग्रामीण बैंकों को फंड उपलब्ध कराते हैं। नाबार्ड का यह बहुत बड़ा बिजनेस भी है। इससे हमें जो आमदनी होती है उसका बड़ा हिस्सा हम ग्रांट के तौर पर खर्च करते हैं। स्वयं सहायता समूहों को प्रशिक्षण देते हैं।
नाबार्ड कुछ एजेंसियों के साथ मिलकर री-सर्कुलेशन एक्वाकल्चर सिस्टम यानी आरएएस सिस्टम से मछली पालकों की सहायता कर रहा है। यह बहुत कारगर योजना है। कई मछली पालक इससे लाखों रुपये कमा भी रहे हैं। इसमें सबसे खास बात यह है कि इस योजना का लाभ छोटे-किसान से लेकर बड़ा किसान भी उठा सकता है। इसकी लागत दो लाख रुपये से लेकर पचास लाख रुपये तक है। पहाड़ी इलाकों में इस सिस्टम का इस्तेमाल कैसे किया जाए? इसपर रिसर्च का जिम्मा आईसीआर इंस्टीट्यूट को दिया गया है। यह प्रोग्राम चल रहा है।
आजकल देश में फिटनेस प्रेमियों के बीच आर्गेनिक अनाज खासा लोकप्रिय है। यह प्रोडक्ट महंगा भी होता है। देश में कई जगह-आर्गेनिक के नाम पर सामान्य अनाज बेच दिया जा रहा है। इन सबको देखते हुए नाबार्ड ने एक स्कीम लॉन्च की। ट्रेसेबल ऑफ एरियस एग्रीकल्चर प्रोडक्ट। यह एक ऐसा कंप्यूटराइज्ड सिस्टम है, जहां आपको पता चल जाएगा कि किसान ने बीज कहां से लिया, कहां पर लगाया। पैकिंग से लेकर मार्केटिंग तक सब कुछ ट्रेस किया जा सकता है।
किसानों, स्वयं सहायता समूह के प्रोडक्ट ई-कॉमर्स पर बिके इसके लिए क्या किया जा रहा है?
नाबार्ड का भी यही मानना है कि सारी एक्टिविटी के केंद्र में मार्केट होना चाहिए। हम लोगों को प्रोत्साहित करते हैं कि बाजार को देखकर ही तैयारी करें। पहले मार्केटिंग की तैयारी करें फिर प्रोडक्ट तैयार करें। रही बात ई-कॉमर्स पर प्रोडक्ट को बेचने की तो हम इसके लिए भी प्रशिक्षण देते हैं। उन्हें बताते हैं कि किस तरह इन कंपनियों में रजिस्ट्रेशन कराएं। इनके जो मानक होते हैं उस हिसाब से हम ट्रेनिंग देते हैं। इसमें जो खर्च आता है, उसमें भी मदद करते हैं। बीते मार्च में एफपीओज (किसानों के छोटे-छोटे समूह) के प्रशिक्षण शिविर में भी उन्हें इस बाबत ट्रेनिंग दी गई। आने वाले कुछ वर्षों में इसका बड़ा असर दिखाई देगा।
ग्रामीण इलाकों में महिलाएं अकेले बाजार जाने लगी हैं, दूसरों पर निर्भरता कम हुई है, इस सोशल इंपैक्ट को कैसे देखते है?
मुझे नाबार्ड को ज्वाइन किए हुए 35 वर्ष से ज्यादा हो गए हैं। 1988 में मैं नियुक्त हुआ था। 1992-1993 से स्वयं सहायता समूह की शुरुआत हुई। उस दौरान हम लोगों ने भी सीखना शुरू किया। हम लोगों ने सबसे ज्यादा महिलाओं से सीखा है। शुरुआत में बैंकों ने इनपर विश्वास नहीं किया। उन्हें इस बात पर संशय था कि ये लोन वापस कर पाएंगी। बैंकों को समझाने में बड़ा समय लगा। सामाजिक बदलाव की बात करूं तो स्वयं सहायता समूह के रूप में जो क्रांति आई है, उससे इन महिलाओं के अंदर आत्मविश्वास और सम्मान का भाव पैदा किया। मैंने ओडिशा, बिहार, झारखंड, आंध्रप्रदेश में काम किया है। यहां पर बहुत असमानताएं हैं। महिलाओं की स्थिति देखकर दुख होता था। यहां पर भी इन समूहों के कारण अब बड़ा बदलाव हुआ है। पहले भी महिलाएं बुरे वक्त के लिए 100-50 रुपये छुपाकर रखती थी। अब यह रकम दो-ढाई हजार हो गई है। लेकिन, इस प्रोग्राम के शुरू होने के बाद जो महिलाओं के जीवन में जो सकारात्मक बदलाव आया है वह शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। यह सारी दुनिया भी मानती है। यह हमारे सबसे सफल प्रोग्राम में से एक है। मैं समझता हूं ऐसी सामाजिक क्रांति कभी भारत में नहीं आई। अब महिलाओं को छोटी-छोटी जरूरतों को पूरा करने के लिए पति या बच्चों के पास जाना नहीं पड़ता है। वह स्वावलंबी बन चुकी हैं। यह फाइनेंशियल इंपैक्ट है।
लोग खेती से मुंह मोड़ रहे हैं, पहाड़ पर ही किसानों के लिए रोजगार के कुछ साधन पैदा कर पलायन से रोका जा सकता है, इसपर भी कोई काम हो रहा है?
हमारे पास जो जमीन है, वह समतल नहीं है। पहाड़ी राज्य में यह स्वाभाविक भी है। इसके लिए हम लोग जलस्रोत पर काम कर रहे हैं। सिंचाई पर हमारा फोकस है। पहाड़ पर 10 प्रतिशत ही ऐसे क्षेत्र हैं, जहां पर सिंचाई व्यवस्था है। तराई इलाकों में यह व्यवस्था ठीक है। मगर, प्लेन इलाका हमारे पास ज्यादा नहीं है। इस परिस्थिति में जरूरी होता है कि किसान इकट्ठा हो जाएं। नाबार्ड ने 2008 में यह शुरू किया। इसको कहा जाता है फार्मर्स प्रोड्यूसर ऑर्गेनाइजेशन यानी किसान उत्पादक संगठन। यहां पर किसान एकजुट होकर एक तरह की खेती करते हैं। समूह में होने के कारण इन्हें अपने उत्पाद बेचने में भी सहूलियत होती है। सरकारी योजनाओं का लाभ लेने में भी सहूलियत रहती है। केंद्र सरकार इसके लिए ठीक-ठाक फंड देती है। हम भी मदद और ट्रेनिंग देते हैं। इस प्रकार के करीब 250 समूह उत्तराखंड में हैं। इनमें से 140-145 के करीब एफपीओ नाबार्ड की योजना में हैं।
जो महिलाएं नाबार्ड से जुड़ना चाहती हैं, उन्हें क्या कहना चाहेंगे?
जब भी हम महिलाओं से बात करते हैं, कुछ सीखते ही हैं। उनकी महत्वकांक्षाएं भी बहुत हैं। अगर आप काम करना चाहती हैं तो प्रशिक्षित होना जरूरी है। मैं सभी महिलाओं से कहना चाहता हूं कि नाबार्ड के दरवाजे सभी के लिए हमेशा खुले हैं। चाहे कृषि का क्षेत्र हो या गैर कृषि का। नाबार्ड हर जगह मदद के लिए तैयार है। समूह से जुड़ें या बनाएं। बैंकों से लोन लेकर काम शुरू करें। नाबार्ड हर तरह से सहायता देगा। हम गारंटी देते हैं कि आप जरूर सफल होंगे।
इंफ्रास्ट्रक्चर में सरकार को मदद
सीजीएम विनोद बिष्ट बताते हैं कि नाबार्ड ने अब तक 11,700 करोड़ का कर्ज राज्य सरकार को दिया है। ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी इंफ्रास्ट्रक्चर में नाबार्ड बड़ा रोल अदा कर रहा है। आपको बता दें कि ग्रामीण क्षेत्र की 60 प्रतिशत सड़कों को बनाने के लिए कर्ज के रूप में पैसे हम देते हैं। इसके अलावा पेयजल की अधिकतर योजनाओं में नाबार्ड का पैसा लगा होता है। हमारे जो प्राथमिकता वाले क्षेत्र हैं जैसे-शिक्षा, किसानी, बुनियादी ढांचा इसपर हम लोगों ने खूब फंडिंग की है। उत्तराखंड की बात करूं तो मुझे लगता है कि अगर विकास की यही रफ्तार रही तो आने वाले दस वर्षों में हम टॉप फाइव स्टेट में शामिल हो जाएंगे। महिलाएं विकास की धुरी बनी रहेंगी।
जलस्रोतों के लिए 32 योजनाएं
उत्तराखंड में बहुत विषमताएं हैं। बहुत जगहें ऐसी हैं, जहां पानी नहीं है। कई स्थान ऐसे हैं, जहां पर जंगल नहीं हैं। कई स्थान ऐसे हैं, जहां की मिट्टी ठीक नहीं है। मिट्टी बह गई है। इसके लिए हम नेचुरल रिसोर्स मैनेजमेंट एक्टिविटीज कर रहे हैं। नाबार्ड ने 2009 में वाटर शेड मैनेजमेंट कार्यक्रम शुरू किया था। उत्तराखंड की मैं बात करूं तो हम 32 प्रकार के कार्यक्रम कर रहे हैं। इस प्रोग्राम के तहत 500 से हजार हेक्टेयर का क्षेत्र का चयन किया जाता है। यहां पानी के स्रोत बहुत कम हैं। इसमें पांच से छह गांव आते हैं। यहां हम कोशिश करते हैं कि पानी रोका जाए। बारिश के दौरान कम पानी नीचे जाए। जलस्रोत को रिचार्ज करने के लिए 32 में से करीब 15 योजनाएं चल रही हैं।
सोलर रिपेयरिंग सीख रहीं महिलाएं
सीजीएम विनोद कुमार बिष्ट के मुताबिक- सोलर पैनल को कैसे रिपेयर किया जाए, इसकी भी ट्रेनिंग नाबार्ड महिलाओं को दे रहा है। वर्तमान में केंद्र सरकार का सोलर ऊर्जा पर बहुत फोकस है। संभव है कि आने वाले कुछ वर्षों में तमाम घरों की छतों पर सोलर पैनल दिखने लगें। सोलर पैनल होंगे तो उसकी मरम्मत की जरूरत भी पड़ेगी। नाबार्ड ने इसीलिए यह प्रोग्राम शुरू किया है। बाजार के जानकार भी कहते हैं कि आने वाले समय में सोलर पैनल रिपेयरिंग का बाजार काफी बड़ा होने जा रहा है, क्योंकि पैनल को साल भर मेंटीनेंस की जरूरत होती है। यह प्रोग्राम पिछले वर्ष ही शुरू किया गया है। यह प्रोग्राम हम लोगों के लिए भी एक चैलेंज था, क्योंकि यह परंपरागत कामों से हटकर था। लेकिन, हमें बताते हुए खुशी हो रही है कि इसमें भी हमने सफलता हासिल की है। स्वयं सहायता समूहों ने इसे भी कर दिखाया। इससे महिलाओं की आमदनी ठीक-ठाक हो जाती है। मुझे लगता है कि इस सेक्टर में दक्ष लोगों के सामने आने वाले समय में रोजगार का संकट नहीं रहेगा।
उत्तराखंड में 93 हजार स्वयं सहायता समूह
सीजीएम विनोद कुमार बिष्ट बताते हैं- उत्तराखंड में बड़ी संख्या में स्वयं सहायता समूह हैं। इनकी संख्या लगभग 93,000 है। इनमें से कई भारत सरकार द्वारा तैयार किया गया है। कई समूह को हमने तैयार किया है। इन महिलाओं के सामने सबसे बड़ी समस्या प्रशिक्षण की होती है। ये मेहनती हैं, मगर अप्रशिक्षित हैं। इसलिए हम इनके लिए दो तरह की प्रशिक्षण योजनाएं चलाते हैं। एक का नाम है एमईडीपी योजना जो माइक्रो एंटरप्राइज डेवलपमेंट प्रोग्राम होता है। इसमें हमारा फोकस होता है कि महिलाओं को किसी काम में दक्षता दी जाए। जिससे कि यह अपना काम घर में ही करें। सिलाई, कढाई, अचार बनाना और टेलरिंग, इस प्रकार के जो काम होते हैं उसके प्रशिक्षण के लिए हम हर साल छोटे-छोटे चार-पांच प्रोग्राम रखते हैं। इससे बड़े प्रोग्राम को एलईडीपी कहते हैं यानी लाइवलीहुड एंटरप्राइज डेवलपमेंट प्रोग्राम। इसमें कम से कम 100 महिलाएं शामिल होती हैं। एसएचजी की महिलाएं होती हैं, इनके पास पैसे भी होते हैं। इन्हें बस प्रशिक्षण की जरूरत होती है। इसमें अनिवार्य शर्त बैंकों से जुड़े रहना होती। अगर स्वयं सहायता समूह बैंकों से नहीं जुड़ते और इकाइयां स्थापित नहीं करते तो उत्तराखंड में जो बदलाव दिख रहा है, वह संभव नहीं हो पाता। समझ लीजिए, यह एक प्री-कंडीशन है।